Tuesday, February 4, 2014

अमृत-धारा |कबीर-७

                                    कबीर परमात्मा की प्रार्थना के नाम पर किये जा रहे ढकोसलों के सख्त विरोधी थे |उन्होंने सभी धर्मों को मानने वालों को इन ढकोसलों के बारे में जागृत किया था | उन्होंने लोगों को चेताया कि अगर आप मन को प्रार्थना के दौरान परमात्मा की तरफ नहीं लगाते हो तो फिर आपकी ऐसी प्रार्थना की कोई कीमत नहीं है |परमात्मा आपके मुंह से उच्चारित शब्दों की तरफ आकर्षित नहीं होगा बल्कि आपका एकाग्र मन ही आपको परमात्मा के निकट ले जायेगा |
                         ऐसी ही मेरे बचपन की एक घटना मेरे को अभी याद आ रही है |मैं यदा कदा अपने ननिहाल जाया करता था |जहाँ मैं रहता हूँ उसी गांव में मेरा ननिहाल भी है |एक दिन शाम को मैं मेरे ननिहाल में ही था |शाम की आरती का समय हो चला था |मेरी बड़ी नानी भगवान की आरती नियमित तौर पर करती थी |आरती और पूजा के दौरान घर का मुख्य दरवाजा खुला रखा जाता है,ऐसी वहाँ परम्परा है |उस दिन नानी आरती कर रही थी कि अचानक एक कुत्ता मुख्य दरवाजे से घर के अंदर प्रवेश कर रसोईघर की तरफ जाने लगा |नानी "जय जगदीश हरे" गा रही थी |कुत्ते को देखते ही उनके बोल इस प्रकार बन गए-"जय जगदीश हरे...दूर रह....दूर रह..."|कुत्ते को वह कह रही थी कि दूर रह | मुझे उस समय बड़ी हंसी आई|मैंने नानी को कहा कि आप तो ईश्वर को दूर रहने की कह रही थी |नानी कुछ समझ नहीं पाई कि मैं क्या कह रहा हूँ?उस समय तो नानी को ईश्वर की बजाय रसोई में बने शाम के खाने को कुत्ते से बचाने की फ़िक्र ज्यादा थी |
                                   कबीर ऐसी ही बातों पर कटाक्ष करते हैं और कहते हैं-
                                                           माला फेरत जुग गया ,मिटा न मन का फेर |
                                                           कर का मनका छोड़कर, मन का मनका फेर ||
                  यह जो आप माला फेर रहे है,ईश्वर के नाम की जो गिनती कर रहे है उसकी कोई बात नहीं है |ईश्वर आपको कितनी बार याद करता है,उसकी क्या वह गिनती करता है,जो आप उसको जितनी बार याद कर रहे हो ,उसकी गिनती कर रहे हो |इसकी कोई बात नहीं,लेकिन जब आप ईश्वर का नाम मुँह से उच्चारित कर रहे हैं तब आपका मन कहाँ था,वह जानना ज्यादा महत्वपूर्ण है |आपका मन उस वक्त या तो किसी कल्पना में खोया हुआ रहता है,या सांसारिक गतिविधियों की कोई योजना बना रहा होता है |ऐसी माला फेरने का कोई औचित्य नहीं है |कबीर कहते हैं कि इस प्रकार माला फेरते फेरते युग बीत जायेंगे ,परमात्मा फिर भी उपलब्ध नहीं होनेवाले |क्योंकि आप परमात्मा को सच्चे ह्रदय से तो स्मरण नहीं कर रहे हैं |माला के मनके तो आपके हाथ में फिर रहे हैं और आपका मन परमात्मा की बजाय संसार में इधर उधर भागा भागा फिर रहा है |आवश्यकता है कि इस हाथ में फिर रहे माला के मनकों को तो फेरना बंद करें और इस मन को इधर उधर भटकने से रोकें |मन को संसार में लगाने  की बजाय उसे परमात्मा की तरफ लगा  दें|इस मन के मनकों को परमात्मा की तरफ फिरा देना ही असली माला के मनकों का फिराना है |कबीर ऐसी ही बात अपने अलग अंदाज़ में अन्य दोहे में भी कहते हैं-
                                                          माला तो कर में फिरे ,जीभ फिरे मुख मांही |
                                                          मनवा तो चहुँ दिसि फिरे,यह तो सुमिरन नाहीं ||
                        कभी ध्यान से देखें-जब माला हाथ में फिर  रही है तब मुख में स्वतः ही आपकी जीभ भी कुछ उच्चारित कर रही होती है |जीभ वही उच्चारित कर रही होती है जिसकी आप उसे आदत डाल देते हैं |प्रारंभ में आपको पता होता है कि आप किस मन्त्र को उच्चारित करने की आदत डाल रहे हैं |एक बार जब जीभ की वह आदत बन जाती है तब आपको भी ज्ञान नहीं रहता कि जीभ क्या उच्चारित कर रही है ?ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपका मन उस अवधि में संसार में चारों तरफ घूम रहा होता है ,सोच रहा होता है कि कल आपको किसने क्या कहा था,आज कौन कौन से काम करने है,किसको क्या कहना है ?आदि आदि |ऐसी अवस्था में आपका माला फेरना और जिव्हा से परमात्मा के लिए मन्त्रों को उच्चारित करना,सब व्यर्थ है |आप संसार में रहते हुए संसार के बारे में सोचते रहकर परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते |आप इस संसार में रहते हुए परमात्मा में मन लगाकर ही परमात्मा को पा सकते है |परमात्मा प्राप्ति के लिए संसार से भागने की कोई आवश्यकता नहीं है |साथ ही इसके लिए न तो माला की आवश्यकता है और न ही किन्ही मन्त्रों के उच्चारण की |
                                          || हरिः शरणम् ||  

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