गुण-कर्म विज्ञान –
30
जब हम शरीर न होकर आत्मा हैं, तो फिर हम
इस शरीर में स्थित मन भी नहीं हैं | शरीर हमारे कारण हैं अतः मन भी हमारे कारण ही
हुआ | मन सभी कर्मों का जनक है अन्यथा कर्म होने भी संभव नहीं होते | हमारे इस मन
से कर्म किस प्रकार संपन्न होते हैं ? आइये अब यह जानने का प्रयास करते हैं |
मन में उठ रही विभिन्न प्रकार की
कामनाएं और इच्छाएं (Desires) इसके चुम्बकीय
क्षेत्र को निरन्तर परिवर्तित करती रहती है | इस परिवर्तन से इन्द्रियां प्रभावित
होती है जिस कारण से उसके गुणों में उन इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए विभिन्न
प्रकार के भौतिक, रासायनिक और विद्युतीय परिवर्तन होकर अलग-अलग प्रकार के कर्म
संपन्न होते हैं | उदाहरण स्वरूप जिस किसी को स्वादिष्ट भोजन करने की कामना पैदा होती
है, उसकी स्वादेंद्रिय (Sense organ of taste) में
रासायनिक परिवर्तन होते हैं | उस रासायनिक परिवर्तन के कारण उसकी कर्मेन्द्रियों
में एक रसायन का स्राव होता है, जो उस व्यक्ति को पांवों से कर्म करवाते हुए मिष्ठान
उपलब्ध होने के स्थान तक ले जाता है | ज्योंही वह व्यक्ति मिष्ठान उदरस्थ करता है,
आमाशय व आँतों में उसके पाचन के लिए रासायनिक परिवर्तन होकर अम्ल और विभिन्न प्रकार
के रस (enzymes) का
स्राव (Secretion)
होता है | पाचन (Digestion) के उपरान्त जब भोजन का रस खून में मिलता है तो
खून में रासायनिक परिवर्तन होता है और ग्लूकोज (Glucose) की मात्रा
बढ़ जाती है | इससे अग्नाशय (Pancreas) में
रासायनिक परिवर्तन होता है, जो इन्सुलिन (Insulin) का
स्राव बढा देते है | इन्सुलिन खून में मिलकर ग्लूकोज की मात्रा को नियंत्रण (Control) में कर
लेता है | यह प्रक्रिया आगे भी इसी प्रकार चलती है और यही ग्लूकोज गैलेक्टोज (Galactose) के रूप में यकृत (Liver) में
संचित हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment