गीता-ज्ञान की सार्थकता – 19
अर्जुन और श्री कृष्ण युद्ध भूमि में विचरण कर रहे हैं | भगवान श्री कृष्ण
के सम्मुख अर्जुन अपने आपको सर्वकालीन महायोद्धा बताते हुए आत्मप्रशंसा में लीन है
| उसके अभिमान को चूर-चूर करने के लिए श्री कृष्ण अवसर का इंतजार कर रहे हैं | तभी
उनके सामने वह पहाड़ी आ जाती है, जहाँ भीम पुत्र बर्बरीक का मस्तक युद्ध देखने के
लिए रखा गया था | गुरु-शिष्य दोनों टहलते हुए बर्बरीक के शीश के पास पहुंचते हैं |
अर्जुन अभी भी आत्मप्रशंसा में लीन है | अंततः भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को संबोधित
करते हुए कहते हैं कि ‘हे अर्जुन ! महाबली बर्बरीक ने सम्पूर्ण महाभारत युद्ध को
देखा है | क्यों न इनसे ही पूछ लिया जाये कि इस महायुद्ध का महायोद्धा कौन है ?’
अर्जुन ने बर्बरीक की और देख कर इस प्रश्न का उत्तर चाहा | महाबली बर्बरीक के शीश ने
उत्तर दिया-‘मुझे तो इस युद्ध में कोई भी योद्धा लड़ते हुए दिखाई ही नहीं दिया |
केवल एक मात्र सुदर्शन चक्र ही इस छोर से उस छोर तक घूमते हुए संहार कर रहा था |’
बर्बरीक का यह उत्तर सुनकर अर्जुन का गर्व चूर-चूर हो गया |
इस
प्रकार हम समझ सकते हैं कि मोह और मद (अभिमान) सभी विकारों के मूल है | अगर इतना ज्ञान
सुनकर और पढ़कर भी हमारा अहंकार और मोह नष्ट नहीं होता तो कमी हमारे में है, ज्ञान में
और ज्ञान देने वाले में नहीं | हमें यह जानना आवश्यक है कि ज्ञान केवल सुनने और
पढ़ने की पुस्तकीय बातें ही नहीं है बल्कि उस ज्ञान को जीवन में अपनाने से ही उसकी महता
है | इसीलिए कहा जाता है कि ‘ज्ञानं भारः क्रियाः बिना’ अर्थात ज्ञान को काम में
लिए बिना वह ज्ञान मात्र बोझ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | हम ज्ञान के बोझ तले
दबे जा रहे हैं | यह बोझ ही मनुष्य में ज्ञान का अहंकार पैदा करता है | इस ज्ञान
के बोझ को कम करने का एक ही उपाय है, उस ज्ञान का सही समय पर सदुपयोग कर लिया जाये
| अगर ज्ञान का समय पर सदुपयोग नहीं किया जाता तो फिर ऐसा ज्ञान बोझ के अतिरिक्त कुछ
भी नहीं रह जाता है |
हम पढ़ते हैं, सुनते हैं, गुरु के पास जाते हैं और सब कुछ सीखते और जानते भी
हैं परन्तु उस जाने हुए ज्ञान के अनुसार चलते नहीं है | यह प्रत्येक मनुष्य की कमी
है | आज जो कुछ भी सामने दिखाई दे रहा है, उसी को सत्य मान बैठे हैं जबकि
वास्तविकता यह है कि जो कुछ भी हमें दिखलाई पड़ रहा है, वह प्रतिपल निरंतर
परिवर्तित हो रहा है | निरंतर परिवर्तित होने वाला सत्य हो ही नहीं सकता फिर भी हम
उसी को सत्य मान रहे हैं | वास्तविक ज्ञान वही है जो इस बात का ज्ञान करा दे कि
सत्य शाश्वत होता है और इस भौतिक दृष्टि से वह दिखाई नहीं दे सकता | मोह वह अज्ञान
है जो हमें हमारे जीवन में वास्तविक ज्ञान से वंचित कर देता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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