Tuesday, January 31, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 27

गुण-कर्म विज्ञान – 27
                    शरीर, जो कि विभिन्न प्रकार के पदार्थों से मिलकर बना एक पदार्थ ही है, के प्राकृतिक गुणों (Natural characteristics) में दो प्रकार से परिवर्तन किया जा सकता है | पहला परिवर्तन व्यक्ति के मन के अनुसार होता है, जो एक निश्चित प्रक्रिया के अनुसार होता है और यह स्थाई (Permanent) प्रकार का होता है तथा भाग्य का निर्माण करते हुए पुनर्जन्म का कारण बनता है | दूसरा परिवर्तन चिकित्सा (Therapy) करने के उद्देश्य से किया जा सकता है तथा यह स्थाई और अस्थाई (Temporary) दोनों प्रकार का हो सकता है | किसी भी प्रकार की चिकित्सा में भौतिक गुणों में परिवर्तन तो शल्य चिकित्सा (Surgery) के माध्यम से किये जा सकते हैं, रासायनिक परिवर्तन दवा (Medicines) देकर किये जाते हैं क्योंकि दवा के पदार्थ में रासायनिक गुण ही महत्वपूर्ण होते हैं |  प्रत्येक पदार्थ में भौतिक गुण और रासायनिक गुण के साथ-साथ विद्युतीय गुण भी होते हैं | विद्युत (Electricity) के कारण चुम्बकीय क्षेत्र (Magnetic field) का निर्माण होता है | इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ का अपना एक चुम्बकीय क्षेत्र होता है जो किसी अन्य पदार्थ के चुम्बकीय क्षेत्र से प्रभावित (Affected) हो सकता है | किसी भी रासायनिक और भौतिक क्रिया में परिवर्तन के लिए विद्युतीय शक्ति (Electrical power) की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है |
                                        किसी एक पदार्थ का विद्युतीय क्षेत्र (Electrical field) किसी दूसरे पदार्थ के विद्युतीय क्षेत्र को प्रभावित अवश्य ही करता है क्योंकि दोनों ही अपने-अपने चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण करते हैं | इस प्रकार एक पदार्थ के चुम्बकीय क्षेत्र (Magnetic field) के प्रभाव से दूसरे पदार्थ का चुम्बकीय क्षेत्र परिवर्तित हो जाता है | इस परिवर्तन से पदार्थ के विद्युतीय गुण के साथ-साथ भौतिक और रासायनिक गुण भी बदल जाते हैं और उन गुणों से होनेवाले कर्मों के प्रकार भी | इस सिद्धांत के आधार पर चिकित्सा विज्ञान में मानसिक रोगियों (Psychic) का इलाज सफलता पूर्वक किया जा रहा है | मनोरोगी में मस्तिष्क का विद्युतीय गुण अव्यवस्थित हो जाता है जिसके कारण मस्तिष्क का रासायनिक गुण प्रभावित हो जाता है | रासायनिक गुणों में परिवर्तन हो जाने के कारण कई विषैले रसायन बन जाते हैं जो व्यक्ति की मनोदशा (Mood) और व्यक्तित्व (Personality) तक बदल डालते हैं | ऐसी परिस्थिति में मनुष्य ऊलजलूल हरकतें करने लग जाता है और उसकी बौद्धिक क्षमता (Intelligence)  पर ग्रहण लग जाता है | ऐसे मानसिक रोगी को विद्युत-चिकित्सा देकर स्वस्थ किया जा सकता है | इसी प्रकार कई शारीरिक भौतिक बीमारियों का उपचार चुम्बकीय-चिकित्सा (Magnetic therapy) विज्ञान से भी किया जा सकता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Monday, January 30, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 26

गुण-कर्म विज्ञान – 26
               पदार्थ के गुणों के आपसी व्यवहार से कर्म तो स्वतः ही होते हैं परन्तु मन एक उत्प्रेरक (Catalyst) की भूमिका निभाता है | मन ही अपनी कामनानुसार इन्द्रियों के माध्यम से उन गुणों को स्वयं में परिवर्तन करने को बाध्य करते हुए कर्मों को संपन्न करवाता है | कर्म तो आखिर प्रकृति के गुणों के कारण ही संभव होने हैं परन्तु मन (Mind) और इन्द्रियां (Senses) उनको स्वयं में परिवर्तन करने को बाध्य कर देती है | प्राकृतिक गुणों (Natural characteristics) में यह परिवर्तन (Change) केवल मनुष्य के शरीर के द्वारा ही होने संभव है, अन्य प्राणियों के शरीर के द्वारा नहीं | यही कारण है कि जन्म के समय अगर कोई पशु सरल और सीधा स्वभाव का है तो प्रायः वह अपने उस जीवन काल में सदैव वैसा ही बना रहेगा परन्तु इसके विपरीत मनुष्य का स्वभाव चाहे जब बदल सकता है | सीधे-सादे और साधारण स्वभाव वाला व्यक्ति थोड़े वर्षों बाद झगडालू स्वभाव का भी बन सकता है और अत्यंत क्रोधी और अत्याचारी व्यक्ति भी सीधा-सादा हो सकता है | डाकू अंगुलिमाल और रत्नाकर इसके उदाहरण हैं | अंगुलिमाल डाकू से परिवर्तित होकर महान बौध-भिक्षु बन गए थे और डाकू रत्नाकर, महर्षि वाल्मीकि के रूप में जग प्रसिद्ध हैं | इसलिए कहा जा सकता है कि हमारे मन से गुण प्रभावित होते है जिस के कारण व्यक्ति का स्वभाव तक बदल सकता है |
                    इस संसार में विभिन्न प्रकार के पदार्थ हैं और मनुष्य उनका उपयोग कर सुख-दुःख का अनुभव करता है | किसी भी भौतिक पदार्थ का चैतन्य पदार्थ तभी उपयोग कर सकता है, जब उसके स्वयं के गुणों और उस भौतिक पदार्थ के गुणों के बीच एक सामंजस्य चिह्नित (Marked  harmony) हो अन्यथा ऐसा होना किसी भी प्रकार की परिस्थितियों में संभव नहीं है | यह सामंजस्य (Harmony) पूर्व जन्म के कर्मों से ही चिह्नित होता है, जिसे हम भाग्य अथवा प्रारब्ध (Destiny) कहते हैं | हमें आभास होता है कि वर्तमान में हमारे द्वारा किये जाने वाले कर्म हमें यह पदार्थ उपलब्ध करवा रहे हैं, परन्तु यह सत्य नहीं है | इस जीवन के कर्म ही नए जीवन का भविष्य का निर्माण करते हैं | तुलसी बाबा कहते हैं –
               “सकल पदारथ है जग माहीं | कर्महीन नर पावत नाहीं ||”
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, January 29, 2017

गुण-कर्म विज्ञान -25

गुण-कर्म विज्ञान – 25
         जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चूका है कि मन के दो भाग होते हैं-एक मुख्य मन (Mind) और दूसरा चित्त (Psyche) | मन इस भौतिक शरीर (Physical body) को नियंत्रित करता है और जबकि चित्त आत्मा (Soul) को अपने साथ बांध लेता है | चित्त आत्मा के साथ (Spirit) प्राणी के भौतिक शरीर में प्रवेश करता है, जहाँ भौतिक शरीर में विकसित मन के साथ संयुक्त हो जाता है | शरीर के जर्जर (Run down) होने पर यही चित्त अपने मूल मन से अलग होकर मृत्यु के समय आत्मा के साथ वह शरीर त्याग देता है | अगर यह जीवात्मा (चित्त सहित आत्मा, Spirit) किसी अन्य प्राणी (मनुष्य को छोड़कर) के भौतिक शरीर में प्रवेश करती है, तो यह चित्त उस शरीर से वही कर्म करवाता है, जो पूर्व जन्म के कर्मों (संचित कर्म, Accumulated act) के फल को प्राप्त करने के लिए आवश्यक होते हैं |
                                      मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों में मन निष्क्रिय अवस्था में रहता है अर्थात अविकसित अथवा अर्ध विकसित (Underdeveloped) अवस्था में होता है जिससे वह नए कर्म करवाने में असहाय (Helpless) होता है | जब यह जीवात्मा (Spirit) जन्म के समय मनुष्य के भौतिक शरीर में प्रवेश करती है तो यह चित्त, गर्भावस्था (Intrauterine life) में विकसित (Developed) हुए मन के साथ संयुक्त (Adjoin) होकर शरीर से पूर्वजन्म के कर्मों के फल के लिए तो उससे कर्म करवाता ही है साथ ही साथ नए कर्मों को भी करवा सकता है | नए कर्मों को करवाना इस संसार-चक्र (Cycle of the Universe) के निरंतर घूमते रहने के लिए आवश्यक भी है | नए कर्मों से फल प्राप्त करने के लिए मृत्यु के बाद जीवात्मा को फिर किसी नए शरीर में जाना आवश्यक होगा | इस प्रकार यह संसार-चक्र अपनी गति से निरंतर चलता रहता है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, January 28, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 24

गुण-कर्म विज्ञान – 24
मन और कर्म- 
        मन की सक्रिय उपस्थिति (Active presence) और मन की निष्क्रिय उपस्थिति (Passive presence) ये दो ही मनुष्य और अन्य जीवों में भेद (Difference) का मुख्य आधार है | मन की सक्रियता से तात्पर्य है मन में जो आये अथवा मन जो चाहे उसके अनुसार शरीर का कार्य करना | मन की सक्रियता ने ही व्यक्ति को ‘मनुष्य’ नाम प्रदान किया है | जिस व्यक्ति में मन भी क्रियाशील (Active) नहीं होता उसको पशु समान माना जाता है और वह मनुष्य मानसिक रोगी (Psychic) की श्रेणी में आता है | जिस मनुष्य ने अपने मन को नियंत्रित (Control) कर लिया है, वह ‘योगी’ हो जाता है | मन का क्रियाशील न होना तथा मन की क्रियाशीलता को नियंत्रण में रखना, सतही रूप (Superficially) से देखने में एक समान प्रतीत होते हैं | दोनों ही स्थितियों में मन की क्रियाशीलता ही महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित होती है, परन्तु दोनों परिस्थितियों में मनुष्य के व्यक्तित्व (Personality) में बहुत बड़ा अंतर होता है | इन दो स्थितियों में अंतर को न समझने के कारण आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को सांसारिक व्यक्ति प्रायः मनोरोगी समझ बैठते हैं | मन को नियंत्रण में रखने वाला संसार के लिए एक मनोरोगी हो सकता है परन्तु वास्तविकता में वह परमात्मा के चिंतन में सदैव लगा होने के कारण वैसा आभासित हो सकता है | यह ठीक वैसे ही है जैसे अनिद्रा रोग (Insomnia) का होना अथवा नींद को जीत लेना (गुडाकेश) control on sleep,;दोनों को एक समान समझ लेना | जबकि दोनों में बहुत बड़ा अंतर है |
    गीता इसी मन को स्पष्ट करते हुए कहती है कि -
              इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः |
              मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः || गीता-3/42 ||
अर्थात इन्द्रियों को स्थूल शरीर से श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं | इन इन्द्रियों से सूक्ष्म मन है; मन से सूक्ष्म बुद्धि है और बुद्धि से अत्यंत सूक्ष्म है, वह आत्मा है |
                   स्थूल भौतिक शरीर से इन्द्रियां श्रेष्ठ (Superior) है अर्थात इन्द्रियों के कारण ही शरीर के द्वारा कार्य सिद्ध हो सकते हैं | इन्द्रियां मन के अधीन हैं | मन से श्रेष्ठ बुद्धि और सबसे श्रेष्ठ आत्मा है | कहने का अर्थ यह है कि आत्मा के कारण ही इस शरीर का मूल्य है अन्यथा इस शरीर के होने का कोई महत्त्व नहीं है | मन तो केवल इस शरीर से कार्य लेने का माध्यम मात्र है | अतः मन से उपयुक्त (Appropriate) कार्य लेने के लिए इसको नियंत्रण में रखना आवश्यक है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल 

|| हरिः शरणम् ||

Friday, January 27, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 23

गुण-कर्म विज्ञान – 23
               गीता के उपरोक्त श्लोक (13/5) के अनुसार केवल 23 तत्व की शरीर में उपस्थिति भी उस अचेतन शरीर को चेतन करने के लिए अपर्याप्त हैं जब तक की उस अचेतन में अव्यक्त मूल प्रकृति का प्रवेश नहीं हो जाये | जो कुछ भी हमें व्यक्त रूप से दिखाई पड़ता है, उसी का नाम माया है | सभी पदार्थ इस माया के अंतर्गत आ जाते हैं | इस माया को जो देखता है, वह दृष्टा ही चेतन तत्व है | इस दृष्टा को ही अव्यक्त मूल प्रकृति कहा जाता है | माया को केवल मात्र दृष्टा बन कर ही देखना चाहिए, स्वयं को माया मान लेना ही अनुचित है | आप केवल माया में सतत हो रही क्रियाओं का आनंद लें, उन क्रियाओं के साथ संलग्न होकर उन्हें अपना कर्म न बनायें |
              इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञ अर्थात अव्यक्त मूल प्रकृति ही अचेतन शरीर में प्रवेश कर उसे चेतन बनाती है | अधिष्ठाता अर्थात परमात्मा ने ही मन का निर्माण किया है | मन के दो भाग हैं-पहला भाग चित्त है जो कि परमात्मा के ही एक अंश आत्मा के साथ सदैव जुडा रहता है और मन का दूसरा भाग मन ही कहलाता है जो कि भौतिक शरीर के साथ जुडा होता है | सक्रिय मन की शरीर में उपस्थिति के कारण ही हम मनुष्य कहलाते हैं | जो आत्मा के साथ जुड़ा होता है वह मन परमात्म स्वरूप ही है और उसके चैतन्य होने के कारण ही वह चित्त कहलाता है | चित्त आत्मा के साथ संलग्न होकर जीवात्मा कहलाता है जो मृत्यु के बाद एक शरीर को त्यागता है और शीघ्र ही दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है | शरीर के साथ रहने वाले इस चित्त के दूसरे भाग मन की मनुष्य के शरीर में कर्म करने में मुख्य भूमिका रहती है | इसी मन के कारण मनुष्य अपनी अव्यक्त मूल प्रकृति में वापस लौट नहीं पाता है क्योंकि मन के कारण कर्म अपना प्रभाव दिखाकर विभिन्न योनियों में उनके फल का भुगतान करवाता रहता है | आइये ! हम जानें कि मन और कर्म का आपस में क्या सम्बन्ध है ?
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, January 26, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 22

गुण-कर्म विज्ञान – 22
               हमारे शास्त्र इस तत्व के बारे में स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जिसने भी प्रकृति को बनाया है, जिससे यह शरीर बना है, तथा जिसने भी इस शरीर में प्रकृति के तीनों गुण भरे हैं, जब वह देखता है कि यह शरीर अभी भी निष्क्रिय है, तो वह स्वयं उसमें प्रवेश करता है |     
    चित्तेन हृदयं चेत्यः क्षेत्रज्ञ: प्रविशाद्यदा |
    विराट् तदैव पुरुषः सलिलादुदतिष्ठत || भागवत-3/26/70||
अर्थात जब चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञ ने चित्त के सहित ह्रदय में प्रवेश किया तब विराट पुरुष उसी समय जल से उठ खड़ा हुआ |
       चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञ जब पञ्च तत्व रचित अचेतन शरीर में प्रवेश करता है तभी वह तत्काल ही सक्रिय होकर उठ खड़ा होता है | माँ के गर्भ में शिशु जल (Amniotic fluid) में तैरता रहता है, इसीलिए इस श्लोक में ऐसा कहा गया है | क्षेत्रज्ञ के उस शिशु के शरीर में प्रवेश करते ही वह उस जल से बाहर निकलकर इस संसार में जन्म ले लेता है |
         गीता में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग नामक अध्याय में भी भगवान श्री कृष्ण इसी तत्व को अव्यक्त अर्थात मूल प्रकृति के नाम से कहते हैं-
      महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च |
      इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचरा: ||गीता-13/5||
अर्थात पाँच महाभूत (भूमि, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश) दस इन्द्रियां, बुद्धि, अहंकार, एक मन, पाँच इन्द्रियों के विषय (शब्द, स्पर्श,  रूप, रस और गंध) तथा अव्यक्त मूल प्रकृति (23+1) | इस श्लोक में भगवान ने चेतन शरीर में उपस्थित रहने वाले सभी तत्व बताये हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, January 25, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 21

गुण-कर्म विज्ञान – 21
          यह भौतिक शरीर भी प्रकृति में उपस्थित अन्य पदार्थों की तरह ही एक पदार्थ मात्र है | उसमें उपस्थित चेतन तत्व ही उसको अचेतन से अलग करता है | यह चेतन तत्व आखिर है क्या और कहाँ से आता है ? आइये, जरा इस बात थोडा ध्यान केन्द्रित करें | प्रत्येक पदार्थ में तीनों गुण उपस्थित अवश्य रहते हैं परन्तु अचेतन में विद्युतीय गुण उदासीन अवस्था में रहता है जबकि चेतन में यही गुण सक्रिय रहकर भौतिक और रासायनिक गुणों के साथ सहयोग करते हुए विभिन्न क्रियाओं को संपन्न कराने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है | शरीर के गुण और कर्म विभाग से कर्म संपादन एक प्राकृतिक और स्वयं स्फूर्त प्रक्रिया है, जिसको करने के लिए किसी विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं होती | प्रकृति में उपस्थित सभी अचेतन पदार्थों में भी भौतिक और रासायनिक गुणों में क्रियाएं स्वयंमेव होती रहती है, जबकि चेतन पदार्थों में इन दोनों गुणों की क्रियाओं के साथ विद्युतीय गुण की क्रिया भी सहयोग करती है | अचेतन में विद्युतीय गुण की उपस्थिति तो रहते हैं परन्तु विद्युतीय गुण से किसी भी प्रकार की क्रिया संपन्न कराने के लिए भी किसी अन्य के सहयोग की आवश्यकता होती है | चेतन पदार्थ में विद्युतीय गुण के कारण होने वाली क्रियाएं ही महत्वपूर्ण हैं अन्यथा चेतन और अचेतन में कोई अंतर नहीं है |
            अचेतन भौतिक शरीर में विद्युतीय गुण सक्रिय कैसे हो उठता है, इसका उत्तर आधुनिक विज्ञान के पास नहीं है | वैज्ञानिक प्रयासरत है यह जानने के लिए कि कौन सा ऐसा तत्व है जो इस शरीर के भीतर प्रवेश करता है और जिसके प्रवेश करते ही यह अचेतन शरीर चेतन अवस्था को प्राप्त कर लेता है ? वही तत्व जब शरीर को त्याग देता है तब यह शरीर पुनः अचेतन अवस्था को प्राप्त हो जाता है | वैज्ञानिकों को कई वर्ष जानने में लग जायेंगे इसे, और हो सकता है कभी जान भी न पाए | हमारे शास्त्रों ने इस तत्व को अविज्ञेय ऐसे ही नहीं कह दिया है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Tuesday, January 24, 2017

गुण-कर्म विज्ञान -20

गुण-कर्म विज्ञान – 20  
कर्म-विभाग (Department of acts)-
        शरीर के गुण-विभाग से अधिक महत्त्व पूर्ण है, कर्म-विभाग | इसका कारण यह है कि अकेला पदार्थ का एक गुण किसी कर्म को सम्पादित नहीं करवा सकता | तीनों गुण आपस में मिलकर ही किसी कर्म को करवा सकते हैं | उदाहरण स्वरूप हम गंध (Smell) को ही लेते हैं | गंध का ज्ञान हमें नासिका के द्वारा होता है | किसी गंध का विश्लेषण करने के लिए सर्वप्रथम भौतिक गुण का सहारा लेते हुए नासिका के छिद्र (Nasal opening) बड़े हो जाते हैं और नासिका को हम जिधर से गंध आ रही है उस दिशा की ओर कर लेते हैं | वह गंध नासिका में प्रवेश कर उसकी झिल्ली (Mucous membrane) में उपस्थित रसायन (Chemical) में घुल जाती है | उस रसायन से विद्युतीय संकेत मस्तिष्क तक पहुंचा दिए जाते हैं जहाँ पर इस गंध का विश्लेषण (Analysis of smell) किया जाता है | इस प्रकार पदार्थ के तीनों गुणों को बरतते हुए अर्थात उपयोग में लेते हुए गंध को पहचानने (Identify) की क्रिया संपन्न होती है | जब गंध सुगंध अथवा दुर्गन्ध सिद्ध होती है तो मस्तिष्क में यह आंकड़ों (data) के रूप में संग्रहित (Store) कर ली जाती है, जो भविष्य में तुलनात्मक (Comparison) रूप से गंध का विश्लेषण करने में सहायक सिद्ध होती है |
         स्वाद (Taste) के ज्ञान के बारे में भी लगभग ऐसी ही प्रक्रिया संपन्न होती है | इसमें भोजन को लार (Saliva) जो कि एक रसायन है, के साथ घुलकर स्वाद-कलिकाओं (Taste buds) के माध्यम से संकेत रूप में मस्तिष्क तक पहुंचाए जाते हैं, जहाँ पर विशेषण करते हुए मस्तिष्क वास्तविक स्वाद का ज्ञान करवाता है | लगभग यही प्रक्रिया शब्दों (Words) को सुनने में, स्पर्श (Touch) का ज्ञान करने में तथा दृश्य (View) दिखलाने में संपन्न होती है | अतः यह स्पष्ट है कि पदार्थ के गुणों के आपस में सहयोग कर ही कर्म सम्पादित किये जा सकते है | इसी कारण से शरीर का यह विभाग गुण-विभाग से अलग कर्म-विभाग कहलाता है |
           क्रिया और कर्म का अंतर स्पष्ट करने के लिए चेतन को थोडा और अधिक विस्तार से जानना आवश्यक है | जब तीनों प्रकार के गुण चेतन और अचेतन, दोनों में विद्यमान है, तो फिर अचेतन जैसी ही क्रिया चेतन में होते ही कर्म कैसे बन जाती है ?
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, January 23, 2017

गुण-कर्म विज्ञान -19

गुण-कर्म विज्ञान – 19
          सनातन धर्म-शास्त्रों के अनुसार भी प्रकृति के तीन गुण इस भौतिक शरीर में विद्यमान रहते हैं | इन तीन गुणों को सत्व(Good), रज (Medium) और तम (Bad) गुण कहा जाता है | विज्ञान के अनुसार जिस प्रकार प्रत्येक पदार्थ में भौतिक, रासायनिक और विद्युतीय गुण उपस्थित रहते हैं, ठीक उसी प्रकार गीता भी कहती है कि प्रत्येक शरीर में सत्व, रज और तम गुण उपस्थित रहते हैं | विज्ञान के कथन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ में तीनों गुणों का अनुपात भिन्न-भिन्न होता है | गीता के अनुसार भी प्रत्येक शरीर में इन तीन गुणों का अनुपात (Ratio) भिन्न-भिन्न होता है |
            सत्व गुण पदार्थ के विद्युतीय गुण के अनुरूप होते हैं, तमोगुण रासायनिक गुण के अनुरूप होते हैं और रजोगुण भौतिक गुण के अनुरूप होते हैं | विद्युतीय गुण मस्तिष्क (Brain) और बुद्धि (Intelligence) से सम्बंधित होते हैं, अतः सत्व गुण इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं | रासायनिक गुण आलस्य (Laziness) और प्रमाद को पैदा करने और अनुचित मानसिकता (Mentality)  रखने में मुख्य भूमिका निभाते हैं अतः तमोगुण को इस श्रेणी में रखा जा सकता है | भौतिक गुण विशेषकर कामना (Desire) और इन्द्रियों से सम्बंधित होते हैं, जिससे वे कर्मेन्द्रियों से कर्म करवाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं अतः रजोगुण को इस श्रेणी में रखा जा सकता है |
              वस्तुतः देखा जाये तो सभी गुण एक दूसरे के साथ संयोग करते हुए ही कर्म  करवाते हैं | किसी एक गुण की भूमिका कहीं पर अधिक रहती है और कहीं पर किसी अन्य गुण की | कर्मेन्द्रियों से कर्म करवाने में प्रधानता रजोगुण की होती है परन्तु साथ में तमोगुण व सत्व गुण की भूमिका भी रहती है | केवल अपने शरीर के लिए भोग प्राप्त करवाना, केवल अपना ही स्वार्थ देखना, दूसरे को परेशान करने में आनंद का अनुभव करना तथा साथ ही साथ आलसी व प्रमादी होना आदि में प्रधानता तमोगुण की होती है परन्तु साथ में सत्व व राजसिक गुण भी अल्प भूमिका निभाते हैं | इसी प्रकार दान, धर्म और परमार्थ आदि कर्मों में मुख्य भूमिका सत्व गुण की होती है परन्तु साथ में रज व तम गुण भी सहयोग करते हैं | इस प्रकार गुणों का आपस में सहयोग करना कर्म-विभाग के अंतर्गत आता है | गुणों का आपस में सहयोग करते हुए क्रियायें कैसे संभव होती है, इसको जानने के लिए हमें शरीर के कर्म-विभाग में जाना पड़ेगा | तो आइये ! इस रहस्य को जानने के लिए हमारे भौतिक शरीर के कर्म-विभाग (Department of acts) में प्रवेश करते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, January 22, 2017

सादर-श्रद्धांजलि

             पिताजी का देवलोक गमन होने का सांसारिक दुःख अवश्य है क्योंकि वे चाहे इस 90 वर्ष की आयु में हमारा कोई कार्य न करते थे परन्तु हमारा निजी सुरक्षा कवच अवश्य थे | उनके जाने का दुःख हमारा स्वार्थ ही हो सकता है अन्यथा इस संसार में प्रत्येक समय किसी न किसी स्थान पर एक पिता, एक पुत्र अथवा एक माँ अपनी सांसारिक भौतिक देह छोड़ते ही है | कल उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए समस्त गण सांत्वना के दो शब्द कह ही रहे थे | मुक्ति अथवा पुनर्जन्म का निर्णय तो मेरे पिता श्री की भौतिक देह से किये गए कर्म करेंगे, उसके बारे में हमारा सोचना ही अनुचित है | हमने हमारा कर्तव्य-कर्म निभाया अथवा नहीं, हमारे लिए यही विचारणीय है | वो तो चले गए, वापिस लौट कर आने वाले नहीं है और अगर हमारी इस भौतिक देह के रहते आते भी हैं तो हमें उनका अनुभव भी नहीं होगा |
                  भागवत में लिखा है कि यह संसार किसी एक चौराहे पर स्थित उस प्याऊ की तरह है, जहाँ सभी अपनी प्यास बुझाने आते हैं, कुछ समय एक साथ बैठते हैं और फिर अपने मार्ग पर आगे की यात्रा पर निकल जाते हैं | वे हमारे साथ रहते हुए ऐसा ही कुछ कर गए हैं और अपनी आगे की यात्रा पर निकल चुके हैं | हमें उनके जाने से यही सीख लेनी है कि यहाँ, इस संसार में सदैव के लिए कोई नहीं रहता है | परमात्मा उनकी आगे की यात्रा को सुगम बनाए |
                   पत्ता टूटा डारि से, ले गयी पवन उड़ाय |
                  अबके बिछुड़े कबहूँ मिले, दूर पड़ेंगे जाय ||
|| हरिः शरणम् ||

कल से पुनः ‘गुण-कर्म विज्ञान’ के साथ आगे की यात्रा पर चलेंगे |

Friday, January 20, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 18

गुण-कर्म विज्ञान – 18
गुण-विभाग-(Department of material properties)-
      सनातन-धर्म शास्त्रों के अनुसार गुण विभाग के अंतर्गत अष्टधा प्रकृति आती है जिसमें पाँच भौतिक तत्वों से पदार्थ का निर्माण होता है | विभिन्न प्रकार के पदार्थों से ही इस भौतिक शरीर का निर्माण होता है | शरीर के विभिन्न अंग भी इन्हीं पदार्थों से बनते हैं | आधुनिक विज्ञान के अनुसार पदार्थों से बना होने के कारण शरीर में भी पदार्थ के तीनों गुण उपस्थित रहते हैं- भौतिक गुण (Physical properties), रासायनिक गुण (Chemical properties) और आणविक अथवा विद्युतीय गुण (Electrical properties) |
              पदार्थ के भौतिक गुण के कारण दसों इन्द्रियों (Organs of senses) का निर्माण होता है | अतः यह कहा जा सकता है कि भौतिक गुण इस शरीर में इन्द्रियों से कार्य सम्पादित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं | पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (Sense organs for knowledge) और पाँच कर्मेन्द्रियों (Sense organs  for acts) के कारण भौतिक शरीर अपना निश्चित आकार (Shape) ग्रहण करता है | पदार्थ के भौतिक गुण के कारण ही कर्मेन्द्रियाँ अपना आकार और दिशा (Shape and directions) बदलते हुए विभिन्न कर्म को सम्पादित करती हैं | चलना, वस्तु को पकड़ना, दौड़ना, मल-मूत्र विसर्जन आदि कर्म भौतिक गुणों के कारण ही संभव होते हैं | रासायनिक गुणों के कारण भोजन का पाचन (Digestion) , मांस-पेशियों की सक्रियता (Activity of muscles) , मूत्र के माध्यम से उत्सर्जित होने वाले तत्वों का निर्धारण करना (Excretion of wastage) , विभिन्न हार्मोन्स (Hormones) बनाकर शारीरिक विकास (Development) को गति देना आदि कर्म संपन्न होते हैं | इसी प्रकार विद्युतीय गुणों के कारण ज्ञानेन्द्रियों से संकेत (Electrical signals) मस्तिष्क (Brain) तक पहुँच कर, सामने उपस्थित वातावरण(Environment), स्वाद (Taste), शब्द  (Hearing), गंध (Smell) और दृश्य (View) का ज्ञान कराते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, January 19, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 17

गुण-कर्म विज्ञान – 17
इस आठ भेदो वाली प्रकृति के बारे में समझाते हुए अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं –
भूमिरापोSनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च |
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा || गीता-7/4||
अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार – इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है |
           यह आठ भेद वाली परमात्मा की प्रकृति अष्टधा प्रकृति, अपरा प्रकृति (Lower nature) कहलाती है | भौतिक शरीर इसी प्रकृति की देन है, अतः इसे क्षेत्र (The field) नाम से (गीता अध्याय-13) भी कहा गया है | अपरा प्रकृति भी परमात्मा के ही कारण अस्तित्व में आई है, इस कारण से गीता में इसे क्षर (destructible) पुरुष (अध्याय-15) भी कहकर भी संबोधित किया गया है | संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब इस प्रकृति के वशीभूत होकर ही कर्म करते हैं | मनुष्य के अतिरिक्त सभी प्राणी जो भी कर्म करते हैं, वे सब कर्म स्वतः ही होते हैं, उन कर्मों को करने में प्राणियों की भूमिका (Role) नहीं होती है | इसीलिए इन प्राणियों के सभी कर्म भोग-कर्म (Material  enjoyment Act) होते हैं | मनुष्य से भोग-कर्म तो होते ही है, साथ ही साथ वह योग-कर्म (Additional  act) भी कर सकता है | योग-कर्म करने में मनुष्य में उपस्थित मन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में अल्प मात्रा में मन की उपस्थिति होती तो है, परन्तु उसका कार्य केवल भय (Fear), भोजन (Feed), मैथुन (Sex) और निद्रा (Sleep) को भोगने के लिए किये जाने वाले कर्म की सीमा तक ही सक्रिय रहता है | यही कारण है कि वे स्वेच्छाचारी नहीं हो सकते | मनुष्य मन की उपस्थिति के कारण ही स्वेच्छाचारी (Willful) होता है | मन के इस शरीर में उपस्थित होने के कारण ही हमें मनुष्य कहा जाता है |
          गुणों और कर्मों के आपसी सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए हमें दोनों के विभाग का अध्ययन करना होगा | आइये ! सबसे पहले हम हमारे इस भौतिक शरीर के गुण-विभाग (Department of material properties)  में प्रवेश करते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||