Wednesday, February 8, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 35

गुण-कर्म विज्ञान – 35
             हमारे सनातन शास्त्र कहते हैं कि गुणों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन जब व्यक्ति को व्यथित (Distress) करने लगता है, तब वह इससे निवृति के लिए विभिन्न दवाओं आदि का सहारा लेता है | अगर वह रोगमुक्त हो जाता है, तब तो ये कर्म उसके भावी जीवन को प्रभावित नहीं करेंगे परन्तु अगर रोग सतत चलता रहा तो ये कर्म भी संचित (Accumulate) होकर भावी जन्म में चले जायेंगे | इस बात को विज्ञान अभी तक सिद्ध नहीं कर पाया है परन्तु हमारे ऋषियों ने इसे सत्य कहा है |
                  भागवत पुराण में लिखा है कि जो व्यक्ति दूसरे के हक़ का खाता है वह कूकर-शूकर योनि में पुनर्जन्म लेता है | इसी प्रकार जो मनुष्य भोजन के स्वाद के प्रति आसक्त होकर विभिन्न प्रकार के भोजन को करने में ही रत रहता है, उसका उसी जीवन में पाचन-तंत्र गड़बड़ा जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप पाचन के स्रावों (Secretions for digestion)  के रासायनिक गुणों में स्थाई परिवर्तन हो जाता है | इस परिवर्तन के कारण भावी मनुष्य जीवन में संग्रहणी नमक रोग उसे विरासत में मिलता है |
       इस प्रकार हमने देखा कि स्वतः स्फूर्त कर्म का मनुष्य को पता नहीं चलता कि वे कर्म इस भौतिक शरीर में सतत चल रहे हैं | उसको इन कर्मों में किसी प्रकार का व्यवधान आ जाने पर ही महसूस होता है कि शरीर की किसी प्रणाली में कोई गड़बड़ अवश्य पैदा हुई है | इस गड़बड़ होने को ही रोग (Disease) कहते हैं | इस रोग से मुक्त होने के लिए फिर से प्रकृति के पदार्थों का सहारा लेना पड़ता है |  प्रकृति के गुणों में पैदा हुए किसी भी व्यवधान (Obstruction) को प्रकृति के गुणों से ही दूर किया जा सकता है, अन्य किसी उपाय से नहीं | इसी को गुणों का गुणों में बरतना अर्थात एक गुण को सही करने के लिए दूसरे गुण का उपयोग करना कहते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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