Sunday, March 18, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 16


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 16
                  आपके जीवन में भी आपको अपने लक्ष्य से भटकाने के लिए ऐसे ही सब विकार अवरोध बनकर आयेंगे | अगर आप ने ज्ञान को आत्मसात किया होगा तो फिर संसार की कोई भी शक्ति आपको मोह ग्रस्त नहीं कर सकती | परन्तु यह सब इतना सरल नहीं है | साधारण मनुष्य के लिए तो एक दम नहीं है | ब्रह्मा पुत्र नारद जैसे देवर्षि भी स्त्री के मोह के जाल में फंसने से नहीं बच पाए थे | देवर्षि नारद ने काम को जीत लिया था | इसका उनको अभिमान हो गया था | वे सभी देवताओं को अपनी उपलब्धि बताते हुए आत्मप्रशंसा कर रहे थे | भगवान शंकर ने उन्हें कहा भी कि मुझे तुम जो यह सब काम-विजय की गाथा सुना रहे हो न उसे भगवान विष्णु को मत बताना | देवर्षि तो काम-विजय के मद में चूर थे | भला वे शिव की बात को सुनने वाले कहाँ थे ? पहुँच गए बैकुण्ठ, श्री हरि के दरबार में और करने लगे उनके समक्ष आत्मप्रशंसा | श्री हरि ने भी स्वीकार किया कि आप जैसा कोई नहीं है, जो काम को जीत सका हो | परन्तु नारद कहाँ रुकने वाले थे | वे तो लगातार अपनी प्रशंसा किये जा रहे थे |
                 परमात्मा की एक बहुत बड़ी विशेषता है | वे संसार में सब कुछ सहन कर सकते हैं परन्तु अपने भक्त का पतन उनको सहन नहीं होता | नारद ठहरे भगवान के परम भक्त | सदैव तीनों लोकों में ‘नारायण-नारायण’ का जप करते हुए घूमते रहते हैं | श्री हरि ने देखा कि अहंकार के कारण मेरे भक्त नारद का पतन हो रहा है, उसको इस प्रकार पतित होने से रोकना होगा | नारद जब बैकुण्ठ में श्री हरि के सामने आत्मप्रशंसा करते-करते थक गए तो उन्होंने परमात्मा को प्रणाम कर पृथ्वी लोक के भ्रमण पर जाने के लिए आज्ञा मांगी | श्री हरि की स्वीकृति पाकर वे ‘नारायण-नारायण’ जपते हुए पृथ्वी-लोक के लिए चल पड़े | तुरंत ही वे पृथ्वी लोक में पहुँच गए | वहां पहुंचते ही वे देखते हैं कि एक  नगर में वहां के राजा शीलनिधि  की अति सुन्दर कन्या राजकुमारी विश्वमोहिनी का स्वयंवर हो रहा है | उस नगर में पहुंचकर वे राज निवास गए | शीलनिधि ने अपनी कन्या का हाथ देखकर भविष्य बतलाने का आग्रह किया | हस्त-रेखा पढ़कर देवर्षि समझ गए थे कि इस कन्या का वर तो श्री हरि के समान ही कोई होगा | उन्होंने उसके भविष्य का सब कुछ अपने मन में छुपाकर रख लिया क्योंकि वे तो राजकुमारी को देखते ही मोहग्रस्त हो गए थे | उनके मन में उत्कंठा हुई कि क्यों न स्वयंवर में राजकुमारी उन्हें ही वर के रूप में चुने और जयमाला पहनाये | परन्तु ऐसा होना इतना आसान नहीं था | सब कुछ राजकुमारी विश्वमोहिनी के द्वारा किये जाने वाले चयन पर निर्भर था | देवर्षि नारद के सामने एक ही रास्ता था | वे श्री हरि से प्रार्थना करने लगे कि प्रभु, आप मुझे आपके जैसा सुन्दर रूप दीजिये | आप वह सब कुछ कीजिये जिससे राजकुमारी विश्वमोहिनी मुझे ही वर के रूप में स्वीकार करे | श्री हरि ने देवर्षि को कहा कि ‘मैं वह सब कुछ करूँगा जिसमें तुम्हारा हित निहित होगा | तुम्हारे हित के विरुद्ध मैं कुछ भी नहीं करूँगा |’
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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