Monday, February 20, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 47

गुण-कर्म विज्ञान – 47
          ययाति-प्रसंग के यहाँ उल्लेख करने का मंतव्य केवल इतना मात्र ही नहीं है कि मैं आपको बता सकूँ कि हमारे सनातन-शास्त्र विज्ञान से कितने आगे की बात कहते हैं | इतना बताना तो केवल आत्मप्रशंसा करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होगा | मैं तो उससे भी आगे की बात कह रहा हूँ | ययाति के युवा होने के बाद जो परिस्थिति उनके समक्ष आई, वह युवावस्था प्राप्त करने से भी अधिक महत्वपूर्ण है | राजा ययाति श्रीमद्भागवत महापुराण में कहते हैं-
        न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति |
        हविषा  कृष्णवर्त्मेव   भूय  एवाभिवर्धते || भागवत – 9/19/14 ||
     अर्थात विषयों के भोगने से कभी काम-वासना शांत नहीं हो सकती बल्कि जैसे घी की आहुति डालने पर आग और अधिक भड़क उठती है, वैसे ही भोग वासनाएं भी भोगों से और अधिक प्रबल हो उठती है | इस बात का अनुभव जब ययाति को हो जाता है, तब उसके लिए पुरु से प्राप्त यौवन भी बोझिल लगने लगता है | इसी प्रकार वैराग्य-शतकम् में राजा भर्तृहरि कहते हैं –
      भोगा न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः
      तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः |
      कालो न यातो वयमेव याताः
      तृष्णा: न जीर्णा वयमेव जीर्णाः || वैराग्य-शतकम्-7 ||
अर्थात हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगों ने ही हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गए हैं; काल समाप्त नहीं हुआ, हम ही समाप्त हो गए हैं; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं |
           भविष्य में विज्ञान से हम वह सब कुछ प्राप्त कर सकेंगे जो हमारे सनातन-शास्त्रों में लिखा है परन्तु उसको प्राप्त करने के बाद जो स्थिति हमारे सम्मुख उपस्थित होगी, वह राजा ययाति की स्थिति से भिन्न नहीं होगी | हमें यही विचार करना है कि युवावस्था प्राप्त करने के बाद भी ययाति उस काम से तृप्त क्यों नहीं हो पाए, जिसके लिए उन्होंने पुरु से उसकी युवावस्था मांग कर ले ली थी | भविष्य में इस प्रकार युवावस्था के स्थानान्तरण का साधन खोज लेने के लिए कोई न कोई शुक्राचार्य मिल ही जायेगा, परन्तु उसके आगे क्या होगा, उसकी हम कल्पना ही कर सकते हैं | यह गुणों के स्थानान्तरण का उदाहरण ही है जिसमें एक काम अतृप्त व्यक्ति पहले अपनी काम-तृप्ति के लिए अपने पुत्र से गुण लेता है और फिर इस बात का ज्ञान हो जाने से कि काम से कभी कोई तृप्त नहीं हो सकता, यौवन के उन गुणों को वापिस अपने पुत्र को लौटाकर अपने स्वाभाविक गुणों को उत्थान के मार्ग की ओर मोड़ देता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

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