गीता-ज्ञान की सार्थकता – 27
कर्म
के कारण ही विकार एक-एक कर मनुष्य के भीतर प्रवेश करते हैं क्योंकि कर्म भोग
उपलब्ध कराते हैं और भोग हमें सुख प्रदान करता है | वास्तव में देखा जाये तो वह
सुख न मिलना होकर केवल उसके मिलने भ्रम होता है | जब मनुष्य अपने जीवन के प्रारम्भ
में कर्म करना प्रारम्भ करता है, तब उन कर्मों के प्रारम्भ करने में प्रारब्ध की भूमिका
होती है | कोई भी कर्म भले ही वह प्रारब्ध के कारण फल प्राप्त करने के लिए ही होता
हो परन्तु उस फल का मिलना वर्तमान जीवन में बिना पुरुषार्थ किये संभव ही नहीं है | इसीलिए गीता में भगवान श्री
कृष्ण कहते हैं कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति कर्म किये बिना क्षण मात्र भी नहीं
रह सकता अर्थात प्रत्येक क्षण कोई न कोई कर्म हम करते ही रहते हैं | इस प्रकार यह
कहा जा सकता है कि मनुष्य की अपने जीवन में कर्म करने की एक आदत बन जाती है |
इसलिए मनुष्य के द्वारा अपने जीवन में कोई भी कर्म न करना लगभग असंभव सी बात है |
जब प्रारब्ध के अनुसार कर्म-फल प्राप्त करने के लिए कर्म किये जाते हैं तब व्यक्ति
को यह आभास होता है कि वह जो कर्म अपने वर्तमान जीवन में कर रहा है उसके कारण ही
वह अपनी इच्छानुसार फल (भोग) प्राप्त कर रहा है | यह पूर्णतः सत्य नहीं है | इसी
को संत जन कर्म के प्रति मोह होना कहते हैं, यह मोह होना ही अज्ञान है | इस मोह के
कारण ही हमें लगता है कि हमारे प्रयास से, हमारे कर्म करने से उपयुक्त फल प्राप्त
हो रहे हैं | एक ही प्रकार के फल को पुनः प्राप्त करने के लिए काम का जन्म होता है
तथा उसी फल को बारम्बार और अधिक से अधिक मात्रा में प्राप्त करने की चाह को लोभ
कहा जाता है | यह लोभ उस भोग की तृष्णा (प्यास) को जन्म देता है | यह तृष्णा हमें
उस कर्म के प्रति आसक्त बना देती है | जब हम कर्म करते हुए अपनी रुचि के अनुसार फल
प्राप्त करते जाते हैं तो हमारे भीतर मद/अहंकार नाम के विकार का जन्म हो जाता है |
इस प्रकार प्रारब्ध से कर्म के रास्ते चलते हुए हम चार विकारों अर्थात मोह, काम,
लोभ और मद को अपने भीतर पैदा कर चुके हैं |
ये चारों
विकार कर्म का फल इच्छानुसार प्राप्त होते जाने से पैदा हुए हैं | परन्तु जब कर्म करने
के बाद भी इच्छानुसार फल प्राप्त नहीं होता तब पांचवां विकार क्रोध पैदा होता है |
क्रोध से मति-भ्रम हो जाता है, जो बुद्धि का नाश कर देता है | बुद्धि के नाश होने
का अर्थ है, मोह का और अधिक बढ़ जाना | क्रोध से पैदा हुए मति-भ्रम के कारण
मात्सर्य पैदा होता है | मात्सर्य का अर्थ है, ईर्ष्या | ईर्ष्या उस व्यक्ति से
जिसके पास वह सब कुछ उपलब्ध है जो आप चाहते हैं और आपके पास वह नहीं है | इस
प्रकार एक कर्म के प्रति आसक्ति का भाव हमें काम से मात्सर्य तक समस्त छः विकारों
से ग्रस्त कर देता है | कर्मासक्ति ही कर्म बंधन पैदा करती है | हम केवल उस कर्म
के प्रति ही अधिक आसक्ति भाव रखते हैं, जिस कर्म को करने से हमें इच्छित फल
प्राप्त होता है | यह आसक्ति ही हमें उस कर्म के साथ बाँध देती है | इस प्रकार
इतने विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि कर्म ही विकार का कारण बनते हैं | इसीलिए
गीता को कर्मयोग का ग्रन्थ कहा जाता है क्योंकि यही एक मात्र ग्रन्थ है, जो हमें
कर्म-बंधन से मुक्त होने की राह दिखलाता है | गीता की सार्थकता तभी है जब हम कर्म के
रहस्य को समझकर इस कर्म-बंधन को तोड़कर समस्त विकारों से मुक्त हो जाएँ | समस्त
विकारों से मुक्त हो जाना ही जीवन- मुक्त होना है |
क्रमशः
प्रस्तुति डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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