Sunday, February 16, 2014

अमृत-धारा |बिहारी-४

                                     बिहारी ने न केवल समाज और व्यक्ति सुधार के लिए रचनाये रची है बल्कि उन्होंने समाज में जो भी घटित हो रहा था ,सभी पर अपनी लेखनी चलाई है |उस समय आज के राजस्थान क्षेत्र के लोग अर्थार्जन के लिए कहीं बहुत दूर जाकर श्रम किया करते थे |उनके पास न तो इतने साधन थे और न ही इतनी सुविधाए कि अपनी पत्नी को अपने साथ लेजाये |पीछे गांव में उसकी वामांगिनी विरह में अपने दिन व्यतीत करते हुए अपने पति का इंतज़ार किया करती थी |आज की तरह संपर्क का कोई भी साधन उस समय नहीं हुआ करता था |इस कारण से उसकी यह प्रतीक्षा उसे भीतर ही भीतर घायल करती जाती थी और उसकी विरह की अग्नि प्रचंड होती जाती थी |बिहारी के कवि ह्रदय ने इन सबको गहराई के साथ अनुभव किया और उस विरहिणी के अंतर्मन की आवाज को अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त किया है |जरा गंभीरता पूर्वक इस आवाज़ को आप भी सुने |
                                    सुनि पथिक मुंह माह,निसी लुंवे चले वहि ग्राम |
                                        बिन पूंछे,बिनु ही कहै,जरती बिचारी बाम ||
                  एक पथिक ,अपनी मंजिल पाने के लिए अपनी राह जा रहा था |माघ का महीना था |उस महीने में राजस्थान में जबरदस्त शीत लहर चलती है |कवि बिहारी कहते हैं कि उस पथिक से मैंने सुना कि जब वह उस गांव से जब वह गुजर रहा था तो वहाँ शीत लहर की बजाय उसने लू चलने का अनुभव किया |पथिक पूछ रहा है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि इस माघ महीने में लू चलने लगे |उस पथिक को बिहारी समझाते हुए कहते हैं कि उस गांव में किसी की बामअंगिनी यानि किसी की धर्मपत्नी ,अपने पति से दूर होने के कारण विरह की अग्नि में जल रही है |अपने इस विरह की आग को वह न तो बुझा पा रही है और न ही किसी से कह सकती है |वह विरह की आग दिन प्रतिदिन बढती ही जा रही है |मानो वह विरहनी अब एक औरत न होकर लुहार की धौंकनी हो गयी हो |इस विरहिणी के विरह की आग के कारण ही हे पथिक!तुम्हे उस गांव में लू चलने का अहसास हुआ है |
                        किसी भी प्रेमिका के विरह को इस प्रकार लेखनी से कागज पर उतारना हर किसी के बस की बात नहीं  है |केवल बिहारी जैसा कवि ही ऐसी बात को इस प्रकार कह सकता है |एक और बानगी देखिये-
                                  मैं ही बौरी विरह बस ,कै बौरो सब गांव |
                                  कहा जनि वे कहत है,ससिहि सीतकर नाँव ||
                 यहाँ विरहिणी कह रही है कि मैं तो मान लेती हूँ कि अपने प्रिय की याद में ,उसके विरह में पागल हो गयी हूँ परन्तु क्या समस्त गांव भी पागल हो गया है जो वे कह रहे हैं चंद्रमा शीतलता प्रदान करता है और इस कारण से उसका एक नाम शीतकर भी है |यहाँ तो चारों और सब कुछ जला जा रहा है ,फिर चन्द्रमा शीतलता कैसे प्रदान कर रहा है ? लगता है सभी ग्रामवासी पागल हो गए हैं जो चन्द्रमा को शीतकर कह रहे हैं |ऐसी विरहिणी को शब्द केवल सहृदय कवि ही दे सकता है |माता सीता जब अशोक वाटिका में भगवान श्रीराम से दूरी के कारण विरह की आग में जल रही थी तब मानस में तुलसी ने उनके विरह को शब्द दिए थे,देखिये-
                       पावकमय ससि स्रवत न आगि |मानिही मोहि जानि हतभागी ||(सुन्दरकाण्ड-१२/९ )
        सीता यहाँ कहती है कि  मुझको विरहिणी समझ कर,सब जानते हुए भी अग्निमय चंद्रमा  अग्नि की वर्षा नहीं कर रहा है | यहाँ सीता भी विरह की अग्नि में जल रही है इसलिए चन्द्रमा को भी पावकमय यानि अग्नि देने वाला बता रही है | अशोकवाटिका में राम के विरह को सहन न करने के कारण सीता ने अपनी चिता बनाली |परन्तु उस चिता को अग्नि प्राप्त नहीं हुई |तब सीता चंद्रमा को यह बात कहती है |ऐसे शब्दों से विरहिणी की व्यथा को व्यक्त करना केवल बिहारी और तुलसी जैसे कवि के बस की ही बात हो सकती है |
                                     || हरिः शरणम् ||

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