Wednesday, March 28, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 26


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 26
              अब प्रश्न यह पैदा होता है कि मुख्य विकार अर्थात काम का जनक कौन है और यह कहाँ पैदा होता है ? काम का जनक है, विषय-भोग (सांसारिक सुख) तथा विषय-भोग मिलते हैं, कर्म करने से | अतः कर्म ही परोक्ष रूप से मुख्य कारण बनते हैं-काम को जन्म देने में और काम के जन्म लेने का स्थान होता है, मन |  मन में विषय-भोग के प्रति आसक्ति के कारण काम जन्म लेता है अर्थात भोगों के कारण मन में काम उत्पन्न होता है | बिना किसी कर्म के किये भोग उपलब्ध हो नहीं सकते | इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि बिना कोई कर्म किये मन में काम पैदा हो ही नहीं सकता परन्तु क्या जीवन में कर्म का त्याग करना संभव है ? नहीं, कर्म करना हम छोड़ ही नहीं सकते, जीवन में हमें कर्म करने ही पड़ते हैं क्योंकि इस जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए कर्म करने आवश्यक हैं | गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते भी हैं कि मनुष्य अपने जीवन में एक क्षण के लिए भी कर्म किये बिना रह भी नहीं सकता |
                      मनुष्य कर्म करना क्यों और कैसे प्रारम्भ करता है ? इसको जानने के लिए हमें मन को जानना होगा क्योंकि मन के बिना कोई भी मनुष्य कर्म करने को विवश नहीं हो सकता | मन के दो भाग होते हैं | एक भाग शरीर के साथ संलग्न होता है और दूसरा भाग आत्मा के साथ | शरीर के साथ लगा मन का भाग तभी सक्रिय होता है जब व्यक्ति कर्म करना प्रारम्भ करता है अन्यथा नए जन्मे शिशु में मन सदैव निर्मल (Pure) ही होता है, विकार ग्रस्त नहीं | विकार तो कर्म करने के साथ ही भोग मिलने पर मन के भीतर उत्पन्न होते हैं, जिसे विकार का व्यक्ति में प्रवेश होना कहते हैं | मनुष्य अपने जीवन में कर्म करना प्रारम्भ करता है, अपने पूर्व जन्म के पुरुषार्थ अर्थात प्रारब्ध के कारण | अगर प्रारब्ध में कुछ भी लिखा नहीं हो तो कर्म प्रारम्भ करना थोडा मुश्किल होता है हालाँकि बिना कर्म किये रहना इस जीवन में संभव नहीं है | कुछ न कुछ कर्म स्वतः ही इस शरीर में होते रहते हैं | प्रत्येक कर्म का एक निश्चित फल अवश्य ही होता है | वह फल हमें या तो सुख पहुंचाता है या दुःख | दोनों ही प्रकार के कर्म-फल को भोग कहा जाता है | इन विषय-भोग (सांसारिक सुख) के प्रति व्यक्ति आसक्त हो जाता है | यह विषयासक्ति हमारे जीवन में विकारों को आमंत्रित करती है |
                      मन के भीतर जब काम बढ़ता है, तब नए जीवन के लिए प्रारब्ध बनना प्रारम्भ हो जाता है | परन्तु ऐसा किसी भी व्यक्ति के मनुष्य जीवन में संभव ही नहीं है कि उसका प्रारब्ध बना ही नहीं हो | प्रारब्ध के कारण ही तो मनुष्य जन्म मिलना संभव होता है | प्रारब्ध के कारण ही हम आवागमन से मुक्त नहीं हो पाते हैं | इतने विवेचन से कर्मों के बारे में एक अति महत्वपूर्ण बात निकलकर हमारे समक्ष आती है कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन में प्रारब्ध के कारण कर्म अवश्य करे परन्तु प्रारब्ध बनाने के लिए कर्म नहीं करे |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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