भज गोविन्दम् – श्लोक
सं,-27-
गेयं गीता नाम
सहस्रं ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम् |
नेयं सज्जन संगे
चित्तं, देयं दीनजनाय च वित्तम् ||27||
अर्थात भगवान विष्णु
के एक हज़ार नामों को गाते हुए उनके सुन्दर रूप का अनवरत ध्यान करो | संतों के साथ
सत्संग करने में अपने मन को लगाओ और अपने धन से गरीब की सेवा करो |
यह श्लोक शंकराचार्य जी महाराज के साथ
चल रहे 14 वें शिष्य द्वारा कहा गया है | इस शिष्य ने संसार से ध्यान हटाकर
परमात्मा का ध्यान करने का कहा है | संसार का ध्यान व्यक्ति को संसार में ही
भटकाता रहता है जबकि परमात्मा का ध्यान हमें संसार के सभी बंधनों से मुक्त करता है | सांसारिक बंधनों से मुक्त होने का सरलतम उपाय यही है | इसीलिए इस
श्लोक में कहा गया है की सदैव विष्णुसहस्रनाम का गायन करो | विष्णु भगवान के एक
हज़ार नामों के अनुसार उसके सुन्दर रूप का ध्यान करो | एक हरि ही सुन्दर है, संसार
सुन्दर दिखलाई अवश्य पड़ता है परन्तु सुन्दर है नहीं | ब्रह्मलीन स्वामी
रामसुखदासजी महाराज कहा करते थे-
‘है’ सो सुन्दर है
सदा, ‘नहीं’ सो सुन्दर नाहीं |
‘नहीं’ को प्रगट
देखिये, ‘है’ सो प्रगट नाहीं ||
स्वामी जी कहते थे कि जो सुन्दर है, वही सदैव सुन्दर होगा और जो सुन्दर
नहीं है, वह कभी भी सुन्दर नहीं हो सकता | जो सुन्दर है, वह तो दृश्यमान नहीं है
परन्तु जो सुन्दर नहीं है, वह हमें छद्म रूप से सुन्दर दिखाई पड रहा है | वास्तव
में संसार सुन्दर है ही नहीं परन्तु हमारा इस संसार के प्रति मोह इतना अधिक है कि
वह सुन्दर न होते हुए भी सुन्दर दिखलाई पड़ रहा है | इस प्रकार छद्म रूप से सुन्दर
दिखलाई देना ही संसार का आकर्षण है और इस आकर्षण में फंसकर मनुष्य इसके बंधन में पड
जाता है | बंधन से मुक्त भी वह इसीलिए नहीं हो पाता क्योंकि वह सुन्दर न होने के
बावजूद भी सदैव उसे सुन्दर ही नज़र आता रहता है | हमें छद्म रूप से सुन्दर नज़र आने
वाले संसार को छोड़कर उस वास्तविक रूप से सुन्दर गोविन्द को भजना चाहिए जो हमें इस
संसार के बंधन से मुक्त कर सकता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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