गुण-कर्म विज्ञान -28
अब प्रश्न यह उठता है कि मन, गुणों
में परिवर्तन किस प्रकार करवा देता है ? शरीर में स्थित मन का अपना एक चुम्बकीय
क्षेत्र होता है और बुद्धि का अपना | इन दोनों के चुम्बकीय क्षेत्र एक दूसरे को
प्रभावित करते रहते हैं जिससे कभी मन में परिवर्तन आ जाते हैं और कभी बुद्धि में |
बुद्धि का चुम्बकीय क्षेत्र सीधा शरीर को प्रभावित न करके उसे मन के माध्यम से ही प्रभावित
कर सकता है | जीवात्मा में स्थित आत्मा का चुम्बकीय क्षेत्र न तो शरीर को प्रभावित
करता है और न ही मन व बुद्धि को अर्थात वह उदासीन अवस्था में रहता है, हालाँकि मन का चुम्बकीय क्षेत्र, आत्मा और शरीर दोनों के चुम्बकीय क्षेत्रों के प्रभाव से ही
निर्मित होता है | इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि मन केवल शरीर को ही प्रभावित
कर सकता है, आत्मा को नहीं क्योंकि आत्मा का क्षेत्र उदासीन है | जड़ का चुम्बकीय
क्षेत्र जड़ को ही प्रभावित कर सकता है, चेतन को नहीं | इसी प्रकार जड़ तत्व होने के
कारण मन को बुद्धि प्रभावित करती है और बुद्धि को मन | इस जड़ शरीर के अंतर्गत ही
मन और बुद्धि दोनों आ जाते हैं परन्तु मन मनुष्य में अधिक सक्रिय रहता है क्योंकि
जीवात्मा के साथ पूर्वजन्म से आया चित्त अपने सभी गुण जन्म के समय शरीर में स्थित
मन को तत्काल स्थानांतरित कर देता है | मन और बुद्धि में बुद्धि अधिक सूक्ष्म और श्रेष्ठ
है, जिसके कारण बुद्धि का मन पर प्रभाव होना चाहिए परन्तु जीवात्मा में स्थित मन
आत्मा के संग होने के कारण अधिक सक्रिय होकर मन को बुद्धि पर प्रभावशाली बना देता
है | अतः हमें अपनी आत्मा और जीवात्मा में अंतर को भलीभांति समझ कर स्वयं (आत्मा) को
पहचानना चाहिए जिससे अपनी बुद्धि को विवेक बनाकर मन को नियंत्रित कर सकें | गीता
में बुद्धि को मन से श्रेष्ठ बताते हुए भगवान श्री कृष्ण ने बहुत ही सुन्दर रूप से
स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं
मनः |
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः
||गीता-3/42||
अर्थात इन्द्रियां स्थूल शरीर से श्रेष्ठ (Superior) है, इन
इन्द्रियों से मन श्रेष्ठ है मन से भी श्रेष्ठ बुद्धि है और बुद्धि से श्रेष्ठ
आत्मा है | कहने का अर्थ यह है कि शरीर इन्द्रियों के कहे अनुसार कर्म करता है,
इन्द्रियां मन के नियंत्रण में है और मन बुद्धि के नियंत्रण में होता है | परन्तु
इन सबके अतिरिक्त इस शरीर में जो आत्मा है वह सर्वश्रेष्ठ है | हमें कम श्रेष्ठ से
सर्वाधिक श्रेष्ठ की और जाना है अर्थात स्वयं को जानना है, अपनी आत्मा को पहचानना
है, अतः बुद्धि का सदुपयोग करते हुए मन को नियंत्रण में रखना चाहिए |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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