गीता ज्ञान की सार्थकता – 2
इस ज्ञान के लुप्तप्राय हो जाने का
अर्थ यह बिलकुल भी नहीं है कि ज्ञान सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो गया था, बल्कि इसका
अर्थ है कि ज्ञान स्मृति में नहीं रह पाया था | स्मृति के लोप हो जाने का अर्थ
ज्ञान का नष्ट हो जाना नहीं है बल्कि उस ज्ञान की स्मृति में न बने रहना है | गीता-ज्ञान
शाश्वत ज्ञान है, सनातन ज्ञान है, यह कभी भी नष्ट नहीं हो सकता | तभी तो जब भगवान
श्री कृष्ण गीता-ज्ञान का समापन कर रहे होते हैं, तभी अर्जुन कह उठते हैं –
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा
त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये
वचनं तव ||गीता-18/73||
अर्जुन स्वीकार करते हैं कि हे
अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है,
अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |
प्रश्न यह उठता है कि
क्या भगवान श्री कृष्ण से ज्ञान पाकर सचमुच में अर्जुन का मोह नष्ट हो गया था ?
क्या उसने स्मृति प्राप्त कर ली थी ? स्मृति उस ज्ञान की जो उसके जीवन में मोह
उत्पन्न हो जाने के कारण विस्मृत हो गया था |क्या वह पूर्णरूप से संशय रहित हो गया
था ? हमारा जीवन भी अर्जुन की तरह का ही जीवन है | हमारे में और अर्जुन में तनिक
मात्र भी भिन्नता नहीं है | अर्जुन को साक्षात् परमात्मा से ज्ञान प्राप्त हुआ था
और हमें वही ज्ञान श्रीमद्भगवद्गीता से मिल रहा है और संशय रहित होने के लिए हमें योग्य
गुरु भी उपलब्ध है | फिर क्या कारण है कि हम स्मृति प्राप्त कर लेने के बाद भी
बार-बार मोह में पड़ जाते हैं और ज्ञान को विस्मृत कर संशयग्रस्त हो जाते हैं ? यह
सब जानने के लिए हमें उस प्रसंग में उतरना होगा जो महाभारत में वर्णित है |
महाभारत में वर्णित ये प्रसंग अर्जुन से सम्बंधित है जो गीता-ज्ञान प्राप्त कर
लेने के उपरांत उसके जीवन में घटित हुए हैं | हमारे में और अर्जुन में नाम, समय और
स्थान आदि का अंतर भले ही हो परन्तु उसकी और हमारी मानसिकता में तनिक भी अंतर नहीं
है | इसी से हम समझ सकते हैं कि जो कुछ अर्जुन ने गीता-ज्ञान प्राप्त कर के अपने
जीवन में जो किया वह हम भी कर सकते हैं | हम जब यह समझ लेंगे कि अर्जुन ने
गीता-ज्ञान का कैसे उपयोग (Utilise) किया तभी हम श्रीमद्भगवद्गीता जैसे
महान ग्रन्थ की सार्थकता (Significance) को समझ पाएंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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