Sunday, December 3, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-28

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-28-
             भज गोविन्दम् में अब शंकराचार्य महाराज अपने सभी शिष्यों के मुख से निकले 14 श्लोक सुनकर आगे के चार श्लोक कहकर अपनी इस कृति का समापन कर रहे हैं | इस कृति के 28 वें श्लोक से 31 वें श्लोक आदि गुरु ने भज गोविन्दम् के सारांश के रूप में कहे हैं | 28 वें श्लोक में वे कह रहे हैं -
सुखतः क्रियते रामाभोगः, पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः |
यद्यपि लोके मरणं शरणं, तदपि न मुंचति पापाचरणम् ||28||
अर्थात सुख के लिए हम विषय भोग करते है, जिसकी अति हो जाने से हमारा शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है | यद्यपि इस पृथ्वी पर सबका मरण निश्चित है फिर भी हम पापमय आचरण करना नहीं छोड़ते हैं |
              आदिकाल से ही मनुष्य सांसारिक विषय-भोग में सतत लगा हुआ है | उन विषय-भोगों को भोगने में वह इस प्रकार डूबा रहता है कि उसे यह भी ज्ञान नहीं रहता कि भोगों की अति उसके शरीर को रोगग्रस्त किये जा रही है | प्रत्येक भोग किसी न किसी रोग को जन्म अवश्य ही देता है | बिना रोग के परिणाम के कोई भी भोग है ही नहीं | शंकराचार्य महाराज कह रहे हैं कि मृत्यु इस संसार का शाश्वत सत्य है परन्तु मृत्यु को आमंत्रित करना कहाँ तक उचित है ? भोग को भोगना व्याधि को आमंत्रित करना है और व्याधि ही मनुष्य को मृत्यु के द्वार तक ले जाती है | व्याधि के बिना भी शरीर की मृत्यु होना निश्चित है | व्याधि से पीड़ित शरीर कभी भी अपने अतिरिक्त किसी अन्य विषय पर विचार ही नहीं कर सकता |
           मनुष्य को यह शरीर मिला है, परमात्मा को पाने के लिए | जहाँ से वह आया है, अपने उस मूल स्रोत तक पुनः लौट जाने के लिए | इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए शरीर का स्वस्थ रहना आवश्यक है | रोगग्रस्त शरीर कभी भी परमात्मा का स्मरण नहीं कर सकता | इस शरीर का मरना निश्चित है | हमारे हाथ में केवल इस शरीर को रोग से नहीं मरने देना है | इसके लिए सभी विषय-भोगों की अति से स्वयं को बचाना होगा | शरीर जब स्वस्थ होगा तभी हम गोविन्द को भज सकते हैं अन्यथा परमात्मा के भजन में मन का लगना असंभव है | भोग भोगना किसी भी प्रकार अनुचित नहीं है परन्तु इन्हें त्याग पूर्वक भोगना ही उचित है | जब भोगों को त्याग पूर्वक नहीं भोग जाता है और उनमें आसक्ति हो जाती है तब वह पापाचरण की श्रेणी में आ जाता है | पापाचरण मनुष्य के शरीर को रोगग्रस्त कर मृत्यु की और ले जाता है |अतः हमें भोगों की अति न कर पापाचरण से बचना चाहिए |     
        जिस शरीर का हम इतना ख्याल रखते हैं और उसके द्वारा तरह-तरह की भौतिक एवं शारीरिक सुख पाने की चेष्टा करते हैं, वह शरीर एक दिन नष्ट हो जायेगा | मृत्यु आने पर हमारा सजावटी शरीर मिट्टी में मिल जायेगा | फिर क्यों हम व्यर्थ की बुरी आदतों में फंसते हैं |
“|| भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं.-29
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

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