Wednesday, March 14, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 12


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 12
                     आइये ! पुनः चलते है कुरुक्षेत्र में हो रहे युद्ध की ओर | अभी युद्ध प्रारम्भ नहीं हुआ है | दोनों पक्षों की सेनाएं आमने-सामने डटी हुई है और युद्ध के लिए तत्पर है | दोनों सेनाओं के मध्य अर्जुन का रथ लिए श्री कृष्ण खड़े हैं | वे उसे अवसाद से बाहर निकालने का प्रयास कर रहे हैं | समस्त गीता-ज्ञान को पाकर अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को कह रहे हैं-
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्य वचनं तव || गीता-18/73||
अर्थात हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |
                  यह श्लोक गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद का अंतिम श्लोक है, जो अर्जुन द्वारा उच्चारित किया गया है | इस श्लोक के अनुसार भगवान श्री कृष्ण को अर्जुन आश्वस्त करता है कि उसका समस्त प्रकार का मोह समाप्त हो चूका है और उसने अपनी स्मृति प्राप्त कर ली है | वह द्वंद्व से बाहर निकल कर निर्द्वंद्व हो चूका है अतः वह भगवान की आज्ञा का पालन करेगा |
                       इस श्लोक (गीता-18/73) में चार बातें अर्जुन द्वारा कही गयी है | प्रथम, मेरा मोह (अज्ञान) नष्ट हो गया है; दूसरी बात, मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है; तीसरी, मैं संशय रहित हो गया हूँ और चौथी तथा अंतिम बात कि मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा | इन चारों में अतिमहत्वपूर्ण बात है, मोह (अज्ञान) का नष्ट हो जाना | अतः प्रथम बात को थोड़ा विस्तार से जानना आवश्यक है तभी हम निश्चित कर सकते हैं कि गीता-ज्ञान का अर्जुन पर कितना प्रभाव पड़ा है ? अर्जुन पर पड़े प्रभाव के अनुसार ही हमारे ऊपर इस गीता-ज्ञान का क्या प्रभाव पड़ सकता है, यह निश्चित होगा | मोह नष्ट होना, ज्ञान का प्रथम प्रभाव होता है | शेष सभी तीनों प्रभाव मोह के अधीन है | मोह के नष्ट होते ही व्यक्ति को स्मृति भी प्राप्त हो जाती है, फिर वह निर्द्वंद्व होकर सब कुछ परमात्मा के नियमानुसार करेगा अर्थात उनकी आज्ञा का पालन करेगा | हम सब सांसारिक मोह में इतने जकड़े हुए हैं कि हमें मोह से मुक्त होना लगभग असंभव प्रतीत होता है | मोह हमें एक प्रकार की सुखद अनुभूति देता है, जो हमें साक्षात् इस जीवन में अनुभव होती दिखाई देती है | ज्ञानी चाहे कितना ही ज्ञान देता रहे कि यह संसार मिथ्या है, मृग-मरीचिका है परन्तु हमें जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, हम उसी को सत्य मानते हुए जड़ बने रहते हैं | परिवार जनों का मोह, शरीर का मोह, व्यवसाय का मोह, धन-सम्पति का मोह आदि असंख्य मोह के बंधनों से छूट पाना इतना आसान नहीं है | इस मोह की पकड़ इतनी अधिक मजबूत है कि  गीता का ज्ञान भी हमें इस मोह से तत्काल मुक्त नहीं कर सकता | मोह आखिर है क्या ? मोह अज्ञान है | जो परिवर्तनशील है उसको शाश्वत मान लेना ही मोह है | जो अपना नहीं है, उसको अपना मान लेना ही मोह है | फिर इस अपनत्व को गहराई से आत्मसात कर लेना और उसे ही अपना संसार बना लेना अपनी आंतरिक दृष्टि को भी खो देना है | आखिर ‘मोह में व्यक्ति अंधा हो जाता है’, यह कथन चरितार्थ हो ही जाता है | मोह के कारण व्यक्ति अपना भला-बुरा नहीं समझ सकता और उसी के वशीभूत होकर वह अपनी स्मृति खो बैठता है | वह यह नहीं जानता कि वह क्या है, कौन है और उसके इस जीवन का उद्देश्य क्या है ?
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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