गुण-कर्म विज्ञान –
54
द्वितीय
प्रकार का स्थानान्तरण वास्तव में गुणों का स्थानान्तरण न होकर गुणों का प्रभाव है
| किसी भी व्यक्ति में अब कोई विशेष गुण परिवर्तित होकर पर्याप्त मात्रा में संचय (Storage) हो जाता है, ऐसी स्थिति में उन गुणों का विकिरण (Radiation) होना प्रारम्भ हो जाता है | उस विकिरण का प्रभाव
आस-पास के पदार्थों, भौतिक वस्तुओं और वातावरण में अनुभव किया जा सकता है | इस जगत
में आपको इस सम्बन्ध में कई उदाहरण मिल जायेंगे | मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि इस बात
का अनुभव आपने भी अपने जीवन में कभी न कभी अवश्य ही किया है | हरिः शरणम् आश्रम
हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा इससे सम्बंधित एक दृष्टान्त देते हैं |
वे बताते हैं कि इसी युग में जोधपुर में एक फूलां बाई नामक महिला हुई थी जो गोबर
थापते हुए भी राम-राम जपती रहती थी | कहा जाता है कि उसके नाम-जप का इतना अधिक
प्रभाव हो गया था कि उसके द्वारा थापी हुई थेपडी से भी राम नाम की मधुर ध्वनि
निकलती रहती थी | रामचरितमानस में भी इस सन्दर्भ में एक वर्णन आता है | जब भगवान
के वाहन गरुड़ के मन में परमात्मा को लेकर एक बार संशय पैदा हो गया था तब उसे काकभुसुंडि
के पास ज्ञान लेने भेजा गया था | ज्योंही गरुड़ काकभुसुंडि गुफा के पास पहुंचा,
उसका समस्त संशय दूर हो चूका था और मन एक दम निर्मल हो गया था | यह एक प्रकार से
गुणों का विकिरण होते हुए स्थानान्तरण होना ही है | हमारे समस्त तीर्थ स्थल ऐसे ही
सद्गुणों के विकिरण उपस्थित रहने वाले स्थानों पर बने हैं |
आधुनिक युग में इन तीर्थ स्थानों
को सुगम्य बना दिया गया है, जिस कारण से इनको देखने की होड़ सी मची हुई है | इसके
कारण प्रत्येक व्यक्ति इनको देखकर पुण्य कमाने में लगा हुआ है | वास्तव में देखा
जाए तो यहाँ जाकर किसी भी प्रकार का पुण्य-लाभ नहीं मिलता है | ऐसे स्थान
महात्माओं की तपस्थली रहे हैं और वहां जाकर उनके गुणों का प्रभाव ही अनुभव करने को
मिलता है | जिस आपाधापी के साथ और मौज मस्ती के लिए जो लोग यहाँ जाते हैं, उनको
ऐसे किसी भी प्रभाव का अनुभव नहीं हो पाता है | यही कारण है कि तीर्थ यात्राओं को ‘धमाधमा’
से अधिक कुछ भी नहीं माना जाता है | मनोयोग से की जाने वाली तीर्थ-यात्रा आपके द्वारा
प्रारम्भ की जाने वाली आध्यात्मिक यात्रा का
प्रथम सोपान तो बन सकती है परन्तु लक्ष्य प्राप्ति में इसका योगदान नगण्य ही होगा |
आवश्यकता है, तीर्थ-यात्रा करके मन के गुणों में परिवर्तन करने की | अगर मन
परिवर्तित नहीं हो सका तो सभी तीर्थ बेमानी हैं | इसीलिए कहा जाता है कि ‘मन चंगा
तो कठौती में गंगा’ |
क्रमशः प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश
काछवाल |
|| हरिः शरणम् ||
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