गुण-कर्म विज्ञान –
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इस प्रकार यह संसार कर्म के कारण निरंतर
गतिमान बना रहता है | आत्मा विवश होकर चित्त के साथ एक शरीर से दूसरे शरीर में
भ्रमण करती रहती है | कर्म कभी भी नष्ट नहीं होते, उनका फल अवश्य ही प्राप्त होकर
रहता है | इस महत्वपूर्ण बात को गीता में स्पष्ट किया गया है | भगवान श्री कृष्ण से
उनके शिष्य अर्जुन पूछ रहे हैं-
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव
नश्यति |
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो
ब्रह्मणः पथि ||गीता-6/38||
अर्थात हे महाबाहो !
क्या भगवत प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रय रहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादलों की
भांति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता ?
इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन भगवान श्री कृष्ण
को पूछ रहा है कि कोई व्यक्ति किसी निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कर्म
कर रहा है और वह बीच में ही अपना मार्ग बदल लेता है अथवा वह अपना उद्देश्य अन्य
किसी कारण से उस जीवन में पूरा नहीं कर पाता तो क्या वह उस उद्देश्य को नए जन्म में
जाकर भूल जाता है और अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता ? उसके इस एक जन्म में
किये गए प्रयास व कर्म कहीं नष्ट तो नहीं हो जाते ? कर्म नष्ट होने का अर्थ है गुणों
का नष्ट हो जाना | गुण और कर्म एक दूसरे के पूरक हैं | अगर कर्म नष्ट होते हैं तो
फिर केवल गुणों के उपस्थित रहने का कोई औचित्य नहीं है | कर्म नष्ट हो जाने का अर्थ
है, व्यक्ति का नष्ट हो जाना | जब कर्म और गुण दोनों ही नष्ट हो जाते हैं तो फिर
आत्मा जीवात्मा से मुक्त हो गई, समझो | ऐसे में संसार-चक्र का थम जाना निश्चित है परन्तु
सामान्य परिस्थितियों में ऐसा होना संभव नहीं है | ऐसे में अर्जुन का यह प्रश्न
करना उचित ही है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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