गीता-ज्ञान की सार्थकता – 7
एक बार एक चील को कहीं से एक मरा हुआ चूहा दिखलाई पड़ गया | वह भूख से बुरी
तरह तड़प रही थी | उसने उस मरे हुए चूहे को अपने पंजों में जकड़ा और आकाश की अनंत
ऊँचाइयों की तरफ उड़ चली | वह तलाश में थी एक ऐसे स्थान की, जहाँ शांति के साथ बैठ
कर वह उस चूहे को उदरस्थ कर सके | परन्तु दुर्भाग्य, कुछ चीलों ने उसे चूहा ले
जाते हुए देख लिया | अब तो सभी चीलें उसके पीछे पड़ गयी | एक-एक कर प्रत्येक चील उस
अकेली चील को अपनी नुकीली चोंच और पंजों से आक्रमण कर घायल कर रही थी | जिस चील के
पंजों में मरा हुआ चूहा था वह समझ ही नहीं पा रही थी कि आज अचानक ही अन्य सभी
चीलें उसकी दुश्मन क्यों बन गयी है ? उस चील ने अपने जीवन में आज तक इस प्रकार के किसी
संघर्ष का सामना नहीं किया था और आज उसके समक्ष ऐसी परिस्थिति बन गयी थी कि वह समझ
ही नहीं पा रही थी कि आखिर उसके साथ ऐसा
हो क्यों रहा है ?
इसी संघर्ष में आखिर उस चील के पंजों से वह चूहा
छूट गया | चूहे के छूटते ही अन्य चीलों ने भी उस चील पर आक्रमण करना छोड़ दिया |
घायल चील संघर्ष करते-करते थक गयी थी | वैसे वह पहले से ही भूख से निढाल हो रही थी
| थककर वह एक पेड़ की चोटी पर बैठ गयी और विचार करने लगी कि आखिर अन्य चीलों ने उस पर
आक्रमण क्यों किया था ? वह तो केवल अपना आहार ही तो ले जा रही थी, उसने किसी का
कुछ बुरा तो नहीं किया था | उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उससे कहाँ और क्या
भूल हुई जिसके कारण वह इस प्रकार हिंसा का शिकार बनी ? तभी उसकी दृष्टि उन चीलों
पर गयी जो कुछ समय पहले तक उसके साथ संघर्ष कर रही थी | उसने देखा कि अब वे सभी
चीलें उस मरे हुए चूहे को पाने के लिए एक दूसरे से संघर्ष कर रही थी | सभी चीलें सबसे
पहले उस चूहे तक पहुँचने के लिए एक दूसरे का रास्ता रोक रही थी | उनके मध्य बड़ी ही
रोचक प्रतिस्पर्धा चल रही थी | थोड़े से चिंतन से उस चील को स्वयं के विरुद्ध हुयी
उस हिंसा का उत्तर मिल गया | वह समझ गयी कि उसके विरुद्ध अन्य चीलों के हिंसक होने
का एक मात्र कारण वह मरा हुआ चूहा था | चूहे के छूटते ही उसके विरुद्ध होने वाली
हिंसा भी छूट गयी थी | अब उसको एक दम स्पष्ट हो गया था कि उसके विरुद्ध हो रही
हिंसा का कारण था, वह मरा हुआ चूहा और उससे मिट सकने वाली भूख | भूख नहीं होती तो
हिंसा भी नहीं होती | कहने का अर्थ है कि भूख हिंसा को जन्म देती है | किसी से आहार
छीन लेने के लिए हिंसा अथवा शिकार कर आहार पाने के लिए हिंसा | दोनों ही प्रकार की
हिंसा के मूल में भूख ही है | इस दृष्टान्त से मूल बात यह निकल कर हमारे सामने आती
है कि हिंसा का आधार भूख है और भय का आधार हिंसा है | अतः परोक्ष रूप से यह कहा जा
सकता है कि भय की जननी भूख है |
यह तो
हुई अन्य प्राणियों की बात, परन्तु क्या मनुष्य के साथ भी ऐसा ही होता है ? क्या
मनुष्य भी भूख शांत करने के लिए हिंसक हो सकता है ? भूख क्या सिर्फ और सिर्फ भोजन मिलने
मात्र से ही मिट जाती है ? तीनों ही प्रश्नों का उत्तर हम सभी जानते हैं | प्रथम
प्रश्न का उत्तर है, हाँ, मनुष्य भी अन्य प्राणियों से भिन्न नहीं है | दूसरे प्रश्न
का उत्तर है, मनुष्य भी भूख को शांत करने के लिए हिंसक हो सकता है | तीसरे और
अंतिम प्रश्न का उत्तर है कि सभी प्राणियों में पेट की भूख तो आहार मिलने से मिट
जाती है परन्तु मनुष्य की भूख केवल आहार की नहीं होती बल्कि कई प्रकार की होती है,
जो सब कुछ प्राप्त हो जाने के बाद भी मिट नहीं पाती | अतः सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य ही सभी
जीवों में एक मात्र जीव ऐसा है, जिसकी भूख भोजन पाकर भी शांत नहीं होती | यही कारण
है कि मनुष्य जीवन भर भय से मुक्त नहीं हो पाता |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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