एक बार तीन बौद्ध भिक्षुक भिक्षा लेने के लिए एक गांव में जा रहे थे । रास्ते मे एक नदी को पैदल ही पार करना पड़ता था। नाव का साधन नहीं था। एक षोडशी नदी के उस पार गांव जाने के लिए खड़ी थी।उसकी हिम्मत नदी में उतरने की नहीं हो रही थी। उसने पहले भिक्षुक को हाथ पकड़ कर नदी पार कराने को कहा। उस भिक्षुक का उस कन्या की ओर ध्यान नहीं गया।कन्या ने उसके पीछे चल रहे दूसरे भिक्षुक से हाथ पकड़कर नदी पार कराने को कहा । भिक्षुक ने इस प्रकार एक कन्या को हाथ पकड़कर नदी पार कराने को एक साधु के लिए अनुचित मानकर इनकार कर दिया। लाचार युवती ने तीसरे युवा भिक्षुक से ऐसा ही आग्रह किया। तुरंत ही उस युवक भिक्षु ने युवती का हाथ पकड़ा और सहारा देते हुए नदी पार करा दी। पार जाकर युवती ने उस भिक्षु का आभार माना और अपने रास्ते चल दी।
तीनो भिक्षु गांव में प्रवेश कर रहे हैं। पहला भिक्षु निर्विकार भाव से आगे आगे अपने रास्ते पर चल रहा है। दूसरा भिक्षुक बार बार तीसरे भिक्षुक को उस युवती का हाथ पकड़कर नदी पार कराने को अनुचित बतला रहा है।साथ ही वह उस युवा भिक्षुक की शिकायत भगवान बुद्ध से करने की धमकी भी दे रहा है। युवा भिक्षुक से रहा नहीं गया। आखिरकार उसको दूसरे भिक्षुक को उत्तर देना ही पड़ा। युवा भिक्षुक ने उस दूसरे भिक्षु को कहा कि मैंने तो उस युवती का हाथ नदी पार कराते ही छोड़ दिया था परंतु आप तो मन में उस युवती का हाथ अभी भी पकड़े हुए हैं।
पहला भिक्षुक जो कि निर्विकार भाव से अपने रास्ते चल रहा है, वह विरक्त है। दूसरा भिक्षुक,जिसने युवती को नदी पार कराने से इनकार कर दिया,उसके मन में अभी भी वह स्त्री बसी हुई है,वह उस युवती के प्रति आसक्त है। तीसरा युवा भिक्षुक अनासक्त है, उसने युवती की सहायता करने को उसका हाथ पकड़ा था परंतु उसके मन ने स्त्री को नहीं पकड़ा था। विरक्ति,आसक्ति और अनासक्ति में यही मूलभूत अंतर है।अनासक्ति का अर्थ है, न तो विरक्ति और न ही आसक्ति, एक दम मध्य में रहना। भगवान बुद्ध ने इस साम्य अवस्था प्राप्त कर लेने को मंझिम निकाय कहा है। एक गृहस्थ के लिए अनासक्त होना ही सर्वोत्तम मार्ग है।
तीनो भिक्षु गांव में प्रवेश कर रहे हैं। पहला भिक्षु निर्विकार भाव से आगे आगे अपने रास्ते पर चल रहा है। दूसरा भिक्षुक बार बार तीसरे भिक्षुक को उस युवती का हाथ पकड़कर नदी पार कराने को अनुचित बतला रहा है।साथ ही वह उस युवा भिक्षुक की शिकायत भगवान बुद्ध से करने की धमकी भी दे रहा है। युवा भिक्षुक से रहा नहीं गया। आखिरकार उसको दूसरे भिक्षुक को उत्तर देना ही पड़ा। युवा भिक्षुक ने उस दूसरे भिक्षु को कहा कि मैंने तो उस युवती का हाथ नदी पार कराते ही छोड़ दिया था परंतु आप तो मन में उस युवती का हाथ अभी भी पकड़े हुए हैं।
पहला भिक्षुक जो कि निर्विकार भाव से अपने रास्ते चल रहा है, वह विरक्त है। दूसरा भिक्षुक,जिसने युवती को नदी पार कराने से इनकार कर दिया,उसके मन में अभी भी वह स्त्री बसी हुई है,वह उस युवती के प्रति आसक्त है। तीसरा युवा भिक्षुक अनासक्त है, उसने युवती की सहायता करने को उसका हाथ पकड़ा था परंतु उसके मन ने स्त्री को नहीं पकड़ा था। विरक्ति,आसक्ति और अनासक्ति में यही मूलभूत अंतर है।अनासक्ति का अर्थ है, न तो विरक्ति और न ही आसक्ति, एक दम मध्य में रहना। भगवान बुद्ध ने इस साम्य अवस्था प्राप्त कर लेने को मंझिम निकाय कहा है। एक गृहस्थ के लिए अनासक्त होना ही सर्वोत्तम मार्ग है।
।।हरि: शरणम् ।।
अनासक्ति – 2
कल की कहनी से ही अनासक्ति (Detachment) की बात को आगे लिए चलते हैं | ऐसा नहीं है कि हम अनासक्त भाव को बड़ी सुगमता से और जीवन में कभी भी पकड़ सकते हैं | बड़ा ही कठिन है, अनासक्त होना | आसक्त होने में कुछ भी नहीं लगता, विरक्त होने की नौटंकी भी कभी भी की जा सकती है परन्तु अनासक्त होने का तो नाटक भी नहीं किया जा सकता | भगवान बुद्ध का मंझिम निकाय का एक ही अर्थ है, मध्य में रहना | एक दोलक (Pendulum) जब गति करता है तो पहले बांयी तरफ जाता है और फिर उतनी ही गति के साथ दायीं ओर चला जाता है, मध्य में वह ठहर ही नहीं सकता | हाँ, केवल एक परिस्थिति में ठहर सकता है जब गुरुत्वाकर्षण बल का प्रभाव उसे मध्य में ठहरने को मजबूर कर देता है | दोलक का बांयी और जाना आसक्ति है और दायीं और जाना विरक्ति | अनासक्ति है, दोलक का मध्य में ठहर जाना | आसक्ति (Attachment) जितनी अधिक तीव्र होगी, विरक्ति (Disenchantment) भी उतनी ही तेज़ होगी | विरक्ति के नाटक से जब व्यक्ति उब जाता है, तब वह पुनः आसक्ति की और लौट आता है, मध्य में एक पल के लिए भी नहीं ठहरता | आसक्ति से जब मोह भंग होता है, वह पुनः विरक्ति की और चल देता है, परन्तु मध्य में वह कभी भी ठहरता नहीं है |
एक दोलक की भांति इस प्रकार सदैव दोलन (Oscillation) करते रहना व्यक्ति की नियति (Destiny) बन चूका है | अगर आप किसी अति आसक्त व्यक्ति (Attached person) को विरक्त होते हुए देखो तो कभी भी यह मत समझना कि वह सदैव के लिए विरक्त हो चूका है | वह कभी भी पुनः उतना ही अधिक तेज़ी के साथ आसक्त भी हो सकता है | सब कुछ मन का खेल है और मन ही उसे आसक्ति और विरक्ति के मध्य भटकाता रहता है, अनासक्त होने ही नहीं देता | आज जो हमारा सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति है, वह एक दिन भी अगर हमारा कहना नहीं माने तो हम तत्काल उससे दूरी बना लेते हैं | उस व्यक्ति से हमारी अधिक समीपता उसके प्रति रहे हमारे आसक्त भाव को बतलाता है और तत्काल होने वाली उससे दूरी हमारी विरक्ति को प्रदर्शित करता है | वास्तव में देखा जाये तो यह हमारा मन ही है, जो आसक्ति और विरक्ति के मध्य हमें झुला रहा है और हमें मध्य में ठहरने का अवसर भी नहीं देता |
अनासक्ति – 3
हमारा मन ही दोलन करता रहता है और यह मन ही हमें आसक्ति और विरक्ति के मध्य झुलाता रहता है | मन पर नियंत्रण स्थापित कर लेना ही अनासक्त हो जाना है | दोलक गति करता है क्योंकि गति उसे आप स्वयं देते हो अन्यथा दोलक तो मध्य में ठहरा हुआ ही था | दोलक में दोलन उसके एक तरफ ऊपर ले जाने से होता है और फिर उसको छोड़ देने से वह एक से दूसरी तरफ और दूसरी से पहली तरफ, दोलन करता रहता है | उसका यह दोलन करना तभी रुकता है जब गुरुत्वाकर्षण बल के कारण उसकी गति निरंतर और धीरे-धीरे कम होती जाती है और एक अवस्था ऐसी आती है जब वह मध्य में आकर ठहर जाता है | हमारी जिंदगी में भी इस दोलन की तरह गति होती रहती है, कभी इधर कभी उधर | मध्य में ठहराव कहीं और कभी भी दिखलाई नहीं पड़ता | जब अवस्था ढल रही होती है, हम असहाय नज़र आने लगते हैं, तब मजबूरी में बाहर से लगभग ठहर से जाते हैं परन्तु भीतर मन का दोलन नहीं ठहर पाता | इस प्रकार जीवन भर हम आसक्ति और विरक्ति के मध्य सदैव झूलते ही रहते हैं, अनासक्त कभी हो ही नहीं पाते |
अब प्रश्न यह उठता है कि आसक्ति और विरक्ति के बीच झूलते जीवन में मध्य में ठहर कर अनासक्त कैसे हुआ जा सकता है ? कोई भी उपाय नहीं है अनासक्ति को उपलब्ध होने का, सिवाय स्वयं के मन पर नियंत्रण करने के | इससे पहले कि इस शरीर का जीवन समाप्ति की ओर चला जाये, हमें स्वयं पर नियंत्रण साधना होगा | आसक्ति हमें अपनी ओर खींचती है और जिसके प्रति हम आसक्त हैं, उससे उब जाते है अथवा आसक्ति को जब कोई गहरी चोट पहुँचती है तब हम विरक्त होने का मार्ग पकड़ते है | परन्तु हमारा दुर्भाग्य, हम सही मायने में विरक्त भी तो नहीं हो पाते हैं | वास्तविक विरक्ति है, आसक्ति की ओर कभी भी नहीं लौटना | हम विरक्त कभी भी नहीं होते बल्कि विरक्त होने का नाटक भर करते हैं | यह बात सदैव ध्यान में रखें कि नाटक सदैव हमारा मन करता है हमारी आत्मा नहीं | आत्मा तो जानती है कि हम जो विरक्ति का नाटक कर रहे हैं वह वास्तव में आसक्ति को और अधिक मजबूत करने का एक उपाय भर है | तभी तो हम विरक्त न रहकर पुनः आसक्त हो जाते हैं |
अनासक्ति – 4
मेरे एक मित्र है, बड़े ही सरल ह्रदय व्यक्ति है | जब से मैं उनके संपर्क में आया हूँ तब से उन्हें तम्बाकू का विभिन्न रूपों में सेवन करते हुए देख रहा हूँ, कम से कम 45 वर्ष तो हो ही गए होंगे | मेरे आग्रह पर उन्होंने तम्बाकू का सेवन करना कोई 20 बार छोड़ दिया है परन्तु प्रत्येक बार कुछ समय बाद पुनः उसका सेवन प्रारम्भ कर देते हैं | वास्तव में देखा जाये तो उन्होंने कभी तम्बाकू के सेवन को त्यागा भी नहीं था | 20 बार वे तम्बाकू की आसक्ति त्यागकर उससे विरक्त हुए परन्तु यह उनकी तम्बाकू से विरक्ति नहीं थी बल्कि उससे विरक्त होने का नाटक भर था | अगर वास्तव में वे विरक्त हुए होते तो पुनः तम्बाकू का सेवन करना प्रारम्भ ही नहीं करते | यह तो एक प्रकार का दोलन करना था आसक्ति और विरक्ति के मध्य | वास्तव में तो उनसे तम्बाकू के प्रति आसक्ति कभी विरक्ति में परिवर्तित हुई ही नहीं थी | आज भी वे मुझसे छुपकर तम्बाकू का सेवन करते हैं और स्वीकार भी करते हैं कि जब 20 बार के प्रयास से भी आदत नहीं छूटी तो अब उन्होंने तम्बाकू को छोड़ने का संकल्प करना ही छोड़ दिया है | इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिसे हम विरक्ति होना कहते हैं, वास्तव में वह आसक्ति का ही दूसरा नाम है | विरक्त होना तो बहुत ऊँची बात है और उस विरक्त होने के स्तर को छू लेना हमारे जैसे किसी भी साधारण व्यक्ति की पहुँच से बहुत दूर है | इसका अर्थ यह कदापि भी नहीं है कि विरक्त हुआ ही नहीं जा सकता | विरक्त होने के लिए गृहस्थ जीवन उपयुक्त नहीं है, उसके लिए तो पूर्वजन्म के संस्कार से मिले नए जीवन के प्रारम्भ में ही विरक्ति की नींव पड़ जाती है | गृहस्थ जीवन में तो हम विरक्ति के नाम पर कभी कम और कभी अधिक आसक्ति-भाव को प्राप्त होते रहते हैं | विरक्त होना एक गृहस्थ के लिए लगभग असंभव सी बात है |
आसक्ति और विरक्ति के मध्य में जो स्थिति बन सकती है अथवा हम बना सकते हैं, उस अवस्था का नाम है अनासक्ति | अनासक्ति में हम न तो किसी के प्रति आसक्त होते हैं और न ही विरक्त, ऐसे हो गया तो अच्छा नहीं हुआ तो भी अच्छा | अगर हम आसक्ति को त्यागकर विरक्त होने का नाटक भर ही करते रहे तो जीवन में फिर कभी भी अनासक्त नहीं हो सकते |
अनासक्ति – 5
मुख्य बात है आसक्ति को छोड़ने की | आसक्ति तभी छूट सकती है, जब हमारा मन पर नियंत्रण हो | केवल मन पर नियंत्रण कर लेने से ही हमारा समस्त इन्द्रियों पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है | इस जड़ शरीर में, जो कि अपरा प्रकृति की देन है; पाँच भौतिक तत्वों के साथ-साथ मन, बुद्धि और अहंकार भी उपस्थित रहते हैं | भौतिक तत्वों से श्रेष्ठ मन है और मन से श्रेष्ठ बुद्धि है | भौतिक तत्वों से मन को नियंत्रित नहीं किया जा सकता बल्कि बुद्धि से इसको नियंत्रित किया जा सकता है | उच्च पदस्थापित व्यक्ति अपने अधीनस्थ को नियंत्रित कर सकता है, अधीनस्थ अपने अधिकारी को नहीं | जब अधीनस्थ अपने उच्चाधिकारी को नियंत्रण में ले लेता है, तब उस अधिकारी और उसके विभाग का पतन निश्चित है | यही नियम इस शरीर पर भी लागू होता है | मन को अगर बुद्धि नियंत्रित कर लेती है तो हम आसक्त से अनासक्त अथवा विरक्त हो सकते हैं | अगर दुर्भाग्य वश मन बुद्धि को नियंत्रित कर लेता है तो फिर इस शरीर और उसके कार्यों में आसक्ति बढ़ने लगती है |
आसक्ति वास्तव में जड़ तत्वों और इन्द्रिय सुखों के प्रति व्यक्ति का लगाव ही है | मन भौतिक सुखों के प्रति आसक्त हो जाता है और फिर बुद्धि को भी समझा बुझाकर अपने साथ कर लेता है | बुद्धि से श्रेष्ठ हमारी आत्मा है | अगर आत्मा इस बात को स्वीकार नहीं करे तो वह बुद्धि के द्वारा मन को पुनः नियंत्रित कर लेती है | हाँ, यह सत्य है कि हमारी आत्मा प्रत्येक अनुचित आचरण का प्रारम्भ में विरोध करती है जिसका अनुभव आप सभी को अपने जीवन में कभी न कभी अवश्य ही हुआ होगा | परन्तु जब अनुचित आचरण से आपके मन को सुख मिलता हो तो बुद्धि भी आत्मा से विपरीत दिशा पकड़ कर मन के साथ हो जाती है | ऐसी स्थिति में आत्मा असहाय हो जाती है और मन अपना खेल खेलने लगता है | इसीलिए संत-जन आत्म-जागरण की बात करते हैं, भगवान बुद्ध आत्म-बोध को महत्वपूर्ण बतलाते हैं |
अनासक्ति – 6
वास्तव में देखा जाये तो मन भी तो किसी न किसी के कारण ऐसा व्यवहार करता है | मन के ऐसे आसक्ति पूर्ण व्यवहार के पीछे मुख्य रूप से हमारी कामनाएं ही है | कामनाओं को पूरा करने के लिए हम कर्म करते हैं और कर्म से हमें फल मिलता है और हमारी इच्छा (Desire) के अनुसार फल प्राप्त होने से हमारा मन उस कर्म के प्रति झुक जाता है | मन का एक निश्चित कर्म फल (भोग) और कर्म (भोग प्राप्ति के लिए) की तरफ झुक जाना ही आसक्ति है | कर्म फल में आसक्त होने से हमारी कामनाएं और अधिक बढ़ती हैं, कामनाएं अपेक्षा (Expectations) को जन्म देती है और फिर अपेक्षा आप से अथवा आपकी कामनाओं की पूर्ति जिनसे होनी है, उन सभी के प्रति आपको आसक्त (Attach) कर देती है | अगर हम किसी भी प्रकार के कर्म के फल (भोग) की आशा मन में न संजोयें, तो हमारा मन न तो किसी कर्म फल (भोग) में आसक्त होगा और न ही इस शरीर को किसी विशेष कर्म को करने के लिए प्रेरित करेगा |
बार-बार मन के अनुसार कर्म के लिए प्रेरित करने से शरीर भी मन के अनुसार अपने आपको ढाल लेता है | जब एक बार मन के अनुसार शरीर ढल जाता है तो फिर बुद्धि द्वारा मन को नियंत्रित करना लगभग असंभव हो जाता है | इसलिए प्रारम्भिक स्तर पर ही बुद्धि से मन को नियंत्रित कर लेना ही अधिक सुगम रहता है | प्रारम्भिक अवस्था में बुद्धि आत्मा के अनुसार कार्य करती है और मन को अपने अधीन बनाये रख सकती है परन्तु जब शरीर एक बार मन के अनुसार स्वयं को ढाल लेता है, तो फिर बुद्धि का मन पर से नियंत्रण लगभग समाप्त हो जाता है | मन के अनुसार कर्म करना आसक्ति पैदा करता है जबकि बुद्धि के अनुसार कर्म करना आपको अनासक्ति की और ले जाता है | इतने विवेचन से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि मन की ही ये तीन अवस्थाएं है, आसक्ति, अनासक्ति और विरक्ति | मन को नियंत्रित करने का अर्थात आसक्त मन को अनासक्त अथवा विरक्त मन में परिवर्तित करना कैसे संभव हो सकता है, यह मुख्य प्रश्न है | मन को जड़ शरीर नियंत्रण में तभी ले पाता है, जब हम कोई कर्म इस शरीर से करते हैं | अतः मन को नियंत्रण में लेने के लिए कर्म के स्वरूप को परिवर्तित करना होगा |
अनासक्ति – 7
आइये, एक बार पुनः तथागत की ओर चलते हैं | एक बार भगवान बुद्ध के पास एक व्यथित व्यक्ति आया | अपने वर्तमान जीवन से वह बड़ा ही क्षुब्ध था | कभी वह अपनी पत्नी की शिकायत कर रहा था और कभी वह अपने पुत्रों के द्वारा आदेश की अवहेलना करने की बात कह रहा था | आस-पास के लोगों और रिश्तेदारों से सम्बन्ध मधुर नहीं है, उससे भी वह व्यथित था | उसने अपने मन की व्यथा भगवान बुद्ध के सामने प्रगट की और कहा कि वह जीवन में कुछ भी निश्चित नहीं कर पा रहा है | वह चाहता था कि भगवान बुद्ध उसे कोई ऐसा सूत्र दे जिसको जीवन में उतार कर वह इस दुविधा से बाहर निकल सके | भगवान बुद्ध ने कहा – “मेरे पास तो ऐसा कोई सूत्र नहीं है | हाँ, पास में ही एक वैश्य है तुलाधार; उसके पास इसका एक सूत्र अवश्य है | आप चाहें तो उसके पास जाकर वह सूत्र प्राप्त कर सकते है और अपने जीवन में खुशियां भर सकते हैं |”
तुरंत ही वह व्यक्ति वहां से निकलकर तुलाधार के पास पहुंचा | तुलाधार एक व्यवसायी था | वह बड़ा ही खुश नज़र आ रहा था और अपने पास आये ग्राहकों को सौदा तौल-तौल कर दे रहा था | नवागत व्यक्ति ने तुलाधार को अपने आने का प्रयोजन बताया और कहा कि तथागत ने आपसे वह सूत्र प्राप्त करने को कहा है, जिसको पाकर आप आनंदित अवस्था को उपलब्ध हुए हैं | तुलाधार ने उसे प्रेम पूर्वक अपने पास बैठाया और एक ग्राहक के लिए सामान तौलते हुए कहा कि ‘इस तराजू के कांटे की ओर देखो | इसे सदैव मध्य में बनाये रखने से ही ग्राहक और व्यवसायी के मध्य सामंजस्य बैठ पाता है और दोनों खुश रह सकते हैं अन्यथा नहीं | मैंने तो तराजू के इसी कांटे से सीख ली है कि सदैव मध्य में रहने से ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामंजस्य बैठ सकता है और मध्य में रहने से ही हम आनंद की अवस्था को उपलब्ध हो सकते हैं |’
तुलाधार की बातों का उस व्यक्ति पर कितना प्रभाव पड़ा, कह नहीं सकता परन्तु बड़ी मार्मिक बात कही थी, तुलाधार ने | तराजू का कांटा सामान और उसको तौलने वाले बाट के मध्य एक प्रकार की साम्यता निश्चित करता है | न कम न अधिक, यही समता है | न तो आसक्ति और न ही विरक्ति, यही अनासक्ति है | तुलाधार के मन में धन के प्रति आसक्ति भाव होता तो तराजू का कांटा कभी भी मध्य में नहीं रहता, कांटा एक ओर झुक ही जाता |
अनासक्ति – 8
तुलाधार वैश्य के इस दृष्टान्त से अनासक्त होने का प्रथम सूत्र निकलकर सामने आता है – ‘निष्ठा पूर्वक कर्तव्य कर्म करना’ | निष्ठा पूर्वक कर्म करते रहना ही अनासक्ति है | हमारा कर्म क्या है, यह पूर्वजन्म के पुरुषार्थ के द्वारा निश्चित किया हुआ होता है | उसी के अनुसार हम अपना जीवन प्रारम्भ करते है और कर्मों का प्रारम्भ भी इसी प्रारब्ध को अभिव्यक्त करने के लिए होता है | पूर्वजन्म के पुरुषार्थ के कारण ही आज मैं एक चिकित्सक हूँ, इसका अर्थ यह है कि रुग्ण व्यक्तियों की चिकित्सा करना मेरा कर्तव्य कर्म है | मुझे अपना निर्धारित कर्तव्य कर्म निष्ठा पूर्वक करते रहना चाहिए तभी मैं अनासक्त हो सकता हूँ | मेरी निष्ठा (Loyalty) में रही कोई कमी, धन, जन, मान-सम्मान आदि के प्रति मेरी आसक्ति को प्रदर्शित करती है | जब आप निष्ठा पूर्वक कर्म करेंगे तो फिर न तो आप अपने कर्म के प्रति आसक्त हो सकते हैं और न ही इस कर्म से विरक्त | फिर प्रत्येक रुग्ण व्यक्ति का मन लगाकर उपचार करना ही जीवन का एक मात्र उद्देश्य बन जायेगा | प्रत्येक स्थिति में अपने आपको खुश रख सकूंगा |
किसी भी क्षेत्र में कर्म करने के प्रारम्भिक काल में हमारी निष्ठा में कभी कोई कमी नहीं रहती है परन्तु प्रारब्ध (Destiny) के फलस्वरूप मिलने वाले कर्म-भोग के प्रति बनता हुआ आसक्ति भाव हमारी निष्ठा को कमजोर करता जाता है | जब यह निष्ठा लोभ (Greed) में परिवर्तित हो जाती है तब अनासक्ति आसक्ति में परिवर्तित हो जाती है | एक चिकित्सक की आसक्ति कई क्षेत्रों में हो सकती है जिसमें धन, मान-सम्मान की चाहत आदि प्रमुख हैं | हमें इन सब बातों को एक ओर रखकर अपने क्षेत्र के कार्य को कर्तव्य कर्म समझकर सम्पादित करना होगा तभी हम स्वयं को किसी भी प्रकार की आसक्ति से मुक्त रख पाएंगे | विरक्ति में कर्तव्य-कर्म का भी त्याग करना पड़ता है जबकि अनासक्ति में केवल आसक्ति को त्यागना होता है, कर्तव्य-कर्म को नहीं | अतः निष्ठा पूर्वक कर्तव्य कर्म करते रहना ही अनासक्त होना है | भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते भी हैं कि-
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण: |
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण: || गीता – 3/8 ||
अर्थात हे अर्जुन, तू नियत कर्तव्य कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी संभव नहीं होगा |
विरक्ति में कर्तव्य कर्म का भी त्याग होता है | ऐसे में शरीर निर्वाह होना भी कैसे संभव होगा ? एक गृहस्थ का इस प्रकार सोचना उचित ही है | अतः एक गृहस्थ के लिए कर्तव्य कर्म के त्याग के स्थान पर नियत कर्म करते रहना अधिक उचित है | इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि एक गृहस्थ के लिए विरक्त होने के स्थान पर अनासक्त होना अधिक सहज है |
अनासक्ति – 9
प्राचीन समय की बात है | एक सूफी संत नित्य सुबह की नमाज अता करने के लिए घर से थोड़ी दूर स्थित एक मस्जिद में जाया करते थे | उनका प्रतिदिन का यह एक नियम बन गया था | उनको प्रतिदिन इस प्रकार मस्जिद जाते हुए देखकर उनका छोटा पुत्र भी कभी- कभी उनके साथ हो जाया करता था | धीरे-धीरे उनके पुत्र की भी यह एक आदत बन गयी | संत उसे अपने साथ ले जाते और रास्ते में चलते हुए अपने पुत्र को ज्ञान की बातें बताते रहते | पुत्र भी उनकी बातें सुनकर बड़ा प्रसन्न होता और प्रदत्त ज्ञान को आत्मसात करने का प्रयास करता | सर्दियों के दिन थे | जब संत के साथ उनका पुत्र प्रतिदिन सुबह की नमाज के लिए मस्जिद जा रहे होते तब प्रायः वे देखते कि लोग उस समय तक नींद में ही सोये रहते थे | उनके पुत्र को यह बड़ा बुरा लगता | आखिर एक दिन उनके पुत्र से रहा नहीं गया | वह अपने पिता से बोल पड़ा कि ‘कितने काफ़िर हैं ये लोग, जो सुबह उठकर नमाज तक नहीं पढ़ सकते | खुदा अवश्य ही उन्हें दोजख में भेजेगा |’
इस बात को अपने पुत्र के मुंह से सुनकर संत बड़े आहत हुए | सूफी संत ने अपने पुत्र से कहा -“ बेटा, इन सोये हुए लोगों की इस प्रकार आलोचना करने से अच्छा होता कि तुम भी इनकी तरह सोये ही रहते, कम से कम तुम्हें किसी का दोष तो दिखलाई नहीं पड़ता |” इतना कहकर वे चुप हो गए और परमात्मा के नाम का स्मरण करते हुए मस्जिद की तरफ बढ़ने लगे | सूफी संत ने अपने पुत्र से सत्य ही कहा था | अगर उनका पुत्र भी नींद में सोया रहता तो कम से कम उसे किसी व्यक्ति में दोष तो दिखलाई नहीं पड़ता | हम चाहे कितनी भी ईश्वर से प्रार्थना कर लें, अगर हमारा मन निर्मल नहीं है तो हमारी वह प्रार्थना ईश्वर तक पहुँच ही नहीं सकती | हम ईश्वर की प्रार्थना कर स्वयं को अन्य लोगों से ऊँचा समझने लगते हैं और दूसरे व्यक्तियों में दोष ढूँढने लगते हैं |
सूफी संत के इस दृष्टान्त से अनासक्त होने का दूसरा सूत्र निकल कर हमारे सामने आता है – ‘किसी भी व्यक्ति में दोष न देखना’| जब हम किसी अन्य व्यक्ति में दोष देखने लगते हैं तो हम दूसरे कोण से स्वयं की प्रशंसा भी कर रहे होते है | स्वयं की प्रशंसा करना अपने लिए पतन की राह को प्रशस्त करना है | अपने आपको दूसरे से उच्च समझना ही स्वयं के प्रति आसक्त होना प्रदर्शित करना है | जब परम पिता कहते हैं कि इस संसार में सभी एक समान है, तो फिर स्वयं को अन्य से अलग समझना हमारी सबसे बड़ी भूल है |
अनासक्ति – 10
दूसरे में दोष ढूँढना, स्वयं को श्रेष्ठ बताना है | स्वयं में श्रेष्ठता देखना और दूसरों में दोष ढूंढना, व्यक्ति में अहंकार की भावना पैदा करता है | इस प्रकार की आसक्ति ही अहंकार की जननी है | मनुष्य अपने जीवन में सबसे बड़ी भूल ही यही करता है कि वह अपने क्षेत्र में अन्य लोगों से स्वयं को बेहतर समझता है | मैं अपने क्षेत्र चिकित्सा में अन्य क्षेत्र के व्यक्तियों से श्रेष्ठ हो सकता हूँ परन्तु अपने चिकित्सा क्षेत्र के ही किसी अन्य साथी से नहीं | सभी व्यक्तियों में कोई न कोई एक विशेषता अवश्य होती है | उस विशेषता के कारण वह अवश्य ही श्रेष्ठ हो सकता है | इसलिए किसी व्यक्ति में एक क्षेत्र में दोष हो सकता है परन्तु वह किसी अन्य क्षेत्र में पारंगत अवश्य ही होगा | जब हम इस बात को स्वीकार कर लेते हैं तो फिर हमें अभिमान छू कर तक नहीं निकल सकता | प्रत्येक क्षेत्र में स्पर्धा है, यह हम सभी जानते हैं और सभी इस दौड़ में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगे हुए हैं | जीवन का दूसरा नाम ही स्पर्धा है, स्पर्धा नहीं हो तो जीवन में रस समाप्त हो जाता है | परन्तु इस स्पर्धा में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मान बैठना और दूसरों को हेय समझ लेना स्वयं के प्रति आसक्त होना है | अनासक्त कभी भी किसी में कोई कमी नहीं देखता बल्कि कमी अगर है भी तो उसको शालीनता के साथ दूर करने का प्रयास करता है |
सांसारिक व्यक्तियों में ऐसा आसक्ति भाव देखने को प्रायः मिल जाता है | आध्यात्मिकता में आसक्ति का कोई स्थान नहीं है | जब से धर्म के नाम पर विभिन्न प्रकार के आश्रम और अखाड़े अस्तित्व में आये है, तब से स्वयं की संस्था के प्रति तीव्र आसक्ति दृष्टिगोचर होने लगी है और किसी दूसरे के आश्रम में दोष | कुम्भ के मेले के दौरान अखाड़ों में जो टकराव देखने को मिलता है, वह अपने संगठन के प्रति आसक्ति का प्रदर्शन भर ही तो है, यह दिखने के लिए कि हमारा अखाड़ा और हम सर्वश्रेष्ठ है | केवल अखाड़े ही नहीं बल्कि आज के संत तक किसी सम्मेलन में ऊँचे आसन के लिए आपस में लड़ते दिखलाई पड रहे हैं | जब आप अपने अखाड़े अथवा आश्रम में रहकर उनके प्रति इतने आसक्त हैं तो फिर घर-गृहस्थी क्या बुरी थी | जब भीतर इतनी आसक्ति है तो फिर घर और आश्रम में अंतर ही क्या रहा ? अहंकार पूर्ण जीवन आपकी स्वयं में आसक्ति ही व्यक्त करता है | किसी मैं जरा सा भी दोष देखना ही अहंकार को पोषित करना है | किसी में दोष देखने की भावना रखना ही अहंकार है, जिसके कारण ही व्यक्ति सदैव अपने अतिरिक्त सभी में दोष देखता रहता है और स्वयं को श्रेष्ठ समझता है | इस दुष्चक्र बाहर निकालने का एक ही रास्ता है – ‘किसी में दोष न देखना’ | निश्चित ही यह सूत्र आपको अनासक्ति की ओर ले जा सकता है |
अनासक्ति – 11
अभी कुछ दिनों पहले एक बड़ी ही प्यारी ज्ञानवर्धक कहानी पढ़ने को मिली थी | दो सगे भाइयों में बड़ा ही अटूट प्रेम था | दोनों भाई विवाहित थे | दोनों की पत्नियाँ भी उनके मनोनुकूल मिली थी | दोनों भाई एक दूसरे से अलग रहने की कल्पना तक नहीं कर सकते थे | दोनों के एक-एक पुत्र था | दोनों ही बच्चों पर प्रत्येक भाई का इतना अधिक स्नेह था कि देखने वाले को प्रतीत ही नहीं होता था कि कौन किस भाई का पुत्र है ? प्रातः दोनों भाई अपने काम से घर छोड़ देते और पीछे से दोनों की पत्नियाँ आपस में मिलकर घर का सारा कार्य निपटाती | सायं दोनों घर लौटकर साथ-साथ ही भोजन करते और विश्राम करने चले जाते | दोनों में सम्पति, घर आदि को लेकर किसी भी प्रकार का विवाद नहीं था |
एक दिन सायंकाल को बड़ा भाई दो सेव लेकर घर लौटा | छोटा भाई उससे पूर्व ही घर लौट आया था और आँगन में हाथ-मुंह धो रहा था | बड़े भाई ने आँगन में प्रवेश करते ही दोनों बच्चों को आवाज लगाई | दोनों बालक तुरंत उनके पास पहुंचे | बड़े भाई ने दोनों सेव में से एक थोड़ी बड़ी सेव देखकर अपने पुत्र को दे दी और दूसरी थोड़ी छोटी सेव अपने भाई के पुत्र को | आज से पूर्व दोनों में से किसी भी भाई ने इस प्रकार का कोई भेदभाव वाला कार्य नहीं किया था | छोटा भाई सब कुछ देख रहा था | वह अपने बड़े भाई के पास पहुंचा और बोला कि भैया, अब हमें अलग-अलग हो जाना चाहिए क्योंकि अब आपके भीतर ‘मैं और मेरा’ की भावना ने जन्म ले लिया है | बात यह नहीं है कि जरा सी कम अथवा अधिक सेव खा लेने से किसी बच्चे पर क्या प्रभाव पड जायेगा ? मुख्य बात यह है कि आज और अभी से ही इस ‘मैं और मेरा’ की भावना ने किसी एक व्यक्ति के मन में जन्म लिया है और भविष्य में इस भावना का अन्य व्यक्तियों और क्षेत्रों में भी विस्तार होना निश्चित है | इस दृष्टान्त से हमारे समक्ष अनासक्ति का तीसरा सूत्र प्रकट होता है – “मैं और मेरा” – इस भावना का त्याग |
‘मैं और मेरा’ का जन्म तभी होता है, जब हमारे मन में स्वयं और अपने परिवार के प्रति आसक्ति पैदा हो जाती है | हम सभी जीवन में बार-बार कहते रहते हैं कि अपना, अपना होता है और पराया, पराया | जबकि वास्तविकता यह है कि इस संसार में कोई भी न तो कभी अपना हुआ है और न ही कभी पराया | हम सभी एक अनवरत चल रही यात्रा पर हैं और कभी-कभी किसी एक जीवन में मिल जाते हैं | हम सब एक दूसरे से कुछ प्राप्त करने अथवा किसी को कुछ प्रदान करने के लिए पत्नी/पति, पुत्र, बंधु, मित्र अथवा आत्मीय-जन बनकर एक स्थान पर इस जन्म में मिले हैं | हम सब एक दूसरे का हिसाब-किताब चुकता कर अगले जन्म में पुनः एक दूसरे से दूर हो जायेंगे | इस बात को आत्मसात कर लेने से हमारा किसी भी व्यक्ति में आसक्ति भाव पैदा हो ही नहीं सकता | कबीर इस बात को अपने ही अंदाज में कहते हैं –
पत्ता टूटा डारि से ले गयी पवन उड़ाय |
अबके बिछुड़े कब मिलें, दूर पड़ेंगे जाय ||
इसका भावार्थ यही है कि किसी संयोग से हमारा इस जीवन में साथ बना है, जो एक दिन इस शरीर की समाप्ति के साथ ही अस्थाई अथवा स्थाई रूप से समाप्त हो जाना है | सदैव के लिए साथ न तो किसी को मिला है और न ही भविष्य में मिलने वाला | इसलिए किसको तो आप अपना मान सकते हैं और किस को पराया ? सब कुछ मन का खेल है जिसके कारण अपने-पराये की आसक्ति को पाल बैठे हैं |
अनासक्ति – 12
अपने परिवार अथवा पुत्र में आसक्ति रखना कोई बड़ी बात नहीं है | आज के युग में जब से हम छोटे परिवार को अधिक महत्त्व देने लगे हैं तब से पुत्र में आसक्ति का स्तर बढ़ने लगा है | इसका अर्थ यह नहीं है कि अधिक पुत्र होने से आसक्ति कम हो जाती है | आसक्ति चाहे कम हो अथवा अधिक, इसका प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ना अवश्यम्भावी है | राजा दशरथ के चार पुत्र थे | वह जानते थे कि राम साक्षात् ब्रह्म का अवतार है फिर भी वे उन्हें अपना सांसारिक पुत्र मानते हुए ही उनमें आसक्त हो गए थे | एक सांसारिक मनुष्य राम के प्रति उनकी आसक्ति के स्थान पर अगर ब्रह्म के अवतार राम के प्रति उनका प्रेम होता तो वे कभी के जीवन मुक्त हो गए होते | राम के प्रति उनकी आसक्ति जग जाहिर थी, इसका अर्थ यह नहीं है कि वे राम के स्थान पर भरत को वन में भेजने के लिए सहमत हो जाते | वे भरत को भी वनवास नहीं दे सकते थे | अपने बड़े पुत्र राम के प्रति इसी आसक्त-भाव ने उनको मृत्यु के द्वार तक भी पहुंचा दिया | इसलिए सदैव याद रखें कि किसी भी वस्तु, जन, धन, कर्म व भोग आदि में आसक्ति ही दुःख का कारण ही बनती है | अधिक आसक्ति दुःख को घना और लम्बा कर देती है |
अपने पुत्र से, परिवार से प्रेम करना अलग बात है और उनमें आसक्त हो जाना अलग | प्रेम आप संसार के प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक प्राणी से करें परन्तु किसी के प्रति आसक्त न हो | एक मृग छौने में आसक्ति के कारण ही राजा भरत का पुनर्जन्म तक एक मृग के रूप में हो चूका है | आसक्ति में प्रियजन से बिछड़ना एक बड़े दुःख का कारण बनता है | इस संसार में आना- जाना लगा रहता है | यहाँ जन्म भी है और मृत्यु भी | आइये, एक क्षण के लिए हम कल्पना करें कि अगर भविष्य में वैज्ञानिकों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली तो क्या होगा ? प्रथम बात तो यह है कि परमात्मा का विधान ही ऐसा है कि मृत्यु पर विजय पाई नहीं जा सकती फिर भी अगर ऐसा हो भी जाता है तो फिर एक ही प्रकार की कल्पना की का सकती है | इस संसार में, इस पृथ्वी पर इतने अधिक प्राणी हो जायेंगे कि आपस में ही एक दूसरे को समाप्त करने की सोचेंगे, चाहे वह स्वयं का पुत्र ही क्यों न हो | इस पृथ्वी पर स्थान तो सीमित हैं और संसाधन भी सीमित हैं | जनसंख्या विस्फोट के कारण भी एक दिन ऐसी स्थिति आने की कल्पना की जा सकती है | मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि जहाँ बात उसके अपने अस्तित्व पर आती है, केवल स्वयं के बारे में ही सोचता है | इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ऐसी स्थिति आने पर उस समय ‘मैं’, ‘मेरा’ से भी अधिक बड़ा और महत्वपूर्ण हो जायेगा क्योंकि आसक्ति सदैव ‘मेरा’ से ‘मैं’ में अधिक होती है | इसलिए अनासक्त होने के लिए यह आवश्यक है कि हम ‘मैं और मेरा’ की सम्पूर्ण भावना का ही परित्याग कर दें | जब हमारे लिए ‘तेरा’ से ‘मेरा’ और ‘मेरा’ से ‘मैं’ अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, तब हम अनासक्त होने की ओर कैसे जा सकते हैं ?
इस प्रकार हमने आसक्ति से अनासक्त होने के तीन सूत्रों पर अभी तक विचार किया है | आइये ! अब चौथे सूत्र की ओर चलते हैं |
अनासक्ति – 13
एक बहुत बड़ा व्यापारी था | वह व्यापार में इतना अधिक व्यस्त रहता था कि उसके पास सदैव समय का अभाव बना रहता था | व्यस्त इतना जैसे कि कहते हैं न कि उसके पास इतना भी समय नहीं है कि वह साँस भी आराम के साथ ले सके | उसने अपने जीवन में एक ही उद्देश्य बना रखा था, धन कमाना, और अधिक धन कमाना | आखिर एक दिन उसको कुछ फुर्सत के क्षण मिल ही गए | दोपहर का समय था | दुकान पर ग्राहक भी नहीं थे | गर्मी की दोपहर वैसे भी उनींदा सी बनी रहती है | सेठ को ठाले बैठे रहना वैसे ही कभी पसंद नहीं था | सेठ ने समय काटने के उद्देश्य से ऐसे ही मुनीम को पूछ लिया कि ‘मुनीम जी, थोडा देखकर बताएं कि मेरे पास कितना धन है |’ इधर मुनीम ने बही-खाते खंगालना प्रारम्भ किया और उधर सेठजी को नींद की झपकी आने लगी | कोई आधा घंटा लगा होगा मुनीम को हिसाब-किताब लगाने में | सब कुछ भली-भांति देखकर मुनीम ने झपकी लेते सेठ को जरा ऊँची आवाज में कहा कि ‘सेठजी, आपके पास इतना धन जमा हो गया है कि आपकी सात पीढ़ियां बिना कुछ कमाए अपने जीवन में मौज कर सकती है |’
सेठ को एक झटका सा लगा और उसकी नींद उड़ गयी | वह उठ बैठा और सोचने लगा कि सात पीढ़ी तक तो ठीक है परन्तु आठवीं पीढ़ी क्या खाएगी ? उसने विचार किया कि मुझे और अधिक धन कमाना चाहिए, अपने खर्चों में और अधिक कटौती करनी चाहिए | अब उसने अपने और पत्नी के खर्चों में कटौती करना प्रारम्भ कर दिया | एक गरीब व्यक्ति की तरह वह रहने लगा | सदैव इसी बात की चिंता करता रहता कि अधिक से अधिक धन कैसे इकट्ठा किया जाये ? इस प्रकार उस सेठ की धन में अत्यधिक आसक्ति हो गयी | उसकी पत्नी और मुनीम उसे बहुत प्रकार से समझाते, परन्तु सेठ पर किसी बात का प्रभाव नहीं होता |
कुछ समय बाद एक संत पुरुष ने उस नगर में प्रवेश किया | एक दिन सेठ के घर पर भी वह आया | सेठ को चिंता मग्न देखकर उसने कारण पूछा | सेठ ने अपनी व्यथा बताई कि उसने सात पीढ़ियों के खाने का इंतजाम कर दिया है परन्तु उसके बाद की पीढ़ियां क्या खाएगी ? संत सब कुछ समझ गए | उन्होंने कहा कि शहर के बाहर एक ब्राह्मण परिवार रहता है, केवल वह ही इस बात का उत्तर दे सकता है, उसको जाकर इसका उत्तर पूछे |
अनासक्ति – 14
दूसरे दिन सेठ ने एक बैलगाड़ी पर ब्राह्मण को दान में देने के लिए बहुत सी खाद्य सामग्री को लादा और अपने प्रश्न का उत्तर जानने के लिए ब्राह्मण के घर की ओर प्रस्थान किया | सेठजी ज्योंही ब्राह्मण के घर पहुंचे ब्राह्मण आँगन में ही खड़ा मिल गया | सेठ ने खाद्य सामग्री उतरवाना प्रारम्भ किया तो ब्राह्मण पूछ बैठा - ‘सेठजी, यह सब क्या है ?’ सेठ ने कहा कि आपके लिए एक महीने का राशन-पानी है | ब्राह्मण ने ऊँची आवाज़ में अपनी पत्नी को पूछा - ‘भाग्यवान, सायं के भोजन के लिए घर में खाद्य सामग्री है या नहीं |’ पत्नी ने उत्तर दिया – ‘शाम के भोजन के लिए खाद्य सामग्री तो घर में पर्याप्त है |’ ब्राह्मण ने सविनय सेठ को कहा- ‘सेठजी, हमें आज कोई सामग्री नहीं चाहिए | कल की मैं चिंता नहीं करता | कल की कल देखेंगे | अतः यह सब खाद्य सामग्री लेकर आप लौट जाएँ |’ ब्राह्मण के वचन सुनकर सेठ सुन्न होकर रह गया | वह सोचने लगा कि कहाँ यह साधारण ब्राह्मण जो कल के भोजन तक की चिंता नहीं कर रहा और कहाँ मैं एक सेठ, जो अपनी आठवीं पीढ़ी की चिंता कर रहा हूँ |
इस दृष्टान्त से अनासक्त होने का चौथा सूत्र निकल कर हमारे सामने आता है – “संतुष्टि पूर्ण जीवन |” हमारा जीवन संतुष्टि पूर्ण होना चाहिए | हमारी समस्या यही है कि हम अपने जीवन में कभी भी संतुष्ट नहीं होते | सोशल मीडिया पर आपमें से बहुतों ने पढ़ा होगा, ‘जो प्राप्त है वह पर्याप्त है’ | परन्तु क्या हमने इस वाक्य को अपने जीवन में उतारा है अथवा उतरने का प्रयास किया है ? नहीं, बिलकुल भी प्रयास नहीं किया है | अगर हम इस वाक्य को आत्मसात करने प्रयास भी करते तो कम से कम 50 प्रतिशत लोगों के जीवन से आपाधापी समाप्त हो गयी होती | हम संतुष्ट हो ही नहीं सकते, अपनी इच्छा अनुरूप सब कुछ प्राप्त करके भी | अधिक से अधिक प्राप्त करने की चाहना ने हमें असंतुष्ट ही पैदा किया और जीवन भर असंतुष्ट रहते हुए असंतुष्टि के साथ ही इस देह को त्याग देंगे, फिर से एक नए जीवन में असंतुष्टि के साथ पैदा होने के लिए |
अनासक्ति – 15
अब प्रश्न यही पैदा होता है कि जीवन में संतुष्टि आये कैसे ? संतुष्टि प्राप्त करने के लिए हमें संतुष्ट होने का गणित समझना होगा | संतुष्टि सदैव रुचिकर प्रभाव वाली वस्तु की मात्रा के विलोमानुपाती (Indirectly proportional) होती है और विपरीत प्रभाव वाली वस्तु की मात्रा के समानुपाती (Directly proportional) होती है | दूसरे शब्दों में कहूँ तो कह सकता हूँ कि जिस वस्तु अथवा भोग को प्राप्त करने में आपको सुख मिलता है, वह सदैव आपको अपर्याप्त लगता है और आप उस प्राप्त भोग से संतुष्ट नहीं होते | जिस वस्तु/भोग को प्राप्त करने से आप दुःख को प्राप्त होते हैं उसकी कम मात्रा से भी आप दुःखी होकर दुबारा उसे प्राप्त करने की कामना तक नहीं करते हैं | इस गणित के आधार पर ही हम संतुष्टि का स्तर निश्चित करते हैं | फिर भी क्या कारण है कि हम प्रत्येक भोग को बार-बार प्राप्त करने की कामना रखते हैं ?
इस संसार को दुःख का सागर कहा जाता है, फिर भी यहाँ आकर कोई भी मनुष्य इससे निवृति नहीं चाहता | संसार का प्रत्येक भोग प्रारंभ में सुख का कारण बनता है और अंत में वह दुःख ही प्रदान करता है | इसी कारण से संसार को दुःख का सागर कहा जाता है | हम सब कुछ जानते हैं फिर भी इस आशा में प्रत्येक भोग से इस प्रकार चिपके रहते हैं कि कभी न कभी तो इनकी प्राप्ति के लिए कर्म करने से हमें सुख मिलेगा | सारे प्रयासों के बाद भी कुछ हाथ नहीं लगता और अंततः हम दुःख को ही प्राप्त होते हैं | संतुष्टि है - जो कुछ मिला है, उसमें खुश रहना और असंतुष्टि है - जो मिला है वह पर्याप्त नहीं है और यह आशा करना कि थोडा और अधिक मिले | यहीं आकर मनुष्य गलती कर बैठता है | और अधिक मिलने की कामना करना ही मिले हुए से असंतुष्ट होना है, और अधिक प्राप्त करने की कामना करने का कभी अंत नहीं आ सकता | जितना कामनाओं को पूरा करने का प्रयास किया जाता है उतनी ही और नई कामनाओं का जन्म हो जाता है | जब तक हम स्वयं के मन को नियंत्रित नहीं करेंगे, कामनाओं का जन्म नहीं रुकने वाला | मन को नियंत्रित करने का एक ही उपाय है, वास्तविकता अर्थात सत्य को स्वीकार करना |
सत्य का अनुभव हमें ज्ञान प्राप्त करने से ही हो सकता है | ज्ञान प्राप्त कर लेना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उस ज्ञान को जीवन में उतारना भी आवश्यक है | हमें इस जन्म में जो कुछ भी प्राप्त होना है, वह हमारे जन्म लेने से पूर्व ही निश्चित किया जा चूका है | उससे न तो रत्ती भर कम मिलना है और न ही अधिक | हमारे प्रत्येक शास्त्र में इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख है | इस बात का ज्ञान हम सभी को है परन्तु जब तक इस ज्ञान को क्रियान्वित नहीं करेंगे, इस ज्ञान का जीवन में उपयोग नहीं करेंगे तब तक यह ज्ञान एक बोझ से अधिक कुछ भी नहीं है | इतने चिंतन के बाद यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि संतुष्ट जीवन तभी हो सकता है, जब हमें इस जीवन में जो कुछ भी हमारी सोच से अधिक या कम मिला है उसको ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार करें और अपने मन को नियंत्रण में रखते हुए जीवन में संतुष्ट होने का प्रयास करें |
अनासक्ति – 16
बहुत समय पहले एक दरवेश (घुमक्कड़ मुसलिम फ़क़ीर) आरिफ सुभानी हुए थे | उन्हें संसार की मोह-माया छू तक नहीं गयी थी, इतने विरक्त महापुरुष थे | तन पर पहने हुए कपड़ों के अतिरिक्त उनके पास कुछ भी नहीं था | शांतिप्रिय और सादगी पूर्ण जीवन जीने वाले इस संत का स्वभाव दूसरों से मेल नहीं खाता था | आरिफ सुभानी मंदिर, मस्जिद और गिरिजा घर (Church) में भेद तक नहीं करते थे | अल्लाह के बन्दों को एक ही सीख देते थे कि मजहब के भेदभाव से ऊपर उठो | उनसे प्रभावित होकर एक दिन एक व्यक्ति उनके पास आया | उसने कहा कि ‘मैं आपके इस जीवन से प्रभावित होकर आपके पास आया हूँ और आपके साथ रहकर अल्लाह की बंदगी करना चाहता हूँ |’ सुभानी ने पूछा-“क्या ऐसा करने के लिए तुम्हें मेरे अतिरिक्त अन्य कोई नहीं मिला ?” उसने उत्तर दिया-‘नहीं, वैसे तो अल्लाह की बंदगी करने वाले बहुत हैं परन्तु मैं आपके व्यवहार से प्रभावित होकर आपके पास वह सब कुछ सीखने आया हूँ, जो अन्य किसी के पास नहीं है | मैं आपके पास रहकर बहुत कुछ सीखना चाहता हूँ |’ दरवेश स्वयं में मस्त था उन्होंने स्पष्टतः उसे अपने पास रखने से मना कर दिया |
वह व्यक्ति उनके सामने गिडगिडाते हुए कहने लगा कि ‘जब आप ही मुझे अपने पास नहीं रख रहे हैं तो अब आप ही बताइए मैं क्या करूँ, आप में जो कुछ है, उसे पाने के लिए किसके पास और कहाँ जाऊं ? मैं कैसे अपने आपको आपकी तरह का इंसान बना सकता हूँ ?’ सुभानी ने कहा कि ‘तुम जिस धर्म को मानते हो, उसके अतिरिक्त किसी अन्य धर्म को मानने वाले के पास चले जाओ | तुम इस्लाम में विश्वास करते हो तो किसी एक ईसाई धर्म में विश्वास करने वाले के पास चले जाओ | उसके पास बैठो, उसकी सब कुछ सुनो परन्तु प्रत्युतर में कुछ भी बोलना-कहना नहीं |’ सुभानी की बात सुनकर वह व्यक्ति हैरान रह गया | उसने पूछा - ‘आप यह क्या कह रहे हैं, इससे क्या होगा ?’ दरवेश ने कहा कि ‘तुम जिस धर्म को मानते हो, उस धर्म को न मानने वाले के पास जाओ | वह तुम्हारे धर्म की निंदा अवश्य ही करेगा | तुम केवल सुनते रहना, अपने धर्म के बारे में कुछ भी नहीं कहना | धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर इतनी सहिष्णुता आ जाएगी कि विरोधियों की बातों का बुरा नहीं लगेगा और तुम्हें क्रोध पैदा नहीं होगा | ऐसी सहनशीलता आने पर ही तुम्हें सच्ची शान्ति मिलेगी और तुम खुदा के बन्दों में अपना स्थान बना लोगे |’
बात तो सत्य कही थी, उस आरिफ सुभानी नामक दरवेश ने | हम किसी भी एक विचारधारा, व्यक्ति, संप्रदाय आदि के प्रति इतने अधिक आसक्त हो जाते हैं कि उसके विरोध में उठता एक स्वर तक सुनना पसंद नहीं करते | खेल के मैदान तक में एक टीम के समर्थक दूसरी टीम के समर्थकों से खूनी संघर्ष तक कर लेते हैं | सहनशीलता हमें आसक्ति से मुक्त करती है और अनासक्त बनाती है | ऐसे में हम चाहे जिस टीम का समर्थन कर रहे हों, जो भी टीम जीते-हारे, हमारे ऊपर इस हार-जीत का प्रभाव नहीं होगा | अनासक्त रहकर टीमों का संघर्ष देखने से ही आपको उस खेल में आनंद आएगा |
अनासक्ति – 17
दरवेश आरिफ सुभानी के इस दृष्टान्त से अनासक्त होने का एक और सूत्र हमारे हाथ लगता है – ‘सहिष्णु बनो, विरोध को भी सहना सीखो |’ आरिफ सुभानी दरवेश ने उस व्यक्ति को यही सीख दी थी कि किसी भी एक धर्म का पालन करने वाला किसी दूसरे धर्म के पालन करने वाले में बाधक नहीं बनता है | सभी धर्मों की एक समान शिक्षा है | कुटिलता तो हमारे भीतर मन में होती है कि हम अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे धर्म को तुच्छ समझते हैं | संसार के समस्त धर्म अच्छे हैं परन्तु जब हम एक धर्म के प्रति आसक्त हो जाते हैं, तब दूसरा धर्म हमें निम्न स्तर का प्रतीत होने लगता है | वास्तविकता यह है कि सभी धर्म हमें परमात्मा की और ले जाते हैं और आपस में प्रेम करने की शिक्षा देते हैं | एक धर्म के प्रति हमारी आसक्ति साम्प्रदायिक तनाव का कारण बनती है | धर्म में आसक्ति और धर्म से विरक्ति, दोनों ही अनुचित है | अतः अनासक्त होकर प्रत्येक को स्व-धर्म का पालन करते रहना चाहिए |
यही नियम इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति, समूह और समाज पर लागू होता है | हम अलग-अलग समाज और जातियों में इस प्रकार बंटे हुए हैं कि हमें हमारा देश, देश में भी हमारा प्रान्त, प्रान्त में भी हमारा क्षेत्र, फिर समाज, अपनी जाति और अंत में परिवार ही सर्वोच्च नज़र आता है | जिस दिन हमारे भीतर अनासक्ति पैदा हो जाएगी ‘वसुधेव कुटुम्बकम्’ की भावना को स्वीकार कर लेने में तनिक सी देर भी नहीं लगेगी | सनातन धर्म की सोच सदैव ही इसी प्रकार की रही है | सनातन धर्म, वह धर्म, जो पहले भी था, आज भी है और भविष्य में भी रहेगा क्योंकि इस धर्म में सभी विचारधाराओं का समावेश किया गया है | जो भी परमात्मा की और जाने का रास्ता दिखलाता है, वही हमारे लिए पूजनीय बन जाता है | साकार की भी उपासना करते हैं, निराकार में भी विश्वास करते हैं | सहिष्णुता की भावना तो हमें विरासत में मिली है, यही एक मात्र कारण है जो सदियों से यहाँ इस देश में हम सभी धर्मों और उनके अनुयाइयों का सम्मान करते हैं | हमारी दृष्टि में यहाँ कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं | सभी एक दूसरे के पूरक, कहीं किसी प्रकार का कोई भेद नहीं | केवल एक सहिष्णु व्यक्ति ही मध्य में रह सकता है | न तो आसक्त और न ही विरक्त, बस केवल अनासक्त | कबीर ने सहनशील बनने का उपाय बताते हुए बहुत ही सुन्दर बात कही है –
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छुवाय |
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय ||
स्वभाव को निर्मल बना लेना ही आसक्त से अनासक्त होना है |
अनासक्ति – 18
आरिफ सुभानी की तरह ही एक और विरक्त संत हुआ करते थे | बचपन से ही उनका अध्यात्म में रुझान था | उन्हें कामना और क्रोध छू कर तक नहीं गये थे | जब तक मन में किसी भी प्रकार की कामना जन्म नहीं लेती है, तब तक भला क्रोध किस पर करे ? कामना ही क्रोध की जननी है, क्रोध पैदा ही तब होता है जब कामना पूरी नहीं होती | साथ ही साथ कामना ही लोभ की भी जननी है | जब एक कामना पूरी हो जाती है तब लोभ उत्पन्न करती है और फिर एक नई कामना का जन्म हो जाता है | हाँ, तो बात हो रही थी उस विरक्त संत की | संत घने जंगल में बैठकर परमात्मा को कठोर तप करते हुए आत्म-बोध को उपलब्ध होने का प्रयास कर रहे थे | इसके लिए विरक्त संत तपस्या में लीन होकर तपस्वी बन गए थे | पास के ही एक गाँव की काली-कलूटी बहुत ही बदसूरत लड़की उस जंगल में तालाब से जल भरने के लिए नियमित रूप से आती थी | वह प्रतिदिन देखती कि वह तपस्वी तप में सदैव लीन रहता था | उसका खाने और पीने की क्या व्यवस्था है, वह इस पर सोच-विचार किया करती | उसको कोई व्यवस्था नज़र नहीं आयी | अंततः उसको उस तपस्वी पर दया आ गयी | वह घर से खाना बनाकर लाती, तालाब से जल का घड़ा भरती और दोनों को तपस्वी की कुटिया में रख देती |
तपस्वी की कठोर तपस्या को देखकर इंद्र विचलित हो गया | वह सोचने लगा कि यह तपस्वी इतना कठोर तप कर रहा है, कहीं मेरे सिंहासन पर तो इसकी दृष्टि नहीं है ? इंद्र, देव-लोक का शासन-कर्ता | देव लोक अर्थात स्वर्ग, जहाँ देवताओं की प्रत्येक इच्छा पूरी होती है, काम से लेकर समस्त सुख प्राप्त करने की | आप यह न समझें कि स्वर्ग में कोई कामना नहीं होती | अगर कामना नहीं होती तो स्वर्ग की कल्पना तक नहीं होती | हमारी कामनाएं ही हमारे लिए स्वर्ग और नरक का निर्माण करती है | हाँ, तो इंद्र बड़ा चिंता मग्न था कि हो न हो; यह तपस्वी मेरा पद छिनने के लिए ही इतना कठोर तप कर रहा है | इंद्र ने एक उपाय सोचा और उसको क्रियान्वित किया भी | उसने उस गाँव की बदसूरत सी काली-कलूटी लड़की को अप्रतिम सौन्दर्य की मल्लिका बना दिया | उस लड़की का सौन्दर्य इतना अधिक प्रभावशाली हो गया था कि उस समय तो उसके सामने स्वर्ग की अप्सराएँ, उर्वशी और मेनका आदि भी पानी भरती दिखलाई पड़ती |
अनासक्ति – 19
अप्रतिम सौन्दर्य (Outstanding beauty) पाने के बाद भी गाँव की उस लड़की का तो प्रतिदिन का यही नियम कि तपस्वी की कुटिया में खाना-पानी रखे | एक दिन तपस्वी ध्यान के बाद यूँ ही बैठा हुआ था कि उसी कुमारी कन्या ने खाना-पानी रखने के लिए कुटिया में प्रवेश किया | तपस्वी की दृष्टि उस बालिका पर पड़ी | उसका अप्रतिम सौन्दर्य देखकर वह स्वयं तक को भुला बैठा | उसने तत्काल ही अपनी तपस्या को अनवरत जारी रखने का विचार त्याग दिया | उसने बिना सोचे-समझे उस लड़की के समक्ष विवाह करने का प्रस्ताव रख दिया; एकदम आधुनिक युग में एक लडके द्वारा लड़की को दिये जाने वाले ‘प्रपोजल’ की तरह | सुनकर वह कुमारी कन्या शर्म से लाल हो गयी | उसने अपने जीवन में कल्पना तक नहीं की थी कि किसी दिन एक तपस्वी उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव भी रख सकता है | गाँव की इस बाला को और क्या चाहिए था, उसने तत्काल ही विवाह के लिए स्वीकृति देते हुए ‘हाँ’ कर दी और अपने घर लौट गयी | उस कन्या के द्वारा विवाह प्रस्ताव पर ‘हाँ’ कहते ही स्वर्ग लोक में बैठा इंद्र प्रसन्न हो गया और साथ ही साथ आश्वस्त भी कि अब निकट भविष्य में उसके सिंहासन को कोई खतरा नहीं है |
काम-वासना से ग्रस्त तपस्वी अपने स्तर से नीचे गिरने लगा था | दिन-रात परमात्मा का ध्यान करने वाला तपस्वी आज गाँव की एक साधारण सी कन्या के सौन्दर्य-जाल में उलझ गया था | हम उस तपस्वी से जरा से भी अलग नहीं है | हमारा भी यही हाल है, जहाँ कोई कामना पूरी होती नज़र आती है, जीवन का उद्देश्य तक भूला बैठते हैं | इधर जंगल में स्थित उस कुटिया में तपस्वी को नींद नहीं आ रही है, रह-रह कर करवटें बदल रहा है और निकट भविष्य में होने जा रहे विवाह की मधुर कल्पना में खोया हुआ है | उधर गाँव में लड़की का भी यही हाल है, उसे भी नींद नहीं आ रही है परन्तु लड़की को नींद न आने का कारण तपस्वी के कारण से भिन्न है | लड़की यह सोचकर व्यथित है कि मेरे कारण उस तपस्वी के तप में बाधा आ गयी है | मुझे विवाह का प्रस्ताव तत्काल ही अस्वीकार कर देना चाहिए था | परन्तु अब क्या हो सकता था ? उसने रात भर विचार किया और तत्काल ही एक महत्वपूर्ण निर्णय पर पहुँच गयी | सुबह होते ही उसने खाना बनाया और जंगल में स्थित उस तपस्वी की कुटिया की ओर चल पड़ी | जल्दी ही वह उस तपस्वी की कुटिया में प्रवेश पा गयी | तपस्वी ने सर्वप्रथम तो उसे जी भर कर देखा और फिर इतनी सुबह आने का प्रयोजन पूछा | युवती ने क्षमा मांगते हुए कहा कि आज ही वह किसी आवश्यक कार्य-वश बाहर किसी अन्य स्थान पर जा रही है | उसने तपस्वी को उसके और स्वयं के स्तर की तुलना करते हुए कहा कि इस प्रकार विवाह करना उपयुक्त नहीं है | एक तपस्वी को अपने तप में, अपनी साधना में आगे प्रगति करनी चाहिए और गृहस्थी बसाने का निर्णय त्याग देना चाहिए | यकायक यह सुनकर तपस्वी को एक झटका सा लगा | उसकी विवाहोपरांत की सभी कल्पनाएँ एक क्षण में ही मटियामेट हो चुकी थी | उसने बड़े ही दुःखी मन से युवती को अपनी कुटिया से विदा किया और पुनः तपस्या में लीन हो गया | परिस्थितियाँ अचानक ही एकदम बदल गयी थी | अब पुनः चिता ग्रस्त होने की बारी इंद्र की थी |
अनासक्ति – 20
गाँव लौटकर उस युवती ने फिर कभी उस जंगल की ओर, उस तपस्वी की कुटिया का रुख नहीं किया | तपस्वी कठोर तप में लीन था | अब इंद्र ने इस तपस्वी को देव-लोक का सिंहासन सौंप कर उसका सहायक बनने में ही अपना भला समझा | यह सोचकर इंद्र भूलोक पर उतर आया और उसने तपस्वी की कुटिया में प्रवेश किया | तपस्वी की आँख खुली, अपने सामने साक्षात् देवराज इंद्र को खड़ा पाया | इंद्र ने तपस्वी को दंडवत प्रणाम किया और बड़े ही प्रेम से बोला - ‘हे तपस्वी ! आपने बड़ा कठोर तप किया है | आप देव-लोक के पद पर आसीन होने के अधिकारी हैं | मैं आपका सहायक बनकर आपकी सेवा में रहूँगा | श्रीमन्, मैं आपको देव-लोक का कार्यभार संभालने के लिए आमंत्रित करने आया हूँ |’ इस प्रकार इंद्र के मुख से स्वर्ग का राज्य मिलने की बात सुनकर भी तपस्वी प्रसन्न नहीं हुआ | उसने स्वर्ग लोक का शासन संभालने से इनकार कर दिया | अब एक बार फिर से चौंकने की बारी देवराज की थी | वे अपने शासन काल में स्वयं के समक्ष खड़ा एक ऐसा मनुष्य देख रहे थे, जिसके मन में स्वर्ग का राजा बनने तक की कामना भी नहीं है, छोटी-मोटी कामनाओं के तो मन में बने रहने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होगा | इंद्र सोचने लगा कि यह तपस्वी तो निश्चित ही ब्रह्म-लोक जाने का अधिकारी है | उसने तपस्वी को कहा – ‘मैं, सब कुछ समझ गया हूँ | आप ब्रह्म-लोक को प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं और वहां जाने के अधिकारी भी हैं | ब्रह्म-लोक के सामने भला देव-लोक की क्या बिसात | परमात्मा आपकी यह इच्छा भी पूरी करे |’ इतना कहकर इंद्र वापिस अपने लोक जाने को उद्यत हुआ | अनायास ही उसके मन में एक बात आई कि ऐसा कैसे हो सकता है कि इस भूलोक के किसी एक मनुष्य में सभी कामनाओं का अंत हो गया हो | मुझे इस तपस्वी को पूछना चाहिए कि क्या इस जीवन में कोई और कामना भी अभी शेष है ?
इंद्र तत्काल ही उस तपस्वी की ओर उन्मुख हुआ और बोला – ‘श्रीमान ! मेरे योग्य और कोई सेवा हो तो बताएं | आपके मन में और कोई इच्छा हो तो बताएं, आपका यह सेवक तुरंत आपकी इच्छा पूरी करेगा |’ इतना सुनते ही उस तपस्वी का चेहरा ख़ुशी से चमक उठा |’ तपस्वी करबद्ध होकर इंद्र के सामने खड़ा हो गया और बोला – ‘ अगर आप मेरी इच्छा को जानना और पूरी करना ही चाहते हैं तो गाँव वाली उस रूपवती कन्या को मेरे समक्ष ला कर खड़ा कर दीजिये, मैं उसके साथ विवाह कर अपनी गृहस्थी बसाना चाहता हूँ |’ इंद्र इतना सुनकर समझ गया कि इस भूलोक के मनुष्य के जीवन में कभी भी कामना समाप्त नहीं हो सकती | इंद्र ने आगे उस तपस्वी की इच्छा पूरी करने के लिए क्या किया, उसको जानना आवश्यक भी नहीं है | आवश्यक इसलिए नहीं है कि अगर इंद्र ने उसकी यह एक कामना पूरी भी कर दी होगी, तो वह तपस्वी पुनः कई नई कामनाओं के जंजाल में और उलझ गया होगा |
अनासक्ति – 21
इस दृष्टान्त से अनासक्त होने का एक और सूत्र निकल कर हमारे सामने आता है – “कामनाओं पर नियंत्रण रखना |” कामना रखने से व्यक्ति कर्म के प्रति आसक्त होता है | जब कामना पूरी हो जाती है, लोभ पैदा हो जाता है | लोभ पुनः नई कामनाओं को जन्म देता है और फिर से व्यक्ति कर्म में आसक्त हो जाता है | इस प्रकार कामनाएं आसक्ति को जन्म देती है और आसक्ति कामनाओं को | यह दुष्चक्र कभी भी टूट नहीं पाता और मनुष्य इस संसार में आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता | जब हम कामनाओं को नियंत्रित कर लेंगे तो शीघ्र ही अनासक्त-भाव को प्राप्त हो जायेंगे | आइये ! अब जानने का प्रयास करते हैं कि कामनाएं नियंत्रित कैसे हो सकती है ?
कामनाओं को नियंत्रित करने के लिए हमें कामनाओं के विज्ञान को समझना होगा | कामनाएं तभी उत्पन्न होती है, जब इन्द्रियां किसी भोग के प्रति आसक्त हो जाती है | परन्तु इन्द्रियां अकेले भोग प्राप्त नहीं कर सकती, उसके लिए मन का इन्द्रियों के साथ रहना आवश्यक है | मन इन्द्रियों के साथ रहकर कर्म करवाता है, तभी इस शरीर से भोग प्राप्त हो सकते हैं | मन पर प्रभाव बुद्धि का होता है क्योंकि बुद्धि मन से पर अर्थात सूक्ष्म और श्रेष्ठ है | अगर बुद्धि को मन अपने वश में कर लेता है तभी वह इन्द्रियों से कर्म करवाकर भोग उपलब्ध करवा सकता है अन्यथा नहीं | कोई भी भोग कभी भी मनुष्य को संतुष्ट नहीं कर सकता | असंतुष्टि फिर नई कामनाओं को जन्म देती है और नयी कामनाओं को पूरा करने के लिए फिर से मन और इन्द्रियां कर्म करने में जूट जाती है | इस प्रकार यह कामनाओं और कर्म का एक अटूट चक्र बन जाता है जिसका टूट पाना लगभग असंभव हो जाता है | भगवान श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कहते हैं –
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः |
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ||गीता-3/42||
अर्थात इन्द्रियों को शरीर से पर अर्थात श्रेष्ठ और सूक्ष्म कहते हैं, इन्द्रियों से पर मन है; मन से भी पर बुद्धि है और बुद्धि से भी पर अर्थात सूक्ष्म वह (आत्मा) है |
अनासक्ति – 22
बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म भी एक और भी है, जिसको आत्मा कहा जाता है और जो कि जड़ तत्वों में केवल बुद्धि के निकट है | मन से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं होता | हाँ, केवल बुद्धि के कारण ही उसे मन के साथ जुड़कर जीवात्मा बनना पड़ता है | अगर बुद्धि सदैव आत्मा के अनुसार चले तो फिर आत्मा को स्वतन्त्र माना जा सकता है | कहने का अर्थ है कि मन ही बंधन का कारण है लेकिन तभी जब वह बुद्धि पर प्रभावी हो जाये | प्रत्येक व्यक्ति अपने अधीन के साथ सम्बन्ध न रख कर अपने से उच्च के साथ सम्बन्ध बनाये रखना चाहता है | जब हम अपने अधीन के प्रभाव में आकर उसका कहा मानने लगते हैं तो हम अपने स्तर से नीचे गिर रहे होते हैं और जब हम अपने से उच्च के साथ रहते हुए उसके कहे अनुसार चलते हैं तो हम प्रगति-पथ पर अग्रसर हो रहे होते हैं | आत्मा सर्वोच्च है, उसके बाद बुद्धि का स्थान है और अंत में मन का | बुद्धि के अधीन मन है और आत्मा के अधीन बुद्धि | बुद्धि का कार्य है, ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त हुए ज्ञान का उपयोग करना | बुद्धि को अपने अधीनस्थ, मन के साथ हो जाने के बजाय, अपने से उच्च, आत्मा के साथ ही बने रहना चाहिए | जब व्यक्ति की बुद्धि आत्मा के साथ रहती है, तब उसका ज्ञान विवेक में परिवर्तित हो जाता है और जब बुद्धि अपने से निम्न, मन के साथ हो जाती है तब वही ज्ञान, अज्ञान बन जाता है | अज्ञान वह कथित ज्ञान है, जिसे मनुष्य मन के कहे अनुसार सत्य समझ लेता है जबकि विवेक वह ज्ञान है जो मनुष्य बुद्धि को आत्मा के साथ रखकर उसका अनुसरण करता है | शास्त्रों में इसी प्रक्रिया को ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ कहा गया है अर्थात हमें परमात्मा अज्ञान की तरफ नहीं बल्कि ज्ञान की तरफ ले जाए | अतः कामनाओं को नियंत्रित करने का यही एक मात्र उपाय है कि मनुष्य अपनी बुद्धि को आत्मा के साथ संलग्न कर ज्ञान का उपयोग करे न कि मन को बुद्धि पर प्रभावी कर अपने मन का कहना मानता रहे | इसी बात को स्पष्ट करते हुए गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं -
एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना |
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ||गीता-3/43||
अर्थात बुद्धि से पर यानि सूक्ष्म, बलवान और अत्यंत श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामना रुपी शत्रु अर्थात इस दुर्जय शत्रु काम को मार डाल |
अर्जुन को युद्धभूमि में मिले इस ज्ञान को हमें भी समझना चाहिए और कामनाओं को नियंत्रित करने के लिए मन को बुद्धि के अधीन करते हुए अपने विवेकानुसार निर्णय करना चाहिए | बुद्धि से ज्ञान का समुचित उपयोग करके ही कामनाओं को बढ़ने से रोका जा सकता है अन्यथा मन के अनुसार चलने से तो कामनाओं का अंत होना असंभव ही है |
अनासक्ति – 23
पूर्व में वर्णित दृष्टान्त पर एक प्रबुद्ध पाठक ने कुछ शंकाएं प्रकट की है, उसका स्पष्टीकरण श्रृंखला के मध्य में ही कर देना चाहता हूँ | वे पूछते हैं कि वह कन्या उन तपस्वी की तपस्या में विघ्न नहीं हुई, अतः कृपया स्पष्ट करें कि दोनों में तुलना करनी हो तो हम कैसे करें ?
संत की तुलना में कन्या कामनाओं से बहुत दूर है | संत के मन में कामनाएं अभी भी शेष हैं | कन्या ने अपने जीवन में किसी तपस्वी से विवाह करने की कल्पना तक नहीं की थी | मन में भोग की कल्पनाएँ ही विभिन्न कामनाओं की जननी है | जब तपस्वी ने उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था, तब वह चौंक गयी थी और जल्दबाजी में उसने विवाह के लिए हाँ कर दी थी | परन्तु घर जाकर उसने विचार किया तब उसे लगा कि वह तपस्वी के तप में बाधक बन रही है | वह तपस्वी के तप में बाधक बनना नहीं चाहती थी | इसीलिए दूसरे दिन उसने विवाह करने से मना कर दिया था | अगर उसके मन में पहले से ही उस तपस्वी के साथ विवाह करने की कल्पना के कारण तीव्र कामना रही होती तो विवाह करने से इनकार कर ही नहीं सकती थी |
दूसरी शंका- इस लेख में आप क्या संदेश देने की चेष्टा कर रहे है मेरे तो समझ से बहुत दूर हैं, क्योंकि तपस्वी ने जब तप प्रारंभ किया तब जो उद्देश्य था उस उद्देश्य से उस गांव की रूपवती कन्या के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखने और कन्या द्वारा स्वीकार करना पुनः अगले दिन अस्वीकार कर दिया । क्या आगे की तपस्या उस कन्या के साथ विवाह कर गृहस्थी बसाने के लिए थी, जो ब्रह्म लोक की भी कामना नहीं रखी ?
लेख का सन्देश स्पष्ट है- कामनाओं को नियंत्रण में रखना आसन कार्य नहीं है | तपस्वी ब्रह्म-लोक की प्राप्ति के लिए ही तप कर रहा था | तप में समस्त सांसारिक कामनाओं को नष्ट किया जाता है और परमात्मा की प्राप्ति की कामना को सर्वोपरि रखा जाता है | जितनी अधिक तीव्र आसक्ति होती है, मन भर जाने पर उस वस्तु/व्यक्ति/भोग से उतनी ही अधिक तीव्र विरक्ति भी हो जाती है | तपस्वी विरक्त तो था परन्तु काम से पूर्णतया मुक्त नहीं हुआ था | तभी उसने कन्या को सर्वप्रथम देखते ही विवाह का प्रस्ताव रख दिया क्योंकि इतने कठोर तप के बाद भी वैवाहिक सुख के प्रति उसकी कामना नष्ट नहीं हुई थी | उसकी आसक्ति एक स्त्री और काम-भोग में बनी ही रही | जब दूसरे दिन कन्या ने विवाह के लिए ना कर दी तब वही तीव्र आसक्ति, पुनः तीव्र विरक्ति में परिणीत हो गयी, एक दोलक के दोलन की तरह; जो दोनों तरफ दोलन करता हुआ सर्वोच्च ऊँचाई को छूता है | विवाह न होने से आहत होकर वह पुनः तीव्र विरक्ति में चला गया और ब्रह्म-प्राप्ति के लिए तप में लग गया | जब इंद्र उसके सामने आया और मन में अन्य कोई इच्छा शेष रहने का पूछा तो उसका भीतर दबा हुआ काम-भाव पुनः सतह पर आ गया और उसने उसी कन्या को मांग लिया | कहने का अर्थ है कि मनुष्य की कामनाएं इतनी सरलता से नष्ट नहीं हो सकती | तपस्वी के तप के बाद की उसके भीतर काम-भाव ऐसी स्थिति में बना रहा, जैसे राख के ढेर में दबी एक चिंगारी | जरा सा इंद्र ने उसे क्या कुरेदा कि राख हटते ही चिंगारी भभक उठी | इसीलिए सदैव यही कहा जाता है कि कामनाओं को नष्ट करना आसान नहीं है | इन्हें तो अनासक्त होकर ही नियंत्रण में रखा जा सकता है | हरिः शरणम् आश्रम के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा एक संत की बात बताते हैं कि वे (उन संत का नाम मुझे अभी याद नहीं आ रहा है) कहा करते थे कि अगर हरिद्वार से लाहौर तक के मार्ग को स्वर्ण मुद्राओं से पाट भी दिया जाये और उस मार्ग पर मुझे चलने को कहा जाये तो मेरा मन उस स्वर्ण मुद्राओं को देखकर जरा सा भी विचलित नहीं होगा | परन्तु मेरे सामने एक सुन्दर स्त्री के आ जाने पर मैं यह नहीं कह सकता कि मेरा मन उसकी उपस्थिति से जरा सा भी विचलित नहीं होगा | हम सब के जीवन की यह एक कटु वास्तविकता है कि कामनाओं पर हमारा सदैव के लिए वश नहीं रह पाता | उनको नष्ट करने के स्थान पर नियंत्रण करना अधिक उचित है अर्थात न आसक्ति, न विरक्ति; बल्कि अनासक्ति |
अनासक्ति – 24
एक संत घने जंगल में कुटिया बनाकर अपने शिष्य के साथ साधना करते थे | पास में स्थित गाँव वाले अपनी-अपनी श्रद्धानुसार उनके खाने-पीने आदि का प्रबंध कर दिया करते थे | संत बड़े ही आत्म-रत प्रवृति के थे, उन्हें अपने शरीर, दीन-दुनिया आदि की कोई चिंता नहीं रहती थी | परन्तु शिष्य कई बार भोजन, कपड़ों और आजीविका आदि की चिन्ता कर लिया करता था | संत उसे बहुत समझाते, परन्तु शिष्य फिर भी कभी-कभी उनसे मिले ज्ञान को विस्मृत कर देता था |
एक बार गाँव का एक व्यक्ति एक दुधारू गाय को लेकर संत की कुटिया में आया | उसने गाय को सौंपते हुए संत से कहा कि ‘मैं गाँव छोड़कर जा रहा हूँ | न जाने वापिस लौटकर कभी आ पाऊंगा अथवा नहीं | इस गाय को आपके सिवाय किसी अन्य के पास छोड़ना मेरे को उचित नहीं लगा | अतः यह गाय आपको देकर जा रहा हूँ | आप इसकी सुगमता से देखभाल भी कर सकते हैं |’ संत ने उस व्यक्ति को कुटिया के खुले भाग में गाय को बांधने का कह दिया | व्यक्ति ने संत को प्रणाम किया और दूसरे गाँव जाने के लिए यात्रा पर निकल गया |
उसके चले जाने के बाद शिष्य ने अपने गुरु से पूछा – ‘गाय को रखना भी बड़े झंझट का कार्य है | इस गाय का हम क्या करेंगे ? इस के चारा-पानी की व्यवस्था कहाँ से होगी ?’ संत ने निर्विकार भाव से कहा – ‘पुत्र, इस जंगल में परमात्मा ने सभी प्राणियों के भोजन की व्यवस्था की है | जब हमारे खाने-पीने की व्यवस्था भी होती है, तो फिर इस मूक प्राणी की व्यवस्था भी परमात्मा करेगा | अच्छा है, हमें भी इस गाय का दूध पीने को मिलेगा | परमात्मा सब-कुछ अच्छा ही करते हैं |’ गुरु-शिष्य दोनों मिलकर गाय की सेवा करते और जंगल में चरने के लिए छोड़ देते | सुबह-शाम गाय के दूध का सेवन कर लिया करते | अब शिष्य को गाय बोझ नहीं लग रही थी | वह बड़े मन से गाय को जंगल में जाकर चरा लाता | सुबह शाम उसको दुह लेता, दूध से दही और मक्खन आदि बना लेता और अपने गुरु के साथ सुखपूर्वक उनका सेवन करता |
अनासक्ति – 25
कुछ दिनों बाद वही व्यक्ति जो गाय को आश्रम में छोड़ कर गया था, वापिस लौट आया | उसने आते ही संत से अपनी गाय वापिस मांगी | संत ने निर्विकार भाव से कहा कि ‘जहां बांधकर गए थे, वहीं से खोलकर वापिस ले जाओ |’ वह व्यक्ति गाय को खोलकर वापिस ले गया | यह सब देख-सुनकर शिष्य उद्वेलित हो गया | उस व्यक्ति के जाने के बाद पीछे से शिष्य उसको भला-बुरा कहने लगा | संत ने उसे समझाया कि ‘परमात्मा सब कुछ अच्छा ही करते हैं | अच्छा हुआ वह व्यक्ति गाय को वापिस ले गया | इससे हमें उस गाय को चराने, उसका गोबर उठाने आदि कार्यों के झंझट से मुक्ति मिली |’ गुरु की बात सुनकर कुछ समय बाद शिष्य शांत हो गया |
इस दृष्टान्त के अनुसार शिष्य गाय से मिलने वाले दूध आदि से जो सुख अनुभव कर रहा था, उसके अब न मिलने पर उसका वह सुख ही दुःख में परिवर्तित हो रहा था | वह सोचता था कि गाय से हमें अब तक दूध आदि मिलता था, वह अब नहीं मिल पायेगा | यह शिष्य की दुग्ध-भोग (स्वाद-सुख) के प्रति आसक्ति थी, जो उसे उस व्यक्ति के प्रति उद्वेलित कर रही थी | जबकि दूसरी तरफ संत के मन में गाय के आने और वापिस लौट जाने, दोनों अवस्थाओं के कारण विचार तक पैदा नहीं हुआ था क्योंकि वे अनासक्त थे | उनके इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा था कि सदैव मिलने वाला दूध-दही अब नहीं मिल पायेगा | गाय आई है तो अच्छा है; दूध-दही खाने को मिलेगा, चली गई तो भी अच्छा हुआ, गोबर उठाने से मुक्ति मिली | उनमें ऐसी अनासक्ति आई है, साक्षी-भाव के कारण | शिष्य गाय में सुख देख रहा था अर्थात किसी अन्य से सुख मिलता देख रहा था जबकि संत जानते थे कि वास्तविक सुख तो स्वयं के भीतर है, स्वयं से बाहर तो केवल परमात्मा की लीला है | संसार का दृश्य हमें अपने में लीन करने का प्रयास करता है, अपने साथ लपेट लेना चाहता है | हमें अपनी क्षमता इस प्रकार विकसित करनी होगी कि संसार की कोई बात/वस्तु हमें प्रभावित न कर सके | इसके लिए आवश्यक है कि हम संसार को देखें तो अवश्य परन्तु उसमें हस्तक्षेप न करें | देखने को हम रोक नहीं सकते क्योंकि यह नेत्र नामक ज्ञानेन्द्रिय का स्वाभाविक कार्य है | परन्तु संसार में लिप्त होना अथवा न होना हमारी क्षमता के भीतर है | हम चाहें तो संसार में डूब सकते हैं और चाहें तो संसार में रहते हुए उससे निर्लिप्त भी रह सकते हैं | अतः संसार में केवल साक्षी बनकर परमात्मा की लीला को देखते रहना ही उचित है | इस प्रकार इस दृष्टान्त से हमें अनासक्त होने का अंतिम और महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लगता है – ‘साक्षी-भाव’ | संसार में जो कुछ भी घटित हो रहा है, उन सब का केवल साक्षी होना | न्यायालय में साक्षी अर्थात गवाह का बड़ा महत्त्व है | जो किसी भी घटना में हस्तक्षेप नहीं करता वही वास्तव में सही साक्षी हो सकता है | जो कोई व्यक्ति एक पक्ष का साथ देता है वह भला साक्षी कैसे हो सकता है ?
अनासक्ति – 26
साक्षी होने का अर्थ है, निर्विकार भाव से घटित हो रहे को देखते रहना, प्रत्येक घटना को परमात्मा की लीला मात्र समझना, उसमें स्वयं को नहीं उलझाना | इस शरीर को मन सहित 11 इन्द्रियां परमात्मा ने दी है | पाँच ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग न करना परमात्मा के आशीर्वाद और उनकी आज्ञा का उल्लंघन है परन्तु पाँच कर्मेन्द्रियों और एक मन को नियंत्रण में रखना प्रत्येक व्यक्ति का निजी दायित्व है | ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग करते हुए कर्मेन्द्रियों और मन को नियंत्रण में रखना ही साक्षी-भाव है | नेत्रों से न देखना, कानों से न सुनना, घ्राण शक्ति को दबा देना, रसनेन्द्रिय से स्वाद को न लेना तथा त्वचा से स्पर्श के अनुभव करने को नकार देना स्पष्ट रूप से परमात्मा की आज्ञा का उल्लंघन है | परमात्मा ने ज्ञानेन्द्रियाँ दी ही ज्ञान प्राप्त करने के लिए और हम इन इन्द्रियों के कार्य से स्वयं को विमुख कर ले तो फिर ज्ञान कैसे प्राप्त करेंगे ? हमें मानव जीवन मिला ही इसीलिए है कि हम आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो और आत्म-ज्ञान तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब ज्ञानेन्द्रियों का समुचित उपयोग किया जाये |
हम लोग प्रायः साक्षी और द्रष्टा होने को समानार्थी समझ लेते हैं | साक्षी होना द्रष्टा होने से पूर्व की अवस्था का नाम है | साक्षी होने पर आप इस भौतिक संसार में बने तो रहते हैं परन्तु इसकी गतिविधियों में रत (Involve) नहीं होते हैं, किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नहीं करते हैं | साक्षी होने का अर्थ संसार से विमुख होना कतई नहीं है बल्कि संसार में रहते हुए उसकी प्रत्येक गतिविधि को बिना किसी भेद-भाव के देखते रहना है; जैसे कि आप किसी सिनेमा हाल में एक चलचित्र देख रहे होते हो | चलचित्र को हम इसके निर्माण-कर्ता की कृति और कलाकारों का अभिनय समझकर उसमें रत नहीं होते हैं, उसी प्रकार संसार में हो रहे प्रत्येक घटनाक्रम को उसके निर्माण-कर्ता की कृति, उस परम पिता की लीला समझना ही साक्षी होना है | जब हम चलचित्र के किसी एक पात्र में हम स्वयं को देखने लगते हैं, तब हम उस चलचित्र में रत हो जाते हैं | ऐसे में हमें चलचित्र में घटित होने वाली प्रत्येक घटना निश्चित ही प्रभावित करेगी | वास्तविकता में वह कोई सत्य घटना न होकर कलाकार का अभिनय मात्र होता है और कलाकार भी अभिनय, उस चलचित्र के निर्माता की योजना के अनुसार ही करता है |
अनासक्ति – 27
इस संसार में हम जितनी भी घटनाएँ घटित होती देख रहे हैं, वे सभी परमात्मा की एक निश्चित योजना के अनुसार ही घटित होती है और उसी परमपिता की योजना के अनुसार ही हम सब को अभिनय करने के लिए हमारे प्रत्येक जीवन में एक नए पात्र की भूमिका मिलती है | हमें केवल स्वयं को मिली उस भूमिका को ही निभाना होता है और वह भी बड़ी संजीदगी के साथ | हमें इस संसार में घटित होने वाली घटनाएँ तभी प्रभावित कर सकती हैं जब हम उन घटनाओं को लीला न मानकर वास्तविकता समझ बैठते हैं | ऐसा तभी होता है जब हम किसी घटना को एक पक्षीय होकर देखते हैं | इस प्रकार कहा जा सकता है कि एक पक्षीय होने से हम कभी भी साक्षी नहीं हो सकते | साक्षी होने के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक घटना को निरपेक्ष-भाव से देखा जाये और उसको परमात्मा की लीला मात्र समझा जाये |
अष्टावक्र महाराज राजा जनक को कह रहे हैं –
न त्वं विप्रादिको वर्णों नाश्रमी नाक्षगोचरः |
असंगोSसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव || अष्टावक्र गीता – 1/5 ||
अर्थात हे जनक, तुम ब्राह्मण आदि जातियों वाले नहीं हो | न तुम वर्णाश्रम आदि धर्मों वाले हो | न तुम चक्षु आदि इन्द्रियों के विषय हो, किन्तु तुम इन सबके साक्षी और असंग हो एवं तुम आकार से रहित हो और सम्पूर्ण विश्व के साक्षी हो | ऐसा अपने को जानकर सुखी और संसार रुपी ताप से रहित हो जाओ |
अष्टावक्र जी का यह कहना कि तुम किसी विशेष जाति अथवा वर्ण के नहीं हो और न ही तुम नेत्र आदि इन्द्रियों के विषय हो, न तुम किसी विशेष आकार के हो; इसका अर्थ है कि जाति, वर्ण, इन्द्रिय-विषय और आकार ये सभी शरीर के साथी है | आत्मा इन सबसे अलग है, असंग है | हमें मिलाने वाला शरीर प्रत्येक नए जीवन में बदलता रहता है | आज मेरा यह भौतिक शरीर एक ब्राह्मण का है, अगले जन्म में ब्राह्मण के शरीर की तो बात ही क्या, यह भी पता नहीं है कि मनुष्य का भी शरीर मिल पायेगा अथवा नहीं | अतः स्वयं को शरीर न समझकर आत्मा समझो | आत्मा केवल साक्षी है | आत्मा शरीर, उसकी जाति, उसके वर्ण और आकार आदि को साक्षी भाव से देखती है परन्तु शरीर से सदैव असंग ही रहती है | जब आप स्वयं को शरीर समझने लगते हो, समस्या तभी पैदा होती है अन्यथा आत्मा को इन सभी से क्या प्रयोजन ? आप आत्मा हैं, शरीर नहीं, इस बात को स्वीकार कर लेने से ही व्यक्ति में साक्षी-भाव आ सकता है अन्यथा नहीं | साक्षी-भाव के कारण न तो आप किसी भोग-कर्म के प्रति आसक्त हो सकते हो और न ही उससे विरक्त | जो न आसक्ति है और न ही विरक्ति, बल्कि इन दोनों के मध्य जो है, वही अनासक्ति है |
अनासक्ति – 28
आत्मा साक्षी है अर्थात आप स्वयं जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं, वह साक्षी है | साक्षी समस्त संसार और उसके कार्यकलापों को निरपेक्ष भाव से देखता है | साक्षी केवल स्वयं को नहीं देखता | जिस दिन वह स्वयं को देखने लग जायेगा उसे साक्षी से द्रष्टा होने में तनिक भी देर नहीं लगेगी | आत्मा साक्षी है, परमात्मा दृष्टा है | साक्षी कलाकार है, जो अभिनय तो करता है परन्तु अभिनीत पात्र से उसका कोई सरोकार नहीं रहता | दृष्टा रंगमंच का निर्माण करने वाला है | उसने रंगमंच का निर्माण कर दिया और उस पर स्वयं ही विभिन्न प्रकार के कलाकार बन कर अभिनय करने हेतु प्रस्तुत हो गया है, एकाकी अभिनय करने के लिए | कहने का अर्थ है कि वह स्वयं ही रंगमंच बन गया है और स्वयं ही कलाकार | इस प्रकार वह स्वयं को ही देख रहा है क्योंकि रंगमंच भी स्वयं का है और अभिनय करने वाला कलाकार भी वह स्वयं ही है | इसी कारण से उसे साक्षी न कहकर दृष्टा कहा जाता है अर्थात स्वयं को देखने वाला | अंततः मनुष्य का शरीर प्राप्त करने का हमारा उद्देश्य भी तो साक्षी से दृष्टा बनना है |
दृष्टा बनने का प्रयास करने से पूर्व साक्षी बनना होगा | इस मनुष्य शरीर के रहते-रहते साक्षी भी बन गए तो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी | परन्तु साक्षी होना अनासक्त होने के एक-एक सूत्र को समझकर अपनाने से ही संभव होगा | जिस दिन आप साक्षी-भाव में आ गए, समझ लो आप में अनासक्ति आ गयी और आप अनासक्त हो गए | एक बार के लिए विरक्त हो जाना सबसे सरल है परन्तु सदैव के लिए विरक्त बने रहना सबसे कठिन | आसक्ति की जब अति हो जाती है, तब व्यक्ति विरक्ति की तरफ मुड़ जाता है परन्तु यह विरक्ति इसलिए अस्थायी रहती है क्योंकि इन्द्रियों को बल पूर्वक दबाया गया है, सोच-समझ कर नियंत्रित नहीं किया गया है | अति आसक्ति जब दुखदायी हो जाती है, तब व्यक्ति अस्थायी रूप से विरक्ति की तरफ चला जाता है | प्रत्येक भोग प्रारम्भ में अमृत तुल्य प्रतीत होता है परन्तु अंत में दुःख देने वाला ही होता है | यह बात हम अल्प समय के लिए तो समझ लेते हैं परन्तु उसी भोग के पुनः सामने आते ही इस बात को विस्मृत कर बैठते हैं |
भीतर काम-भोग का भाव जीवित है और ऊपर से दिखावा कर रहे हैं, काम को जीत लेने का | देव ऋषि नारद ने भी एक बार काम को जीत लिया था परन्तु उस काम विजय का उन्हें अभिमान हो गया था | परमात्मा की इच्छा नहीं थी कि उनका भक्त पतन की राह पर अग्रसर हो | उन्होंने देवर्षि को पतन से बचाने के लिए कुछ लीला की | देवर्षि नारद के समक्ष काम-भोग की परिस्थितियाँ बनते ही भीतर दबा काम-भाव पुनः सतह पर आ गया | हम तो साधारण मानव है, हमें कौन रोकेगा; पतन से | हमारे समक्ष एक ही रास्ता है, आसक्ति से बचें और अनासक्त हो जाएँ | इसलिए अनासक्ति के प्रत्येक सूत्र पर चलते हुए बिना किसी अहंकार के साक्षी-भाव को उपलब्ध हो जाएँगे, तभी अनासक्त हो पाएंगे अन्यथा नहीं |
अनासक्ति – 29
अब प्रश्न यही उठता है कि अनासक्ति और विरक्ति दोनों में से कौन अधिक महत्वपूर्ण है अर्थात हमें विरक्त होना चाहिए अथवा अनासक्त ? विरक्ति और अनासक्ति दोनों ही महत्वपूर्ण है और दोनों ही आपके उत्थान में सहायक | अगर मुझे इन दोनों में से किसी एक को चुनने का कहा जाये तो मैं अनासक्ति का चुनाव करूँगा | क्यों ?
इस बात को स्पष्ट करने के लिए पहले एक कहानी सुनाता हूँ | एक विरक्त तपस्वी ने कई वर्षों तक तप किया, मोक्ष प्राप्ति के लिए | आखिर एक दिन उसका भौतिक शरीर छूटा और जीवात्मा पहुँच गया धर्मराज के यहाँ | धर्मराज ने उसके कर्मों का लेखा-जोखा देखकर उसे स्वर्ग ले जाने का आदेश दिया | जीवात्मा तो मोक्ष चाहता था अतः उसने प्रतिवाद किया | जीवात्मा ने कहा कि ‘मैंने बहुत काल तक तप किया है, मैं तो मोक्ष का अधिकारी हूँ |’ धर्मराज ने कहा, ‘बिलकुल सत्य है कि आपने कठोर तप किया है परन्तु केवल कठोर तप आपको मोक्ष नहीं दिलवा सकता | इन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करने और कर्म करने के स्थान पर आपने उनको दबाकर, उनका दमन करते हुए तप किया है | आपने स्वयं के लिए इतना सब कुछ किया है, जबकि यह शरीर परमात्मा ने आपको संसार की सेवा करने के लिए, परमार्थ के लिए दिया है, न कि केवल स्वयं की स्वार्थ-सिद्धि के लिए | अगर आपको मोक्ष ही प्राप्त करना है तो इसके लिए सर्वप्रथम आप स्वर्ग को भोगिये और फिर मनुष्य योनि प्राप्त कर संसार की सेवा कीजिये | तभी आप मोक्ष प्राप्त करने के अधिकारी बन पायेंगे |’
अध्यात्म-पथ पर अग्रसर प्रत्येक व्यक्ति की ऐसी ही स्थिति है | संसार की सेवा करने का विचार त्यागकर केवल इन्द्रियों को दबाने में लगे हुए हैं और इन्द्रियां है कि दबती ही नहीं है | ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज कहा करते थे ‘संसार की सेवा करो और पिंड छुडाओ |’ सुनने में बड़ी साधारण सी बात लगती है परन्तु बड़ा गूढ़ सार है इस बात में | इन्द्रियां दबती नहीं है और हमसे दबेगी भी नहीं | ऐसे में विरक्त होना छोड़ कर इन्द्रियों का समुचित उपयोग करते हुए संसार की निस्वार्थ भाव से सेवा करने में लग जाओ, अनासक्ति स्वयं ही आ जाएगी | भगवान श्री कृष्ण भी गीता में यही बात कहते हैं कि कर्म न करने से; कर्म करना उचित है |(गीता-3/8)| एक मनुष्य के लिए विरक्त होने से अच्छा है कि वह संसार की सेवा करने के लिए अनासक्त होकर कर्म करे |
अनासक्ति – 30 -
आसक्ति का कैसा प्रभाव होता है, यह आप स्वयं ही देख लीजिये | ‘अनासक्ति’ विषय पर लिखने की मेरी इतनी अधिक आसक्ति हो गयी है, जो एक छोटे से लेकिन महत्वपूर्ण विषय को स्पष्ट करने के लिए इतना अधिक विस्तार दे दिया है | इसी प्रकार जब हम किसी भोग को एक बार भोग लेते हैं, तब उसको बार-बार भोगने की इच्छा जाग्रत होकर बढ़ती जाती है | यह बार-बार भोग प्राप्त करने के लिए मनुष्य का कर्म करने को विवश होना ही आसक्ति है | एक बार त्याग पूर्वक भोगना अर्थात मन में बार-बार भोगने की इच्छा नहीं रखना ही हमें आसक्ति से दूर रख सकता है |
इस श्रृंखला का समापन करने से पहले मैं आपको पुनः उसी दृष्टान्त की ओर लिये चलता हूँ, जिसमें तीन बौद्ध भिक्षुक भिक्षा प्राप्त करने के लिए एक गाँव की ओर जा रहे होते हैं | गाँव में प्रवेश करने से पहले एक नदी को पैदल ही पार करना पड़ता है क्योंकि पार जाने के लिए नदी के इस किनारे पर नाव आदि की कोई व्यवस्था नहीं है | नदी के किनारे पर बैठी सुकुमारी की हिम्मत नहीं हो रही है, बिना किसी सहारे के नदी को पार करने की | वह एक-एक कर प्रत्येक बौद्ध भिक्षु से हाथ पकड़ कर नदी पार करने का आग्रह करती है | पहला भिक्षुक विरक्त है, उस पर उस कन्या की अनुनय-विनय का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह उसको अनदेखा कर अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाता है | दूसरा भिक्षुक उस कन्या की बात को सुनता और समझता तो है परन्तु वह साधना-पथ पर है और मानता है कि एक लड़की का हाथ पकड़ने से उसके भीतर काम-भाव जाग्रत हो सकता है | वह तो इन्द्रियों के दमन करने में लगा हुआ है | वह इस कन्या के आग्रह को साधना-मार्ग से विचलित करने का एक प्रलोभन समझता है और वह उस प्रलोभन के जाल में फंसना नहीं चाहता है | वह उस कन्या की विनती को ठुकरा देता है | तीसरा भिक्षुक उस कन्या की विनती को स्वीकार करता है और उसका हाथ पकड़ कर उसे भी नदी पार करवा देता है | नदी के उस पार जाकर वह उसका हाथ छोड़ अपने रास्ते चल देता है और उस घटना को पुनः याद ही नहीं करता है, परन्तु दूसरा भिक्षुक वह दृश्य भूला नहीं पाता है | उस भिक्षुक को वह दृश्य बार-बार याद आता है और वह उस दृश्य में तीसरे भिक्षुक का पतन देखता है |
प्रश्न यह उठता है कि इन तीनों भिक्षुओं में कौन सा भिक्षु सही मार्ग पर है | सतही तौर से देखा जाये तो तीनों भिक्षुक ही सही हैं परन्तु आसक्त भिक्षु अर्थात दूसरे भिक्षु को इन्द्रियों का दमन करने के स्थान पर उनका उचित उपयोग करना चाहिए अथवा प्रथम भिक्षुक की तरह विरक्त हो जाना चाहिए | प्रथम भिक्षु का विरक्त होना उचित है परन्तु यह विरक्ति स्वयं के स्वार्थ के लिए है | स्वयं की स्वार्थ-पूर्ति के लिए किया गया कार्य केवल कर्म-योग से विमुख होना ही प्रदर्शित करता है | कर्म-योग से विमुख होना परमात्मा के द्वारा दिए गए मानव शरीर का अपमान करना है | मनुष्य को यह भौतिक शरीर कर्म करने के लिए ही दिया गया है | साथ ही साथ यह आवश्यक है कि इस शरीर से कर्म भी निस्वार्थ भाव से केवल संसार की सेवा के लिए ही किये जाएँ |
इतने विवेचन के बाद हम पाते हैं कि केवल तीसरे और अंतिम भिक्षुक ने ही भगवान बुद्ध का सही मार्ग अपनाया है – ‘मंझिम निकाय’, इन्द्रियों का समुचित उपयोग करते हुए कर्म करना | न आसक्ति और न ही विरक्ति बल्कि अनासक्त होकर कर्म करना | भगवान श्री कृष्ण भी गीता में अर्जुन को यही बात कह रहे हैं -
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेSर्जुन |
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ||गीता-3/7||
अर्थात हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |
अनासक्ति – 31 (सार-संक्षेप )-
अंत में हम आसक्ति को छोड़कर अनासक्ति की ओर लौटते हुए संक्षेप में इस श्रृंखला से निकले सार को बताते चलते हैं | जितनी अधिक आसक्ति होती है, व्यक्ति व्यथित होकर उतनी ही अधिक विरक्ति की और चला जाता है | परन्तु यही विरक्ति जब व्यक्ति को स्वयं के अकेले पड़ जाने के रूप में खलती है, तब वह पुनः उतनी ही अधिक आसक्ति की ओर चला जाता है | यही मनुष्य के सुख-दुःख का कारण है | एक गृहस्थ जीवन भी इसी प्रकार आसक्ति और विरक्ति के मध्य एक दोलक की तरह दोलन करता रहता है, मध्य में रूक नहीं पाता | मध्य में रुकने के सूत्र जो इस श्रृंखला में मंथन के उपरांत निकल कर सामने आये हैं, वे हैं -
प्रथम सूत्र – निष्ठा पूर्वक कर्तव्य कर्म को करते रहना |
दूसरा सूत्र – किसी में भी दोष न देखना |
तीसरा सूत्र – ‘मैं और मेरा’ की भावना का त्याग |
चौथा सूत्र – संतुष्टि पूर्ण जीवन |
पांचवां सूत्र – सहिष्णुता, विरोध को सहन करना |
छठा सूत्र – कामनाओं पर नियंत्रण रखना |
सातवाँ सूत्र – साक्षी-भाव |
इन सात सूत्रों से एक ही अभिप्राय है, मन पर नियंत्रण | केवल सात ही क्यों, अगर हम अधिक गहराई से और सूक्ष्म रूप से विश्लेषण करें तो कुछ और सूत्र भी निकल कर सामने आ सकते हैं | इनमें से किसी एक सूत्र को आत्म-सात करते हुए आसक्ति से स्वयं को दूर रखा जा सकता है | एक सूत्र से सभी सूत्र जुड़े हुए हैं | किसी भी एक सूत्र को पकड़ लेने से समस्त सातों सूत्र सध जाते हैं, ऐसा मेरा मानना है | एक गृहस्थ को न तो आसक्त होना चाहिए और न ही विरक्त | उसके लिए मध्यम मार्ग ही उपयुक्त है | अनासक्ति अर्थात पूर्व जन्म के संस्कारों से मिलने वाले इन्द्रियों के सुख को त्याग-पूर्वक भोगना, उन भोगों के प्रति आसक्त नहीं होना और न ही उन भोगों से डर कर दूर भाग कर विरक्त होना | समस्त इन्द्रियों का समुचित उपयोग करते हुए संसार की सेवा करें और आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हों, वास्तविक अनासक्ति यही है |
आप सभी का साथ बने रहने पर आभार |
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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