Monday, March 19, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 17


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 17
                       श्री हरि से आशीर्वाद प्राप्त कर देवर्षि पहुँच गए, शील निधि के दरबार में जहाँ विश्वमोहिनी का स्वयंवर हो रहा था | राजकुमारी जयमाला लेकर मंडप में आती है, नारद उछल-उछल कर उसके सामने अपने चेहरे को ले जाते हैं परन्तु राज कुमारी उनकी ओर दृष्टि तक नहीं डालती है | अन्ततः स्वयंवर समाप्त हो जाता है और सभी अपने-अपने स्थान पर जाने के लिए उठ खड़े होते हैं | स्त्री-वियोग में दुखी होकर देवर्षि भी उठ खड़े होते हैं | पास में बैठे थे शिव के दो गण, वे नारद के बन्दर जैसे चेहरे को देखकर उनकी हंसी उड़ाते हैं और नारद उन्हें शाप देते हैं कि तुम दोनों जो मेरी इस देह को देखकर राक्षसों की तरह  मुझ पर हंस रहे हो न, त्रेता युग में तुम दोनों निशाचर बनोगे | व्यथित नारद राजप्रासाद से बाहर निकलते हैं और पास में स्थित सरोवर में जाकर अपने मलिन मुख को धोते हैं | वे अपना चेहरा जल-दर्पण में देखकर हतप्रभ रह जाते हैं | यह कैसा रूप दे दिया श्री हरि आपने ? भयंकर विशाल बन्दर की देह | नहीं, ऐसा हो नहीं सकता | श्री हरि ने जानबूझकर ऐसा क्यों किया ?
               नारद इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि श्री हरि आ पहुंचे देवर्षि के सम्मुख | साथ में धर्मपत्नी रमा और वही विश्वमोहिनी राजकुमारी | श्री हरि और राजकुमारी विश्वमोहिनी, दोनों के गले में पड़ी वरमाला देखकर नारद सब कुछ समझ गए | स्त्री-मोह ने उनकी आंतरिक दृष्टि छीन ली थी, मोह ने उन्हें अँधा बना दिया था | वे व्यथित तो पहले से ही थे, श्री हरि के साथ राजकुमारी को देखकर उनकी व्यथा कई गुना अधिक बढ़ गयी | उन्होंने श्री हरि को शाप दिया कि जिस प्रकार एक स्त्री के वियोग से मैं आज दुखी हो रहा हूँ, उसी प्रकार आप भी एक दिन स्त्री के वियोग में दुखी होंगे | साथ ही साथ जिस प्रकार आपने मुझे जैसे यह वानर देह दी है, वैसे ही वानर एक दिन आपके लिए सहायक सिद्ध होंगे | श्री हरि ने मुस्कान के साथ उनका शाप शिरोधार्य किया और अपनी माया समेट ली | अब वहां पर न तो वह नगर था और न ही राजकुमारी विश्वमोहिनी | यह सब कुछ केवल भ्रमित करने वाली माया थी जिसके मोह में काम को जीत लेने वाले देवर्षि नारद भी काम के वश होकर फंस गए थे |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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