भय हमारे मन-मस्तिष्क को अवरुद्ध कर देता है और हम गलत निर्णय लेने लगते हैं। इसलिए अपने प्रति सजगता रखें, ताकि डर का कारण समझ कर अभय प्राप्त कर सकें। आइये, देखें , क्या है इस सम्बन्ध में जाने-माने विचारक और दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति का चिंतन..
हमें डर लगता है। केवल बाहरी कारणों से ही नहीं, अपने अंदर से भी। नौकरी-धंधा छूट जाने का डर, भोजन-पानी से महरूम हो जाने का डर, पद को गंवा देने का डर,अफसरों के फटकारे जाने का डर..। तरह-तरह के बाहरी डर बने ही रहते हैं। इसी तरह हम अंदर से भी डरे रहते हैं - सफल न हो पाने का डर, मौत का डर, अकेलेपन का डर, प्यार न मिलने का डर आदि।
सबसे पहले शारीरिक डर आता है, जो दैहिक प्रतिक्रिया है। हममें बहुत कुछ पशुओं जैसा ही होता है। हमारी दिमागी संरचना का एक बड़ा हिस्सा किसी पशु के दिमाग जैसा ही है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। पशु लोलुप होता है। उसे पुचकारा जाना, थपथपाया जाना अच्छा लगता है। ऐसा ही हम मनुष्यों के साथ भी है। पशु समूह में रहना पसंद करते हैं, मनुष्य भी। पशुओं की अपनी एक सामाजिक संरचना होती है, मनुष्य की भी। हममे बहुत कुछ अभी भी पशुवत ही है।
अब प्रश्न उठता है कि क्या हम पशु से विरासत में पाए प्रभाव और मानवीय समाज की सभ्यता-संस्कृति से अपने पर पड़े प्रभावों से मुक्त हो सकते हैं? क्या यह संभव है कि हम पशु-वृत्तियों से ऊपर उठ पाएं? एक जुबानी जिज्ञासा के समाधान के रूप में ही नहीं, बल्कि यथार्थ में यह खोज पाएं कि क्या हमारा मन उस समाज के प्रभाव से, उस संस्कृति के प्रभाव से परे जा सकता है, जिसमें हम पले-बढ़े हैं? क्योंकि जो है, उससे बिल्कुल भिन्न आयाम की स्थिति की संभावना के लिए भयमुक्त होना आवश्यक है।
यह बात साफ है कि आत्मरक्षा यानी अपनी देह की रक्षा के लिए की गई प्रतिक्रिया डर नहीं होती। रोटी, कपड़ा और मकान, यह हम सभी की जरूरत है, केवल अमीर लोगों की ही नहीं। ये डर तो बुद्धिसंगत हैं, समस्या तो वे डर हैं, जो इनसे इतर दिमागी फितूर होते हैं।
इसलिए मनुष्य को इन डरों से भी मुक्त होना होगा। परंतु यह बहुत ही कठिन है, क्योंकि अधिकांशत: हम जान ही नहीं पाते कि हम डरे हुए हैं। कई बार यह भी नहींजानते कि हम किस बात से डरे हैं। यदि हम जान भी जाएं, तब करें क्या, यह नहीं जानते। अत: हम जो हैं, उससे दूर भागने लगते हैं। पलायन करने लगते हैं। डर तो हमारे अंदर ही हैं, भागकर जहां भी जाएंगे डर बढ़ा हुआ मिलेगा। दुर्भाग्यवश हमने पलायनों का एक जाल फैला लिया है।
आने वाले कल का डर, रोजी-रोटी छूट जाने का डर, रोगग्रस्त हो जाने का डर, दर्द का डर। डर में बीते हुए और आने वाले समय के विषय में विचारों की एक प्रतिक्रिया समाई रहती है। डर आता कैसे है? डर का हमेशा किसी न किसी चीज से संबंध होता है, वरना डर होता ही नहीं। विचार है डर का जन्मदाता।
मैं अपनी नौकरी या काम-धंधा छूट जाने के बारे में या इसकी आशंका के बारे में सोचता हूं और यह सोचना, यह विचार डर को जन्म देता है। इस प्रकार विचार खुद को समय में फैला देता है, क्योंकि विचार समय ही है। मैं कभी किसी समय जिस रोग से ग्रस्त रहा, मैं उस विषय में सोचता हूं, क्योंकि उस समय का दर्द या बीमारी का अहसास मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं डर जाता हूं कि मुझे फिर वही बीमारी न हो जाए। दर्द का एक अनुभव मुझे हो चुका है, उसके विषय में विचारना और उसे नापसंद करना डर पैदा कर देता है। डर का सुख-विलासिता से करीबी रिश्ता है, निकट का संबंध है। हममें से अधिकांश लोग सुख-विलास से प्रेरित रहते हैं, संचालित रहते हैं। किसी पशु की भांति ऐंद्रिक सुख हमारे लिए सर्वोच्च महत्व रखते हैं। यह सुख विचार का ही एक हिस्सा होता है। जिस चीज से सुख मिला हो, उसके बारे में सोचने से सुख मिलता है। क्या आपने ध्यान दिया है, आपको किसी ऐसे इंद्रिय सुख का अनुभव हुआ हो, तो उसके बारे में सोचना, उस सुख को बढ़ा देता है। जैसे आपके द्वारा अनुभूत किसी पीड़ा के बारे में सोचना डर पैदा करता है, उसी तरह।
अतएव विचार ही मन में पैदा होने वाले सुख का या डर का जनक है। विचार ही सुख की मांग करने और उसकी निरंतरता चाहने के लिए जिम्मेदार है। वह भय को जन्म देने के लिए, डर का कारण बनने के लिए जिम्मेदार है। मैं यह सब जानता हूं, पर क्या ऐसा संभव है कि सुख या दुख-दर्द के बारे में मैं सोचूं ही न? क्या यह संभव है कि जब विचारणा की जरूरत हो तब ही सोचा जाए, अन्यथा बिल्कुल नहीं? जब आप किसी दफ्तर में काम करते हैं, आजीविका में लगे होते हैं, तब विचार जरूरी होता है, वरना आप कुछ नहीं कर सकेंगे। जब आप बोलते हैं, लिखते हैं, बात करते हैं, कार्यालय जाते हैं, तब विचार जरूरी होता है। वहां विचार को ऐन सही ढंग से, निर्वैयक्तिक रूप से काम करना होता है। वहां उसे किसी आदत के हिसाब से नहीं चलना होता। वहां विचार सार्थक है, परंतु क्या किसी भी अन्य क्रिया के क्षेत्र में विचार आवश्यक है?
इसे समझें। हमारे लिए विचार अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। हमारे पास यही तो एकमात्र उपकरण है। यह विचार उस स्मृति की प्रतिक्रिया है, जो अनुभव, ज्ञान और परंपराओं द्वारा संचित कर ली गई है। स्मृति होती है समय का परिणाम। इसी पृष्ठभूमि से हम प्रतिक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रिया विचारगत होती है। विचार कुछ निश्चित स्तरों पर तो जरूरी होता है, परंतु जब यह बीते और आने वाले समय में, अतीत और भविष्य में स्वयं को मानसिक तौर पर फैलाने लगता है, तब यह डर पैदा करता है और सुख भी। परंतु इस प्रक्रिया में मन मंद हो जाता है और इसी वजह से अपरिहार्यत: अकर्मण्यता आ जाती है।
डर विचार की पैदाइश है, तो क्या विचार आत्मरक्षात्मक रूप से भविष्य के विषय में सोचना बंद कर सकता है? चीजों, व्यक्तियों और विचारों पर निर्भरता भय को जन्म देती है। निर्भरता उपजती है अज्ञान से, खुद को न जानने के कारण। डर, दिल-दिमाग की अनिश्चितता का कारक बनता है और यह अनिश्चितता संप्रेषण और समझ-बूझ में बाधक बनती है। 'स्व' के प्रति सजगता द्वारा हम खोजना शुरू करते हैं और इससे डर की वजह को समझ पाते हैं - केवल सतही डरों को ही नहीं, बल्कि गहरे कारणों से उत्पन्न और सदियों से सँचित डरों को भी। डर अंदर से भी पैदा होता है और बाहर से भी आता है। यह अतीत से जुड़ा होता है। अत: अतीत से विचार भावना को मुक्त करने के लिए अतीत को समझा जाना आवश्यक है और वह भी वर्तमान के माध्यम से। अतीत सदैव वर्तमान को जन्म देने को आतुर रहता है जो 'मुझे', 'मेरे' और 'मैं' की तद्रूप स्मृति बन जाता है। यह सारे भय का मूल है।
|| हरिः शरणम् ||
|| हरिः शरणम् ||
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