Friday, March 23, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 21


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 21
                  अर्जुन के जीवन को समझ लेने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि हम चाहे कितनी ही पूजा-पाठ जैसी कई क्रियाएं कर लें और चाहे भगवान श्री कृष्ण भौतिक रूप से आकर हमारे साथ जीवन भर रह लें, मुक्त होने के लिए उनके द्वारा दिए गए ज्ञान को अपने ह्रदय में सदैव बनाये रखना होगा | समस्या ज्ञान को सुनने और जानने की नहीं है, ज्ञान तो सार्वकालिक और प्रत्येक स्थान पर उपलब्ध है | समस्या है उस ज्ञान को स्मृति में बनाये रखने की | ज्ञान विस्मृत हुआ नहीं कि मन में विकार प्रवेश पा जाते हैं | अर्जुन ज्ञान को विस्मृत करता गया और विकार उसमें प्रवेश करते रहे | भगवान उस ज्ञान का स्मरण कराते, अर्जुन पुनः सक्रिय होकर अस्थाई रूप से समता धारण कर लेता परन्तु कुछ समय उपरांत वही ढाक के तीन पात | मानसिक विकार ही मुक्ति में बाधक है, परमात्मा-प्राप्ति में बाधक है, आत्म-ज्ञान में बाधक है | तो आइये, अब सबसे पहले हम उन मानसिक विकारों की तरफ चलकर उनकी खबर लेते हैं |
                परमात्मा ने हमें विकार रहित ही बनाया है परन्तु संसार में आकर हम कर्म-जाल में इस प्रकार उलझ गए हैं कि विकार ग्रस्त हो गए हैं | हमारे शास्त्रों में मुख्य विकार छः माने गए हैं | इन्हें षट्-विकार के नाम से कहा गया है | ये छः विकार हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य | वैसे शास्त्रों में कई स्थानों पर सात विकार भी बताये हैं | उपरोक्त छः विकारों में अंतिम विकार मात्सर्य के स्थान पर राग और द्वेष विकार मिलाने पर मुख्य विकारों की संख्या सात हो जाती है | वृहत् रूप से (Broadly) देखा जाये तो विकार अनगिनत है परन्तु इनके अतिरिक्त किसी न किसी  विकार का आधार इन मुख्य विकारों में से कोई एक विकार अवश्य होता है | इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि विकार कितने हैं ? विकार, विकार ही होते हैं और आत्म-ज्ञान के लिए समस्त विकारों का त्याग करना पड़ता है | मन का शुद्धिकरण समस्त प्रकार के विकारों के त्यागने से ही संभव हो सकता है | इसे भीतर की शुद्धि अर्थात आत्म-शुद्धि कहा जाता है | शुद्ध मन से ही मनुष्य जीवन-मुक्त हो सकता है अन्यथा उसको आवागमन से कभी मुक्ति नहीं मिल सकती | प्रकाश में सात रंग होते हैं परन्तु वह हमें सफ़ेद ही दृष्टिगत होता है | हमारा चैतन्य भी प्रकाश स्वरूप होता है | हमारा शरीर जिसमें हमारी जीवात्मा रहती है, वह भी उसी चैतन्य से प्रकाशित होती है | शुद्ध मन ही प्रकाश स्वरूप होता है |
                           किसी वस्तु पर जब प्रकाश पड़ता है, तब वह किसी एक विशेष रंग की दिखलाई पड़ती है | इसका क्या कारण है ? संसार की सभी वस्तुओं पर प्रकाश समान रूप से पड़ता है ? प्रत्येक वस्तु प्रकाश के सात रंगों में से कुछ रंग को अवशोषित (Absorb) कर लेती है और शेष बचे रंग को परावर्तित (Reflect) कर देती है | जिस रंग को वह परावर्तित करती है, हमें उस वस्तु का वही रंग दिखलाई पड़ता है | परावर्तित अर्थात त्यागा गया रंग ही उस वस्तु का रंग होता है, अवशोषित किया हुआ नहीं | इसी प्रकार इस संसार में आने के उपरांत हमारे मन के भीतर भी विकार रुपी रंग प्रवेश कर जाते हैं | जिस प्रकार सभी सातों रंगों को परावर्तित कर दिया जाता है तो वह वस्तु हमें प्रकाश के रंग की अर्थात दिखलाई पड़ती है | इसी प्रकार अगर हम सभी विकारों को त्याग देते हैं, तो हमारा जीवन भी प्रकाशित हो सकता है | केवल एक या दो विकार त्याग भी दिए जाएँ तो भी हमारा कोई न कोई रंग त्याग के रूप में तो दिखाई दे सकता है परन्तु इसका अर्थ है कि वास्तव में हम विकार-मुक्त नहीं हुए हैं | मन के भीतर प्रवेश कर गए समस्त विकारों का त्याग किये बिना हमारा प्रकाशित होना असंभव है | अतः आत्म-ज्ञान के लिए समस्त विकारों का त्याग करना आवश्यक है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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