Monday, March 12, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 10


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 10
                   आत्म-ज्ञान प्राप्त करके ही अभय हुआ जा सकता है | भय से मुक्ति ही व्यक्ति को शांति उपलब्ध करवा सकती है | कहने का अर्थ है कि मनुष्य को ज्ञान अभय करता है जबकि अज्ञान भय और दुःख प्रदान करता है | ज्ञान प्राप्ति की भी एक प्रकार की भूख होती है परन्तु यह भूख भोजन से नहीं मिटती बल्कि भजन से मिटती है | ज्ञान की भूख-प्यास को मिटाने के लिए मनुष्य में लगन का होना आवश्यक है | ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहा करते थे कि परमात्मा-प्राप्ति के लिए व्यक्ति में लगन का होना सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक है | वे कहा करते थे कि अगर आपमें लगन (Devotion) है तो फिर परमात्मा आपको प्राप्त होकर ही रहेंगे | ये संत भी कभी-कभी बड़ी विलक्षण (Remarkable) बातें कह जाते हैं | कब, कहाँ और कैसी बात कह जाते हैं कि हमारे जैसे व्यक्ति सोच में पड़ जाते हैं कि उनके कहने का मंतव्य क्या है ? अपने प्रातःकालीन उद्बोधन में हरिः शरणम् आश्रम बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा सदैव ही संत-वाणी के अंतर्गत स्वामी जी के प्रवचनों का विवेचन कर समझाने का प्रयास करते हैं | उस समय तो वह बात स्पष्ट हो जाती है परन्तु कुछ समय बाद स्मृति से बाहर हो जाती है |
                      एक ओर तो स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि लगन हो तो परमात्मा भी मिल सकते हैं और दूसरी और वे ही संत कहते हैं कि परमात्मा खोए हुए कहाँ है, जो मिल जायेंगे वे तो पहले से ही मिले हुए है | जब सुनते हैं तो लगता है कि दोनों बातों में बहुत विरोधाभास हैं | नहीं, विरोधाभास बिलकुल भी नहीं है | ‘परमात्मा मिल सकते हैं’, यह कहना हमारी उस अवस्था को प्रदर्शित करता है जब हमें ज्ञान नहीं हुआ है और हम आत्म-ज्ञान के लिए प्रयास कर रहे हैं | ‘परमात्मा खोए कब हैं, वे तो पहले से ही मिले हुए हैं’, इस कथन का अर्थ है कि परमात्मा हमारे भीतर ही हैं | आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाने के बाद ही हमें आभास होता है कि जिसके मिलने के लिए हम प्रयास कर रहे थे वे तो पहले से ही मिले हुए हैं | पहली अवस्था उस कृष्ण-मृग की अवस्था है, जो स्वयं की नाभि में ही स्थित कस्तूरी को बाहर जंगल में घास को सूंघ-सूंघ कर ढूंढ रहा है और उसे वह नहीं मिल रही है | दूसरी अवस्था में बाहर की खोज बंद कर दी जाती है और विश्राम की अवस्था को प्राप्त कर लिया जाता है | विश्राम की अवस्था का नाम ही आत्म-ज्ञान है, जहाँ पहुंचकर व्यक्ति को अपने सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाते है, उसके मन में कोई प्रश्न शेष नहीं रहता | उसे भली-भांति अनुभव हो जाता है कि जिसको वह बाहर ढूंढ रहा था वह तो उसके भीतर पहले से ही मौजूद है, केवल स्वयं के भीतर ही नहीं सब जगह उपस्थित है, सार्वभौमिक है, सर्वदेशीय है | उसमें और परमात्मा में कोई भिन्नता है ही नहीं , फिर कौन तो ढूंढें और किसको ढूंढें ?
                            आत्म-ज्ञान की स्थिति में व्यक्ति स्वयं के होने की स्मृति को पुनः प्राप्त कर लेता है | मोह वश वह अपनी स्मृति खो बैठा है, इतने दिनों तक स्वयं को एक शरीर मान बैठा था परंतु मोह के नष्ट होते ही स्मृति प्राप्त कर वह अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हो जाता है | केवल प्रश्न यही है कि वह इस बात को अपनी स्मृति में कब तक बनाये रख पाता है ?
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ .प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

1 comment:

  1. स्वयं से स्वयं को जाने की यात्रा ही आत्म बोध है जो बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है |

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