दुनियां में जितनी भ्रांतियां "प्रेम"शब्द को लेकर है,उतनी किसी अकेले अन्य शब्द को लेकर कहीं नहीं है |प्रेम शब्द को जितने हलके ढंग से लोग आधुनिक युग में प्रयोग में ले रहे हैं उतना दुरूपयोग शायद ही किसी अन्य शब्द का हुआ है |प्रेम प्रसंग के चलते मारामारी,अपहरण और न जाने कितने छोटे बड़े अपराध इस जगत में आज देखने को मिल रहे है |जबकि इनका सम्बन्ध वास्तविक प्रेम से कहीं पर भी नहीं है |इन सबको प्रेम से अलग करने को रसखान कहते हैं-
दम्पति सुख अरु विषय रस,पूजा निष्ठां ध्यान |
इन हे परे बखानिये,सुद्ध प्रेम रसखान ||
लोग दाम्पत्य सुख को प्रेम का नाम दे देते हैं |शारीरिक सुख और प्रेम दोनों अलग अलग हैं |दाम्पत्य में प्रेम हो भी सकता है और नहीं भी |इसलिए दाम्पत्य सुख को एक शारीरिक सुख ही कहा गया है |और प्रेम में शारीरिक सुख मिले ही ,यह आवश्यक नहीं है |प्रेम को शारीरिक सुख के साथ नहीं बांधा जा सकता |रसखान यहाँ कहते हैं कि " दम्पति सुख अरु विषय रस,पूजा निष्ठां ध्यान "-दम्पति साथ रहकर जो सुख एक दूसरे से प्राप्त करते है ,उसे ही प्रेम नहीं कह सकते |विषय रस -वह सुख जो करने,कहने और सुनने से प्राप्त होता है ,उसे विषय-रस कहा जाता है|जैसे परनिंदा करना और सुनना व्यक्ति को सुख प्रदान करता है |मधुर खाना पीना,सुंगंधित पदार्थों की खुशबू लेना,स्पर्श का सुख प्राप्त करना,सुन्दरता का अवलोकन करना आदि जो भी क्रिया कलाप है वह आपको क्षणिक सुख प्रदान करते है |इस तात्कालिक सुख के कारण उसके प्रति आपका अस्थाई लगाव और जुडाव भी उनके प्रति पैदा हो सकता है ,परन्तु इतना सब कुछ होने के बाद भी आप इसको प्रेम की श्रेणी में नहीं रख सकते |ईश्वर के प्रति निष्ठां,ईश्वर का ध्यान और उससे की गई प्रार्थना और उसकी पूजा करना भी प्रेम नहीं है |यह तो सब आप अपनी कामनाएं पूरी करने के लिए ईश्वर से मात्र प्रार्थना कर रहे हैं |इस पूजा का अर्थ यह कदापि नहीं है कि आपका परमात्मा के प्रति कोई प्रेम है ही |इन सबसे परे जो कुछ है अर्थात बिना आकंक्षा के जो कुछ है , उसको आप प्रेम कह सकते है |रसखान कहते है कि इन सब से बढ़कर जो कुछ भी है ,वास्तव में वही शुद्ध प्रेम है |प्रेम की पहचान बताते हुए कवि रसखान इसे और अच्छी तरह से स्पष्ट करते हैं-
प्रेम रूप दर्पण अहे,रचे अजूबो खेल |
या में अपनों रूप कछु,राखी परिहै अनमेल ||
परमात्मा ने प्रेम रुपी दर्पण को बनाकर अजीब प्रकार का खेल तैयार कर दिया है |जब इस दर्पण में कोई भी अपने आप को निहारेगा तो स्वयं की वास्तविकता उजागर हो जायेगी |इस दर्पण में आपका वह रूप दिखाई देगा जो आपका वास्तविक रूप है,जिसे आप इस भौतिक संसार में स्वीकार नहीं करते हैं |इस दर्पण में तो आपका रूप किसी और प्रकार का है और इस संसार को दिखाने के लिए किसी और प्रकार का |रसखान इस दोहे के माध्यम से समझा रहे हैं कि संसार के लिए जो आपने रूप बना रखा है वह आपके उपयुक्त नहीं है,वह अनमेल है ,इस रूप को दूर ही रख दें और अपने वातविक स्वरूप को पहचाने |व्यक्ति को अपने वास्तविक स्वरूप के साथ ही जीना चाहिए ,कृत्रिम स्वरूप के साथ नहीं |वास्तविक रूप तो एकमात्र आपका प्रेम-रूप ही है |
|| हरिः शरणम् ||
दम्पति सुख अरु विषय रस,पूजा निष्ठां ध्यान |
इन हे परे बखानिये,सुद्ध प्रेम रसखान ||
लोग दाम्पत्य सुख को प्रेम का नाम दे देते हैं |शारीरिक सुख और प्रेम दोनों अलग अलग हैं |दाम्पत्य में प्रेम हो भी सकता है और नहीं भी |इसलिए दाम्पत्य सुख को एक शारीरिक सुख ही कहा गया है |और प्रेम में शारीरिक सुख मिले ही ,यह आवश्यक नहीं है |प्रेम को शारीरिक सुख के साथ नहीं बांधा जा सकता |रसखान यहाँ कहते हैं कि " दम्पति सुख अरु विषय रस,पूजा निष्ठां ध्यान "-दम्पति साथ रहकर जो सुख एक दूसरे से प्राप्त करते है ,उसे ही प्रेम नहीं कह सकते |विषय रस -वह सुख जो करने,कहने और सुनने से प्राप्त होता है ,उसे विषय-रस कहा जाता है|जैसे परनिंदा करना और सुनना व्यक्ति को सुख प्रदान करता है |मधुर खाना पीना,सुंगंधित पदार्थों की खुशबू लेना,स्पर्श का सुख प्राप्त करना,सुन्दरता का अवलोकन करना आदि जो भी क्रिया कलाप है वह आपको क्षणिक सुख प्रदान करते है |इस तात्कालिक सुख के कारण उसके प्रति आपका अस्थाई लगाव और जुडाव भी उनके प्रति पैदा हो सकता है ,परन्तु इतना सब कुछ होने के बाद भी आप इसको प्रेम की श्रेणी में नहीं रख सकते |ईश्वर के प्रति निष्ठां,ईश्वर का ध्यान और उससे की गई प्रार्थना और उसकी पूजा करना भी प्रेम नहीं है |यह तो सब आप अपनी कामनाएं पूरी करने के लिए ईश्वर से मात्र प्रार्थना कर रहे हैं |इस पूजा का अर्थ यह कदापि नहीं है कि आपका परमात्मा के प्रति कोई प्रेम है ही |इन सबसे परे जो कुछ है अर्थात बिना आकंक्षा के जो कुछ है , उसको आप प्रेम कह सकते है |रसखान कहते है कि इन सब से बढ़कर जो कुछ भी है ,वास्तव में वही शुद्ध प्रेम है |प्रेम की पहचान बताते हुए कवि रसखान इसे और अच्छी तरह से स्पष्ट करते हैं-
प्रेम रूप दर्पण अहे,रचे अजूबो खेल |
या में अपनों रूप कछु,राखी परिहै अनमेल ||
परमात्मा ने प्रेम रुपी दर्पण को बनाकर अजीब प्रकार का खेल तैयार कर दिया है |जब इस दर्पण में कोई भी अपने आप को निहारेगा तो स्वयं की वास्तविकता उजागर हो जायेगी |इस दर्पण में आपका वह रूप दिखाई देगा जो आपका वास्तविक रूप है,जिसे आप इस भौतिक संसार में स्वीकार नहीं करते हैं |इस दर्पण में तो आपका रूप किसी और प्रकार का है और इस संसार को दिखाने के लिए किसी और प्रकार का |रसखान इस दोहे के माध्यम से समझा रहे हैं कि संसार के लिए जो आपने रूप बना रखा है वह आपके उपयुक्त नहीं है,वह अनमेल है ,इस रूप को दूर ही रख दें और अपने वातविक स्वरूप को पहचाने |व्यक्ति को अपने वास्तविक स्वरूप के साथ ही जीना चाहिए ,कृत्रिम स्वरूप के साथ नहीं |वास्तविक रूप तो एकमात्र आपका प्रेम-रूप ही है |
|| हरिः शरणम् ||
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