भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.-31-
गुरुचरणाम्बुज
निर्भर भक्तः, संसारादचिराद्भव मुक्तः |
सेन्द्रियमानस नियमादेवं
द्रक्ष्यसि निज ह्रदयस्थं देवम् ||31||
अर्थात गुरु के
चरण-कमलों का आश्रय मानने वाले भक्त बनकर सदैव के लिए इस संसार में आवागमन से
मुक्त हो जाओ | इस प्रकार मन और इन्द्रियों का निग्रह कर अपने ह्रदय में विराजमान
प्रभु (परमात्मा) के दर्शन करो |
यह श्लोक भज गोविन्दम् में
शंकराचार्य महाराज द्वारा कहा गया अंतिम और महत्वपूर्ण श्लोक है | आदि गुरु ने जो भी बात इस सम्पूर्ण प्रकरण में कही है, उसको मूर्त रूप
देने के लिए यह श्लोक कहा गया है | व्यक्ति चाहे जितना ज्ञान, शास्त्रों से
प्राप्त कर ले, गुरु का मार्गदर्शन उसके लिए फिर भी आवश्यक है | गुरु हमें
शास्त्रों में वर्णित ज्ञान को सिद्ध कर के दिखाता है | विज्ञान की समस्त पुस्तकों
में आपको संसार का ज्ञान मिल जायेगा लेकिन प्रयोगशाला में ही उस ज्ञान को सिद्ध
किया जा सकता है | गुरु प्रयोगशाला चलाने वाला वह शिक्षक है, जो आत्म-ज्ञान प्राप्त
कर सिद्ध हो चूका है | इसलिए अगर हमें भी सिद्ध होना है, तो एक आदर्श साधक बन कर
गुरु के चरण कमलों का आश्रय लें | प्रभु के आदर्श भक्त बनकर उसको भजें | केवल यही
एक मार्ग है, जो हमें संसार के आवागमन से मुक्त कर सकता है |
संसार के आवागमन से मुक्त होने के लिए
हमें अपनी आसक्तियो पर अंकुश लगाना होगा | आसक्ति पैदा होती है, विभिन्न प्रकार के
भोगों में रत रहने के कारण | शरीर भोग उपलब्ध करवाता है, मन और इन्द्रियों के
माध्यम से | इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भोग के प्रति आसक्ति का त्याग मन और
इन्द्रियों के निग्रह से ही संभव है | मन और इन्द्रिय-निग्रह प्रभु का ध्यान करने
से ही संभव है | गुरु इस निग्रह को संभव बनाने में हमें निर्देशित करता है | इसलिए
गुरु के चरण कमलों का आश्रय इस मार्ग पर सुगमता से आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है |
हमें अपने गुरु के कमल रुपी चरणों में शरण
लेनी चाहिए | तभी हमें मोक्ष की प्राप्ति होगी | यदि हम अपनी इन्द्रियों और अपने
मस्तिष्क पर संयम रख लें तो हमारे अपने ही ह्रदय में हम ईश्वर को महसूस कर पाएंगे |
“|| भज गोविन्दं भज
गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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