गुण-कर्म विज्ञान –
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आयुर्वेद, जो कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का आधार है, कहता
है कि शरीर के प्रत्येक रोग के लिए प्रकृति के तीन गुण ही जिम्मेवार होते हैं | जब
इन तीन गुणों का संतुलन बिगड़ जाता है तब व्यक्ति रोग ग्रस्त हो जाता है | इन तीन
गुणों में पैदा हुए असंतुलन को हम दोष कह देते हैं जैसे कफ-दोष, वात-दोष और पित्त-दोष
| कफ़ प्रकृति के भौतिक गुण से सम्बंधित है, वात विद्युतीय गुण से सम्बन्धित है
जबकि पित्त रासायनिक गुण से सम्बंधित है | आयुर्वेद कहता है कि जब कोई एक गुण बढ़ता
है अथवा कम हो जाता है तब इसे ‘इन गुणों में कोई दोष उत्पन्न हो गया है’ ऐसा कहा
जाता है | ऐसी परिस्थिति पैदा होने पर शरीर में किसी न किसी रोग का जन्म अवश्य होता
है | अतः शरीर की निरोग अवस्था के लिए प्रकृति के तीनों गुणों में आपसी संतुलन
होना आवश्यक है | तीनों गुणों के मध्य असंतुलन पैदा हो जाने से ही व्यक्ति अस्वस्थ
हो जाता है | किसी भी एक दोष के दीर्घ अवधि तक बने रहने के कारण यह दोष प्रकृति के
गुणों को स्थाई रूप से प्रभावित करते हुए उन्हें परिवर्तित कर देते हैं, जो आगे जाकर
नए जन्म में जन्म-जात रोग (Congenital diseases) व
वंशानुगत-रोग (Hereditary
diseases) के रूप में सामने
आते हैं |
विज्ञान के अनुसार जन्म-जात रोग
गर्भावस्था में माँ के विभिन्न प्रकार के विषाणुओं (Viruses) अथवा रसायनों (Chemicals) या घातक
क्ष-किरणों (X-Rays) व अन्य रेडियोधर्मिता (Radioactive) वाले
पदार्थों के संपर्क में आने से होते हैं | जबकि वंशानुगत-रोग जीन्स (Genes) में परिवर्तन हो जाने के कारण होते हैं |
विभिन्न गुण-सूत्रों (Chromosomes) पर स्थित
ये जींस (genes) कई प्रकार के कारणों से प्रभावित होकर
परिवर्तित हो जाते हैं जिस कारण से पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले रोग अस्तित्व में आ
जाते हैं | इसके अतिरिक्त जीवन में कभी-कभी जो रोग शरीर में अनायास ही उभर आते
हैं, उनके पीछे भी गुणों में तात्कालिक परिवर्तन हो जाना ही एक मात्र कारण है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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