गीता-ज्ञान की सार्थकता – 23
इसी प्रकार जब (काम) कामना पूरी नहीं
होती तो क्रोध और दुःख उत्पन्न होता है | क्रोध उस कामना को पूरा करने के लिए फिर
अधिक जोश से प्रयास करने की इच्छा पैदा करता है और अगर इस बार भी काम पूर्ण नहीं
हुआ तो क्रोध और अधिक बढ जाता है | काम पूर्ण हो जाने की दशा में व्यक्ति सुख के मद/अहंकार/दर्प
में चूर हो जाता है और अपने आपको सभी कामनाओं को पूर्ण करने की क्षमता वाला और एक
मात्र कर्ता समझ बैठता है | इस प्रकार स्वयं के द्वारा किये गए कर्म से काम के
पूर्ण होने पर दूसरा विकार मोह पैदा हो गया है | यह मोह फिर एक नई कामना (काम) को
जन्म देगा | इसके साथ ही कर्म करने का राग भी हमारे भीतर प्रवेश पा जाता है | मोह
वह विकार है, जो सुख प्रदान करने वाले व्यक्ति (ममता) व वस्तुओं आदि से होता है |
कहने का अर्थ है कि हमें अपने द्वारा स्वयं के लिए बनाये संसार से मोह हो जाता है |
मोह को अज्ञान भी कहा जाता है | हम जानते हैं कि यह संसार और इसकी सभी वस्तुएं व
व्यक्ति अस्थाई और परिवर्तन शील है तथा उनसे हमारा सम्बन्ध केवल तात्कालिक है, असत्
है, सार्वकालिक नहीं है; फिर भी हम उन्हीं को स्थाई, सदैव के लिए व सत्य समझ बैठते
हैं और उन्हीं से सुख पाना चाहते हैं | इस प्रकार संसार के जाल में उलझाकर रख देने
वाले ये काम और मोह नामक दो विकार प्रमुख हुए | काम और मोह दोनों ही विकार मनुष्य
को एक प्रकार का सुख प्रदान करते हैं परन्तु वास्तव में यह सुख न होकर सुखी होने
का भ्रम मात्र ही होता है |
जब कोई नया काम पूर्ण नहीं हो पाता अथवा वह मनोवांछित फल प्रदान नहीं करता
तो व्यक्ति के इस मद अर्थात अभिमान को ठेस पहुँचती है, जो उसे दुःख पहुँचाती है |
कामना को पूरा न कर पाने से हमारा क्रोध और अधिक बलवान होता जाता है | इसी प्रकार
जब हमें सतत प्रयास के बाद भी कामना को पूरा करने में विफलता हाथ लगती है, तो हमारे
भीतर उस कार्य को पूर्ण करने के लिए कर्म के प्रति राग भी पैदा हो जाता है | जिस
अन्य व्यक्ति के पास अगर कोई वस्तु है और हमारे पास नहीं है अथवा उस व्यक्ति के
अल्प प्रयास से भी वह कामना पूर्ण हो गयी हो जो हमारी पूरी नहीं हुई है तथा अगर कोई
व्यक्ति हमारी कामना को पूर्ण करने में बाधक बना हो तो हमारे भीतर उस व्यक्ति के
प्रति मात्सर्य (ईर्ष्या) और द्वेष पैदा हो जाता है | इस प्रकार काम पूरा होने
अथवा न होने से उत्पन्न होने वाले ये दोनों विकार सामूहिक रूप से राग-द्वेष कहलाते
हैं | जब कामना पूर्ण नहीं हो, तब अगर विवेक बुद्धि का उपयोग किया जाये तो व्यक्ति
परमात्मा की ओर अग्रसर हो सकता है | सुख की अपेक्षा दुःख हमें शीघ्र ही आध्यात्मिक
बना सकता है | इसीलिए कहा जाता है कि जीवन में जब दुःख आये तो समझ लेना चाहिए कि
परमात्मा की ओर चलने का समय आ गया है |
इस
प्रकार हम समझ सकते हैं कि प्रत्येक विकार एक दूसरे का जनक (Procreator) भी है और पोषक (Nourisher) भी | एक विकार के आने से व्यक्ति में एक-एक कर सभी
विकार उत्पन्न हो जाते हैं | इतने विवेचन से स्पष्ट है कि इन छह विकारों में भी दो
मुख्य विकार है, जो सभी विकारों के जनक भी है और पोषक भी | वे दो विकार हैं - काम और
मोह | इन दोनों में से एक विकार अधिक महत्वपूर्ण है और वह विकार है, काम | इसलिए
काम को थोडा विस्तार से जानना आवश्यक है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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