Monday, February 10, 2014

अमृत-धारा |कबीर-१०

                                       हमारे बचपन की कई बातें ऐसी होती है ,जो आज किसी पुस्तक को पढते पढते अनायास ही याद आ जाती है |उस समय हम सोचा भी नहीं करते थे कि आज जो हमें कुछ पढ़ने या करने के लिए कहा जा रहा है वह जीवन में महत्वपूर्ण स्थान भी रखती है |एक बार कक्षा में शिक्षक ने कहा कि बाहर जाकर धुप में खड़े होकर अपनी छाया को पकडने का प्रयास करना और देखना कि आप उसे पकड़ पाते हो या नहीं |बच्चे ही तो थे ,भोजनावकाश के दौरान निकल पड़े बाहर और लगे अपनी छाया को पकड़ने |पूरी अवधि में छाया को पकड़ने का प्रयास करता रहा परन्तु सफलता नहीं मिली |शिक्षक ने भी दूसरे दिन इस बारे में कुछ भी नहीं पूछा | उस समय बात आई गई हो गयी |परन्तु जब कबीर को पढने लगा तब उनके एक दोहे को पढकर उस दिन की वह बात अनायास ही याद आ गयी|
                                            माया छाया एकसी,बिडला जाने कोय |
                                            भागत के पीछे लगे,सम्मुख भागे सोय ||
                     आप अपनी छाया को जब पकड़ने का प्रयास करते हैं तो आपको उसके पीछे दौडना पड़ता है |आप उस छाया के पीछे कितना ही दौड़े आप उसको पकड़ ही नहीं पाएंगे |ज्योंही आप उसकी तरफ भागते हो वह आपके आगे उतनी ही गति से भागती है|आप उसे पकड़ ही नहीं सकते |जब आप थकहार कर रुक जाते हो तब वह भी अपने आप रुक जाती है |आप फिर से उसको पकडने का प्रयास करते हैं तो वह फिर आपके आगे उसी गति से दूर भागने लगती है |अंत में आप जब वापिस लौटने लगते हो तब पाते हो कि वह आपके पीछे पीछे ही चली आ रही है |कबीर कहते हैं कि माया और छाया दोनों एक समान है और यह बात कोई कोई ही जानता है |सब कोई इस बात को नहीं जानते और समझते हैं |
                    कबीर यहाँ इसी बात को माया के सम्बन्ध में कहते हैं |कहते हैं कि माया और छाया की प्रकृति समान होती है |जैसे आप छाया को पकड़ने के लिए उसके पीछे भागते हो तो वह आपसे दूर भागने लगती है |इसी प्रकार आप माया के पीछे उसे पाने के लिए भागते हो और वह आपसे दूर भागने लगती है |जब आप उस छाया से विमुख होजाते हो तो पाओगे कि छाया आपके पीछे पीछे आने लगती है |यही माया की प्रकृति है |जब आप माया से विमुख होना चाहते हैं तो वह आपके पीछे पीछे आने लगती है | आखिर यह माया है क्या ? कबीर इस माया के बारे में स्पष्ट करते हैं और कहते हैं-
                                          माया माया सब कहे,माया लखै न कोय |
                                          जो मन से न उतरे,जानिए माया सोय ||
                  जो दिनरात आपके मन को अधिकृत किये हुए रहती है ,माया उसी को कहते हैं |अगर आपके मन में सदा धन की कामना रहती है तो यहाँ यह धन आपके लिए माया है |अगर आप सदैव अपने घरबार व परिवार  के बारे में ही सोचते रहते हो तो यह माया है |माया का अर्थ है किसी के भी प्रति मोह और लगाव |वैसे ही जैसे छाया का आपके शरीर के साथ लगाव होता है |
                   कबीर कहते हैं कि यह जो माया ,आपके मन में गहरे तक आधिपत्य स्थापित किये हुए है ,उसे अपने मन से निकाल बाहर करें | न तो माया के पीछे भागे |क्योंकि अगर आप उसके पीछे भागोगे तो वह आपसे दूर भागेगी |आप उसे प्राप्त नहीं कर सकोगे |साथ ही माया से दूर भागने की आवश्यकता भी नहीं है ,क्योंकि अगर आप माया से दूर भागने की कोशिश करोगे तो भी वह आपका पीछा नहीं छोड़ने वाली |वह आपके पीछे सदैव ही लगी रहेगी |इसके लिए आवश्यक है कि आप माया को अपने मन पर हावी न होने दे|माया के प्रति समता का व्यवहार करें |फिर माया आपका कुछ भी नहीं बिगाड सकती |इंतज़ार कीजिये,परमात्मा के आशीर्वाद का ,जो आपके सिर पर सदैव बना रहे,माया स्वतः ही अद्रश्य हो जायेगी,आपका पीछा छोड़ देगी ,ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य जब आपके सिर के बिलकुल ऊपर चमकता है तब आपकी छाया एकदम से गायब हो जाती है |
                                   || हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment