गीता-ज्ञान की सार्थकता – 6
आहार प्राप्ति के लिए एक
प्राणी द्वारा दूसरे प्राणी को शिकार बनाना उनकी प्रकृति है | इसमें किसी प्रकार की हिंसा नहीं है | इसमें हिंसा हम
मनुष्यों को इसलिए प्रतीत होती है क्योंकि हम मानते हैं कि स्वयं के आहार के लिए
दूसरे जीव के जीने के अधिकार को छीन लेना एक प्रकार की हिंसा ही है | एक मेंढक
छोटे-मोटे कीड़ों का शिकार करता है और वही मेंढक स्वयं एक सर्प का भोजन बन जाता है |
इसी प्रकार एक सांप भी बाज, चील आदि पक्षियों का शिकार है | एक बड़ी मछली का भोजन
समुद्र में तैर रही छोटी मछलियाँ ही होती है | इस प्रकार की कथित हिंसा में न तो
कोई अपराधी है और न ही कोई पीड़ित | एक प्राकृतिक नियम के अनुसार सब एक दूसरे का
आहार बनते हैं | ‘जीवो जीवस्य भोजनम्’ अर्थात जीव ही जीव का भोजन है | एक शेर जब
मृग का शिकार आहार के लिए करता है, तब उसके भीतर किसी प्रकार की हिंसा का भाव नहीं
होता | वह तो अपनी भूख मिटाने के लिए यह सब कर रहा होता है | क्षुधा की तृप्ति के
लिए शेर के सामने चाहे मृग आये अथवा भैंस; उसको तो वह केवल आहार नज़र आता है | एक बार शिकार कर लेने के बाद चाहे उसके सामने मृग
आये अथवा अन्य कोई जानवर, उसके भीतर किसी प्रकार की इच्छा उत्पन्न नहीं होती कि वह
उसका शिकार करे | ‘बुभुक्षितः किम् न करोति पापम्”, यह उक्ति यही स्पष्ट करती है कि भूखा प्राणी अपनी क्षुधा
शांत करने के लिए किसी भी प्रकार का पाप (हिंसा) कर सकता है |
यह तो हुयी मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों की बात | परन्तु मनुष्य इन
सब प्राणियों से अलग है | वह बुद्धिमान और विवेकी है | मनुष्य के अनुसार आहार प्राप्ति
के लिए की जाने वाली भी हिंसा दो प्रकार की होती है | एक जीव को स्वयं की क्षुधा शांत
करने के लिए आहार बनाना पहली प्रकार की
हिंसा है | दूसरे प्रकार की हिंसा है स्वयं की भूख मिटाने के लिए येन केन प्रकारेण
किसी दूसरे के आहार को छीनने का प्रयास करना | पहली प्रकार की हिंसा में एक जीव
दूसरे जीव को मारकर उससे अपनी भूख मिटाता है जबकि दूसरे प्रकार की हिंसा में वह
प्राणी किसी दूसरे प्राणी से आहार छीनने का प्रयास करता है | इस प्रकार छीनने के
प्रयास में एक प्राणी अपराधी (Accused) बन जाता
है और दूसरा प्राणी पीड़ित (Victim) हो जाता है, जबकि इसके विपरीत पहली प्रकार की हिंसा में न
कोई अपराधी होता है और न ही कोई पीड़ित | इस प्रकार हम विवेकवान मनुष्य समझ सकते
हैं कि किसी एक जीव का दूसरे जीव को आहार बनाना उसके लिए हिंसा नहीं है बल्कि
हिंसा होती है किसी दूसरे के आहार को स्वयं की उदर पूर्ति के लिए छीनने का प्रयास
करना | हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि एक के अधिकार को छीनने का प्रयास जो कोई भी
करता है, उसको रोकने का प्रयास करना | महाभारत में भगवान श्री कृष्ण यही बात
अर्जुन को कह रहे हैं | पांडवों का अधिकार कौरवों ने छीन लिया था जो कि अनुचित था |
इसी कारण से भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों को पुनः अपना अधिकार प्राप्त कर लेने के
लिए अंतिम विकल्प के रूप में युद्ध करने का सुझाव दिया था |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
ईश्वर ने जीव जीवस्य भोजनं की हिंसक व्यवस्था कयू बनाई एक हिरण को शेर तड़फा कर खा जाता है तब ईश्वर की दया कहा है ।।
ReplyDeleteपूरी भोजन व्यवस्था असहज अशांत हिंसक है फिर कयू कहते है ईश्वर शांति दया का सागर है कृपया उत्तर डॉजियेगा