गुण-कर्म विज्ञान –
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हमें स्वयं
को क्यों जानना चाहिए ? यह प्रश्न सदैव ही मुझसे पूछा जाता है | इसका एक ही उत्तर
है | हम स्वयं को एक शरीर समझते हैं और शरीर एक पदार्थ है जबकि हम पदार्थ नहीं हैं
| इस प्रकार अपरोक्ष रूप से कहा जा सकता है कि हम मात्र एक शरीर नहीं है | हम से
ये पदार्थ है, हमारे लिए यह पदार्थ हैं अतः यह शरीर हमारे लिए है और हमसे यह शरीर है
परन्तु हम केवल इस शरीर के लिए नहीं हैं | अतः हम स्वयं क्या हैं, यह जानना आवश्यक
हो जाता है | हम शरीर को चेतन करने वाले वह चैतन्य हैं, जो शरीर के माध्यम से व्यक्त
होता है | वास्तव में यह शरीर दृश्यमान है और हम दृष्टा अर्थात चैतन्य | जबकि हम
दृश्य को देखकर स्वयं को भी दृश्यमान समझ बैठें हैं | ऐसे में हम दृष्टा हुए न कि
दृश्य | चैतन्य के कारण ही दृश्य है, बिना चैतन्य के दृश्य का सदैव अभाव है |
गीता में भगवन श्री कृष्ण कहते हैं –
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे
योगमैश्वरम् |
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा
भूतभावनः || गीता-9/5 ||
अर्थात वे सभी भूत (प्राणी)
मुझ में स्थित नहीं हैं, किन्तु मेरी ईश्वरीय योग शक्ति देख कि भूतों का भरण-पोषण
करने वाला मेरा आत्मा वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है |
यहाँ जिसे ‘मेरा आत्मा’ कहकर
परमात्मा ने जिसे सम्बोधित किया है, वही चैतन्य हम हैं | किसी भी शरीर को चैतन्य
करने के लिए उसे आत्मा का साथ मिलना आवश्यक है परन्तु उस शरीर में आत्मा स्थित होकर
नहीं रह सकता है | जो कहीं पर भी स्थित हो सकता है वह दृश्यमान भी होता है जबकि
आत्मा अदृश्य है और अदृश्य कभी भी स्थित नहीं रह सकता | हम वही आत्मा हैं, जो दृश्य
के साथ रहकर दृष्टा तो बन सकती है परन्तु दृश्य कभी नहीं | अतः हम क्या हैं, इसका
ज्ञान होते ही हमारी इस शरीर में आसक्ति भी समाप्त हो जाती है और हमें अपने होने
का ज्ञान हो जाता है | इस तथ्य को जान लेना ही ‘आत्म-ज्ञान’ हो जाना है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
आत्म ज्ञान कितना सरल एंव कठिन है । ब्लॉग से जाना । अति उत्तम ब्लॉग । हमारा ज्ञान बढाने वाला है । साधुवाद । डाॅक्टर मुकेश राघव ।
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