Monday, February 24, 2014

मोह-भ्रम |

                                    संसार में जितनी भी भ्रांतियां है ,उन सबके मूल में भय है | यह भय न जाने कितने कारणों से पैदा होता है |परन्तु भय के पैदा हो जाने पर व्यक्ति को ऐसा भ्रम होता है मानो वह जो भी विचार कर रहा है,वही सत्य है |भ्रम, सत्य का विलोम ही तो है |आप भ्रम को ही एक सत्य के रूप में प्रस्तुत करने लगते है | अपने एक भ्रम को सत्य साबित करने के लिए वह दूसरा भ्रम पाल लेता है | सैकड़ों भ्रम एक साथ भी मिल जाये तो भी वे कभी भी एक सत्य नहीं बन सकते |यह भ्रम व्यक्ति की पलायनवादी मानसिकता को ही दर्शाता है |
                  भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-
                                   कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् |
                                   अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन            || गीत२/२||
                                   क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते |
                                   क्षुद्रं   हृदयदौर्बल्यं   त्यक्त्वोत्तिष्ठ   परन्तप || गीता २/३||
                  अर्थात्,हे अर्जुन!तुम्हे इस असमय में यह मोह किस हेतु से उपलब्ध हुआ ? क्योंकि यह न तो श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है , न स्वर्ग को देनेवाला है और न ही कीर्ति करने वाला है | हे अर्जुन!नपुसंकता को मत प्राप्त हो,तुझमे यह उचित नहीं जान पड़ती |हे परंतप !ह्रदय की इस तुच्छ दुर्लबता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा |
                  श्रीमद्भागवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण के मुख से यही श्लोक सबसे पहले निकले हैं |जब अर्जुन अपनी विरोधी सेना में अपने ही भाई-बंधुओं,सगे-सम्बन्धियों और नाते-रिश्तेदारों को ही देखता है ,तो उसके मन में युद्ध न करने के भाव आ जाते हैं | वह सोचने लगा था कि अपने भाइयों को मारकर अगर उसे सारा साम्राज्य मिल भी गया ,तो भी वह मेरे लिए नरकगामी ही होगा |अतः वह युद्ध नहीं करना चाहता था |वह अपने इस विचार को शास्त्रोक्त बता रहा था |यह अर्जुन का ज्ञान के प्रति असमय पैदा हुआ मोह था |अर्जुन एक योद्धा था और युद्ध करना ही उसका धर्म था |युद्ध न करना उसको बदनाम कर सकता था |इस कारण से इसे अर्जुन की दुर्लबता कहा गया है |अर्जुन में यह मोह और दुर्लबता ,दोनों ही भय के कारण पैदा हुए | वह भय था-अपने ही हाथों होने वाली परिजनों की मृत्यु का |इस भय ने उसके मस्तिष्क में एक प्रकार का भ्रम पैदा कर दिया | उस भ्रम के कारण ही उसे शास्त्र ज्ञान याद आया, जिससे वह अपने निर्णय को सत्य साबित कर सके |जबकि वास्तविकता यह थी कि एक योद्धा होने के कारण शास्त्रोक्त यही था कि वह युद्ध करे | परन्तु भ्रम के कारण वह युद्ध न करने को सही बता रहा था | जबकि युद्ध न करना एक योद्धा के लिए अनुचित था |युद्ध न करना पलायनवादी मानसिकता दर्शाता है |
                   वह युद्ध करने से कभी भी नहीं डरता था |इससे पहल्र भी उसने कई युद्ध लड़े थे |परन्तु महाभारत में उसे युद्ध अपने ही भाई-बंधुओं से करना था |भाइयों के मरने की कल्पना मात्र से ही वह भयभीत हो जाता है |तब  उसे शास्त्र याद आते हैं | उनकी आड़ में वह युद्ध से पलायन कर अपने भ्रम को सही साबित करने की एक कोशिश कर रहा था |लेकिन श्रीकृष्ण जैसे सारथी और सखा होने के कारण यह संभव नहीं हो सका |अगर श्रीकृष्ण के स्थान पर आज के कोई तथाकथित पंडित-ज्ञानीजन होते तो शायद अर्जुन के निर्णय को उचित बताते हुए स्वीकार भी कर लेते |
                    इस संसार में उचित और अनुचित के मध्य विभाजन रेखा बड़ी ही सूक्ष्म है ,जिस कारण से उचित को अनुचित और अनुचित को उचित बता देना बड़ा आसान है |अपने स्वर्थानुसार लोग इसे स्वीकार भी कर लेते हैं |आज आवश्यकता है कि इस रेखा को सही तरीके से समझकर ही उचित अनुचित का निर्णय किया जाय ,अन्यथा इस भ्रमजाल से कभी भी मुक्ति नहीं मिल सकेगी | बिना भय और भ्रम से मुक्त हुए सत्य को पाना असंभव है |
                                     || हरिः शरणम् ||

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