Friday, February 28, 2014

भय की समाप्ति |

                                            एक बार एक राज्य में बड़ा ही बलवान पहलवान रहा करता था |उसकी पहलवानी के किस्से दूर दूर तक मशहूर थे |उस जैसा पहलवान आस पास के किसी भी राज्य में नहीं था |उसको अपनी पहलवानी का बड़ा गुमान था |उसने पूरे राज्य में एलान करवा रखा था कि पहलवानी में उसे कोई भी शिकस्त नहीं दे सकता |उसने आस पास के सभी राज्यों में मुनादी करवा दी कि उसे अखाड़े में जो कोई भी हरा देगा ,वह उसी दिन से पहलवानी छोड़ देगा और उस हराने वाले की गुलामी कबूल कर लेगा |मुनादी वाले दिन ही उस राज्य से एक संत गुजर रहे थे |उन्हें उस पहलवान का यह अहंकार अनुचित लगा |उन्होंने पहलवान की अखाड़े में कुश्ती लड़ने की चनौती स्वीकार करने के साथ साथ  उसे हराने की घोषणा भी कर दी |
                                     अब वे ठहरे एक संत |बिलकुल एक सींकिया पहलवान |लोगों ने संत को समझाया भी कि वह बड़ा खतरनाक पहलवान है |आप क्यों अपनी हड्डी पंसली एक करने पर तुले है ?आप तुरंत ही इस चुनौती को वापिस ले लें |लेकिन संत तो मन में जैसे कुछ और ही ठानकर बैठे थे |अखाड़े में भिड़ने का दिन तय हो गया |निश्चित दिन और स्थान पर तमाशा देखने को भीड़ जुट गई |तय समय से पहले ही संत पहुँच गए वहाँ,उस अखाड़े में |जाते ही अखाड़े के ठीक बीचों बीच पीठ के बल सीधे लेट गए |पहलवान आया और उन्हें कुश्ती के लिए भिडने की चुनौती देने लगा |संत निर्विकार भाव से पूर्ववत अखाड़े के बीच ही लेटे रहे |पहलवान ने उन्हें फिर से चुनौती दी |संत बोले-"भिडने से कौन इंकार कर रहा है?आ, मुझ से भिड़,और कर दे मुझे चित्त |" पहलवान ने कहा -"उठ |आकर मुझ से भिड़|" संत फिर उसी अंदाज़ में बोले-"अरे!जीतने का शौक तो तुझे है और जिसको जीतना है,वह आये और भिडे |" पहलवान यह सुनकर अपने बाल नोचने लगा |बोला-"आप तो पहले से ही चित्त हुए अखाड़े में लेटे हैं ,चित्त हुए को चित्त कैसे किया जा सकता है ?"
                                        संत बोले-"इसका मुझे पता नहीं |अगर जीतना है ,तो आकर मुझे चित्त कर | तब ही मैं अपनी हार मानूँगा  |"पहलवान ने लाख कोशिशे की परन्तु संत तो टस से मस नहीं हुए |अंत में पहलवान ने अपनी हार मान ली | वह पहलवान उन संत से भिड़ ही नहीं सका था |बिना लड़े-भिडे कैसी जीत |इस तरह वह संत को कुश्ती में  हरा नहीं सका | बिना लड़े-भिडे कौन किसको और कैसे हरा सकता है ?इस कहानी में हार हुई-पहलवान के अहंकार की और जीत हुई संत के भय-मुक्त मन की | यद् रखना,केवल भौतिकता  ही हार-जीत का मापदंड नहीं होती |
                                           यहाँ आकर यह कहानी समाप्त हो जाती है और संत हमें एक महत्वपूर्ण सन्देश दे जाते हैं कि जिंदगी में हार-जीत का ख्याल मन से निकाल दो, सुख-दुःख का मत सोचो, पाने-खोने की कभी भी चिंता न करे ,भय अपने आप दिल से निकल जायेगा | भय-मुक्त व्यक्ति ही जिंदगी में कभी भी नहीं हारेगा ,कभी भी दुःख उसके द्वार पर नहीं झांकेगा | इस संसार में हमेशा दो पहलू साथ-साथ रहेंगे | यथा-हार-जीत,सुख-दुःख,पाना-खोना,जीना-मरना आदि |अगर आपको भयमुक्त होना है तो जो आप अपने साथ होने देना नहीं चाहते है ,उसे भी ह्रदय से स्वीकार करना सीखो |अगर आप कोई काम शुरू कर रहे हैं तो आप उस कार्य में निम्नतम आपके साथ क्या हो सकता है उसको प्राप्ति के रूप में स्वीकार करना सीखो |फिर आपको किसी भी प्रकार का भय नहीं सताएगा |इस कहानी में संत शुरु से  ही जानते थे कि पहलवान को हराना उनके लिए संभव नहीं है |इसलिए उन्होंने पहले ही परिणाम को समझते हुए स्वीकार कर लिया और भयमुक्त हो गए |उन्हें अपनी बहादुरी का कोई भ्रम नहीं रहा |इसी कारण से भय मुक्त होकर ही उन्होंने अपनी जीत हासिल की|आप कहेंगे,बिना लड़े भी कभी कोई जीत होती है | मैं भी कहता हूँ कि कोई जीत बिना संघर्ष के कैसे हो सकती है ?परन्तु यहाँ जीत हो रही है ,मन पर छाये भय से और जिसने मन के भय को जीत लिया,फिर उसे संसार की कोई ताकत हरा नहीं सकती |इस संसार में जीतता वही है जो अपने भीतर के भय को समाप्त करदे | भय-मुक्त जीवन ही उन्मुक्त-जीवन है |भयरहित जीवन ही वास्तविक जीवन है |
                                             || हरिः शरणम् || 

Thursday, February 27, 2014

भय का विश्लेषण |

          भय हमारे मन-मस्तिष्क को अवरुद्ध कर देता है और हम गलत निर्णय लेने लगते हैं। इसलिए अपने प्रति सजगता रखें, ताकि डर का कारण समझ कर अभय प्राप्त कर सकें। आइये, देखें , क्या है इस सम्बन्ध में जाने-माने विचारक और दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति का चिंतन..
             हमें डर लगता है। केवल बाहरी कारणों से ही नहीं, अपने अंदर से भी। नौकरी-धंधा छूट जाने का डर, भोजन-पानी से महरूम हो जाने का डर, पद को गंवा देने का डर,अफसरों के फटकारे जाने का डर..। तरह-तरह के बाहरी डर बने ही रहते हैं। इसी तरह हम अंदर से भी डरे रहते हैं - सफल न हो पाने का डर, मौत का डर, अकेलेपन का डर, प्यार न मिलने का डर आदि।
               सबसे पहले शारीरिक डर आता है, जो दैहिक प्रतिक्रिया है। हममें बहुत कुछ पशुओं जैसा ही होता है। हमारी दिमागी संरचना का एक बड़ा हिस्सा किसी पशु के दिमाग जैसा ही है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। पशु लोलुप होता है। उसे पुचकारा जाना, थपथपाया जाना अच्छा लगता है। ऐसा ही हम मनुष्यों के साथ भी है। पशु समूह में रहना पसंद करते हैं, मनुष्य भी। पशुओं की अपनी एक सामाजिक संरचना होती है, मनुष्य की भी। हममे बहुत कुछ अभी भी पशुवत ही है।
                  अब प्रश्न उठता है कि क्या हम पशु से विरासत में पाए प्रभाव और मानवीय समाज की सभ्यता-संस्कृति से अपने पर पड़े प्रभावों से मुक्त हो सकते हैं? क्या यह संभव है कि हम पशु-वृत्तियों से ऊपर उठ पाएं? एक जुबानी जिज्ञासा के समाधान के रूप में ही नहीं, बल्कि यथार्थ में यह खोज पाएं कि क्या हमारा मन उस समाज के प्रभाव से, उस संस्कृति के प्रभाव से परे जा सकता है, जिसमें हम पले-बढ़े हैं? क्योंकि जो है, उससे बिल्कुल भिन्न आयाम की स्थिति की संभावना के लिए भयमुक्त होना आवश्यक है।
               यह बात साफ है कि आत्मरक्षा यानी अपनी देह की रक्षा के लिए की गई प्रतिक्रिया डर नहीं होती। रोटी, कपड़ा और मकान, यह हम सभी की जरूरत है, केवल अमीर लोगों की ही नहीं। ये डर तो बुद्धिसंगत हैं, समस्या तो वे डर हैं, जो इनसे इतर दिमागी फितूर होते हैं।
               इसलिए मनुष्य को इन डरों से भी मुक्त होना होगा। परंतु यह बहुत ही कठिन है, क्योंकि अधिकांशत: हम जान ही नहीं पाते कि हम डरे हुए हैं। कई बार यह भी नहींजानते कि हम किस बात से डरे हैं। यदि हम जान भी जाएं, तब करें क्या, यह नहीं जानते। अत: हम जो हैं, उससे दूर भागने लगते हैं। पलायन करने लगते हैं। डर तो हमारे अंदर ही हैं, भागकर जहां भी जाएंगे डर बढ़ा हुआ मिलेगा। दुर्भाग्यवश हमने पलायनों का एक जाल फैला लिया है।
            आने वाले कल का डर, रोजी-रोटी छूट जाने का डर, रोगग्रस्त हो जाने का डर, दर्द का डर। डर में बीते हुए और आने वाले समय के विषय में विचारों की एक प्रतिक्रिया समाई रहती है। डर आता कैसे है? डर का हमेशा किसी न किसी चीज से संबंध होता है, वरना डर होता ही नहीं। विचार है डर का जन्मदाता।
            मैं अपनी नौकरी या काम-धंधा छूट जाने के बारे में या इसकी आशंका के बारे में सोचता हूं और यह सोचना, यह विचार डर को जन्म देता है। इस प्रकार विचार खुद को समय में फैला देता है, क्योंकि विचार समय ही है। मैं कभी किसी समय जिस रोग से ग्रस्त रहा, मैं उस विषय में सोचता हूं, क्योंकि उस समय का दर्द या बीमारी का अहसास मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं डर जाता हूं कि मुझे फिर वही बीमारी न हो जाए। दर्द का एक अनुभव मुझे हो चुका है, उसके विषय में विचारना और उसे नापसंद करना डर पैदा कर देता है। डर का सुख-विलासिता से करीबी रिश्ता है, निकट का संबंध है। हममें से अधिकांश लोग सुख-विलास से प्रेरित रहते हैं, संचालित रहते हैं। किसी पशु की भांति ऐंद्रिक सुख हमारे लिए सर्वोच्च महत्व रखते हैं। यह सुख विचार का ही एक हिस्सा होता है। जिस चीज से सुख मिला हो, उसके बारे में सोचने से सुख मिलता है। क्या आपने ध्यान दिया है, आपको किसी ऐसे इंद्रिय सुख का अनुभव हुआ हो, तो उसके बारे में सोचना, उस सुख को बढ़ा देता है। जैसे आपके द्वारा अनुभूत किसी पीड़ा के बारे में सोचना डर पैदा करता है, उसी तरह।
              अतएव विचार ही मन में पैदा होने वाले सुख का या डर का जनक है। विचार ही सुख की मांग करने और उसकी निरंतरता चाहने के लिए जिम्मेदार है। वह भय को जन्म देने के लिए, डर का कारण बनने के लिए जिम्मेदार है। मैं यह सब जानता हूं, पर क्या ऐसा संभव है कि सुख या दुख-दर्द के बारे में मैं सोचूं ही न? क्या यह संभव है कि जब विचारणा की जरूरत हो तब ही सोचा जाए, अन्यथा बिल्कुल नहीं? जब आप किसी दफ्तर में काम करते हैं, आजीविका में लगे होते हैं, तब विचार जरूरी होता है, वरना आप कुछ नहीं कर सकेंगे। जब आप बोलते हैं, लिखते हैं, बात करते हैं, कार्यालय जाते हैं, तब विचार जरूरी होता है। वहां विचार को ऐन सही ढंग से, निर्वैयक्तिक रूप से काम करना होता है। वहां उसे किसी आदत के हिसाब से नहीं चलना होता। वहां विचार सार्थक है, परंतु क्या किसी भी अन्य क्रिया के क्षेत्र में विचार आवश्यक है?
                इसे समझें। हमारे लिए विचार अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। हमारे पास यही तो एकमात्र उपकरण है। यह विचार उस स्मृति की प्रतिक्रिया है, जो अनुभव, ज्ञान और परंपराओं द्वारा संचित कर ली गई है। स्मृति होती है समय का परिणाम। इसी पृष्ठभूमि से हम प्रतिक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रिया विचारगत होती है। विचार कुछ निश्चित स्तरों पर तो जरूरी होता है, परंतु जब यह बीते और आने वाले समय में, अतीत और भविष्य में स्वयं को मानसिक तौर पर फैलाने लगता है, तब यह डर पैदा करता है और सुख भी। परंतु इस प्रक्रिया में मन मंद हो जाता है और इसी वजह से अपरिहार्यत: अकर्मण्यता आ जाती है।
              डर विचार की पैदाइश है, तो क्या विचार आत्मरक्षात्मक रूप से भविष्य के विषय में सोचना बंद कर सकता है? चीजों, व्यक्तियों और विचारों पर निर्भरता भय को जन्म देती है। निर्भरता उपजती है अज्ञान से, खुद को न जानने के कारण। डर, दिल-दिमाग की अनिश्चितता का कारक बनता है और यह अनिश्चितता संप्रेषण और समझ-बूझ में बाधक बनती है। 'स्व' के प्रति सजगता द्वारा हम खोजना शुरू करते हैं और इससे डर की वजह को समझ पाते हैं - केवल सतही डरों को ही नहीं, बल्कि गहरे कारणों से उत्पन्न और सदियों से सँचित डरों को भी। डर अंदर से भी पैदा होता है और बाहर से भी आता है। यह अतीत से जुड़ा होता है। अत: अतीत से विचार भावना को मुक्त करने के लिए अतीत को समझा जाना आवश्यक है और वह भी वर्तमान के माध्यम से। अतीत सदैव वर्तमान को जन्म देने को आतुर रहता है जो 'मुझे', 'मेरे' और 'मैं' की तद्रूप स्मृति बन जाता है। यह सारे भय का मूल है।
               || हरिः शरणम् ||

Wednesday, February 26, 2014

भय का कारण |

                                             चाहे कोई कितना ही प्रयास करले भय से मुक्त होना आसान नहीं है |जब तक भय से मुक्त नहीं हो पाओगे तब तक भ्रम-जाल से निकल नहीं पाओगे|भ्रम-जाल में केवल छटपटाहट ही है,आनंद कहीं नहीं |आनंद तो भ्रम-जाल से मुक्त होने पर ही उपलब्ध होता है |जिस किसी को भी आप कहेंगे कि आपको भय है ,आप डरते हैं ,तब वह व्यक्ति अपने आप को बहादुर दिखाने का प्रयास करेगा |वास्तविकता में वह बहादुर होता नहीं है बल्कि बहादुर होने का उसे भ्रम ही होता है |जो भी अपने आपको बहादुर और भय-मुक्त प्रदर्शित करता है ,समझ लो वह वास्तव में सबसे ज्यादा भय ग्रस्त है |वह इस बहादुरी का भी भयवश एक भ्रम पाले हुए है अन्यथा बहादुरी  प्रदर्शित करने की कोई आवश्यकता भी नहीं है |
                                                अब हम जानने का प्रयास करेंगे कि भय मन से निकलने के स्थान पर दिन प्रतिदिन बढता ही क्यों जाता है ?भय का कारण क्या है,उसका भोजन क्या है, जो उसका निरंतर पोषण करता रहता है ?इस संसार में शिशु जब जन्म लेता है,तब वह भयरहित होता है |उसे किसी भी बात का भय नहीं सताता है |फिर बड़ा होकर वह इतना भयग्रस्त क्यों हो जाता है?जीवन के प्रारंभ से ही हम बच्चे को भयग्रस्त करना शुरू कर देते है |प्रारम्भ हम करते है अँधेरे के भय से,भूत के भय से |जबकि हम सभी जानते हैं की अँधेरे से भय किस काम का |और भूत का.....किसने देखा है आज तक उसे ?जिसने भी देखा है या देखने का दावा करता है क्या उसने किसी को भूत दिखाया भी है?अगर नहीं तो फिर भूत के अस्तित्व को स्वीकार भी किस आधार पर किया जाये |परन्तु इनके भय से बच्चे में भय का और भ्रम का बीजारोपण अवश्य हो जाता है |बड़ा होने पर वह इनसे भय खाना तो बंद कर सकता है,परन्तु एक बार जो उसके मन में भय का बीजारोपण जो हो गया है वह ताउम्र कभी भी खत्म नहीं होगा |
                              अब युवावस्था आते आते कुछ खोने का भय उसमे स्थान बना लेता है |और उस भय का पोषण करती है मन में पैदा होने वाली कामनाएं और इच्छाएं|अगर कुछ कामनाएं पूरी हो भी गई तो उनके खोने का भय सताता है |बेटा हो गया तो उसके अस्वस्थ हो जाने का भय,अच्छी बहु मिल गई तो बेटे के खो जाने का भय,पैसा कमा लिया तो उसके खो जाने का भय ,अगर आर्थिक रूप से सबल हो गए तो उस स्थान पर बने रहने का भय .....और अंत में सब कुछ पा लिया तो मर जाने पर इन सबके खो जाने का भय |इस प्रकार उसकी ये सब कामनाएं उसमे अपने प्रति एक मोह पैदा करदेती है |यह मोह ही भय का सबसे बड़ा कारण है |
                                       समस्त भय और भ्रम के मूल में यह मोह ही होता है,यह चाह ही होती है |चाह और मोह भी एक दूसरे के पूरक हैं |चाह पूरी हुई तो प्राप्त फल के साथ मोह और अगर चाह पूरी न हुई तो उस चाह का मोह |भय चाह पूरी न होने का या फिर चाह के उपरांत मिले फल के साथ मोह पैदा हो जाने से उस फल के खो जाने का भय |इस तरह यह चाह,मोह,भय ,भ्रम और फिर से एक नई चाह -इस तरह  कभी भी न टूटने वाला चक्र बन जाता है |यही भ्रम-जाल है |
                                  इस प्रकार हमने जाना कि भय का मूल कारण संसार से उत्पन्न चाह और संसार के प्रति मोह होना ही है |जिस दिन व्यक्ति के मन से समस्त चाह, इच्छाएं, अपेक्षाएं और कामनाएं नष्ट हो जायेगी तब मोह भी समाप्त हो जायेगा,भय भी समाप्त हो जायेगा और इनसे पैदा हुआ भ्रम भी |
                       || हरिः शरणम् || 

Tuesday, February 25, 2014

मृत्यु-भय |

                                  महाभारत युद्ध के प्रारंभ होने से पहले जब अर्जुन ने अपने सारथी श्रीकृष्ण को कहा कि रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में ले चलिए,मैं समग्रता के साथ देखना चाहता हूँ कि कौन कौन इस युद्ध मैदान में किस किस के सामने आ खड़े हुए हैं ? इस स्थिति में मात्र यही समझा जायेगा कि अर्जुन अपनी और अपने दुश्मन की सेनाओं का आकलन करेगा और उसी के अनुरूप ही अपनी युद्ध-नीति को निर्धारित करेगा |युद्ध-भूमि में आने तक अर्जुन के मन में किसी भी प्रकार की दुर्लबता नहीं थी | लेकिन जब उसने युद्ध-भूमि में अपने ही परिजनों को अपने दुश्मनों के रूप में देखा तब उसमे एक उनके प्रति प्रकार का मोह पैदा हुआ |आप जिससे मोह करने लगते हैं ,उसकी कुशलता को लेकर आप सदैव ही चिंतित रहते हैं | यह चिंता अपने परिजनों की मृत्यु को लेकर भय पैदा करती है और यह भय ही कायरता को जन्म देता है | मोह और भय दोनों मिलकर व्यक्ति को भ्रमित कर देते हैं |यह भ्रम फिर मनुष्य की सोचने और समझने की क्षमता को भी भ्रमित कर देता है |अर्जुन भी इसी प्रकार भ्रम-जाल में उलझ गया |वह भ्रमित होते हुए युद्ध के परिणाम को अलग ही सन्दर्भ में देखने लगा | तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसके भ्रम को तोड़ने का निर्णय लिया |
                    गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को इस अज्ञान के बारे में समझाते हुए कहते है-
                                    अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषस्य |
                                    गतासूनगतासूंश्च    नानुशोचन्ति   पण्डिताः || गीता २/११||
                           अर्थात्,हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पंडितों के से वचनों को कहता है ;परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं ,उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं ,उनके लिए भी पंडितजन शोक नहीं करते हैं |
                     गीता का समस्त ज्ञान मनुष्य के भय और भ्रम को दूर करने के लिए ही है |मैंने पहले ही यह स्पष्ट किया था कि मृत्यु का भय मनुष्य को सबसे अधिक होता है ,चाहे वह मृत्यु स्वयं की हो,परिजनों की हो या अन्य किसी की |इस भय से दूर भागने के लिए वह भ्रम का सहारा लेता है |उस मृत्यु का भय दूर करने के लिए वह मृत्यु से बचने की कोशिश करता है |जिस कारण से ही वह दूसरे क्रिया-कलापों का सहारा लेता है,जैसे मनोरंजन करना ,सांसारिक कार्यों में उलझे हुए रहना,पुस्तके पढते हुए ज्ञानार्जन करना आदि | परन्तु वह इन सब के बाद भी मृत्यु के भय से मुक्त नहीं हो पाता है |श्रीकृष्ण यहाँ पर अर्जुन को यही समझा रहे हैं कि किसी की भी मृत्यु का शोक करना उचित नहीं है |जो मर चुके हैं उनके लिए शोक करने का कोई औचित्य नहीं है और जो जिन्दा है उनके लिए भी किसी प्रकार का दुःख न करे,क्योंकि उन्हें भी एक न एक दिन मरना ही है |इसलिए किसी के भी लिए शोक न कर,क्योंकि मनुष्य शोक करने के योग्य ही नहीं है |भगवान यहाँ यही कहना चाहते हैं कि जिसने यहाँ जन्म लिया है उसकी मृत्यु भी होना निश्चित है |अतः तू शोक न करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक क्यों कर रहा है ?
                                  एक गडरिया था | वह प्रतिदिन एक भेड़ को काटकर उसका मांस बेचा करता था |  उसके जीवनयापन के लिए यह आवश्यक भी था |जब वह किसी एक भेड़ को पकड़ने आता तो सभी भेड़े उससे दूर भागती |जिससे उसे किसी एक भेड़ को पकडने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती |इससे परेशान होकर वह अपने गुरु के पास गया |गुरु ने कहा कि प्रत्येक जीव की यह मानसिकता होती है कि वह मृत्यु के भय से भागता है |तुम अपनी प्रत्येक भेड़ को अलग से ले जाकर यह समझा दो कि मैं तुम्हे नहीं मारूंगा,किसी अन्य को ही पकड़ कर मारूंगा | गुरु की बात मानते हुए गडरिये ने सभी भेड़ों को अलग अलग लेजाकर प्रत्येक के कान में यह बात कह दी |दूसरे दिन जब वह गडरिया किसी एक भेड़ को मारने के लिए पकडने को आया तो सब भेड़े खड़ी खड़ी आराम से चरती रही |उसने आसानी के साथ एक भेड़ को पकड़ लिया |उसे आश्चर्य हुआ कि आज भेड़े उससे बचने के लिए इधर उधर नहीं भागी |कारण क्या था ,आप समझ ही गए होंगे ?प्रत्येक भेड़ यह सोच रही थी कि मुझे तो यह गडरिया मारेगा नहीं,क्योंकि उसने मुझे न मारने का आश्वासन दे रखा है |यह भ्रम भेड़ों की भयमुक्ति के लिए काफी था | परन्तु वह पशु है और मनुष्य एक इंसान | फिर भी मनुष्य भी ऐसे ही भ्रम में जी रहा होता है कि मेरी मृत्यु अभी कहाँ ? मर तो अन्य लोग रहे हैं |परन्तु यह मात्र भय से मुक्त होने के लिए भ्रम मात्र है , भय कही भीतर बैठा साँस ले रहा है |इस भ्रम से मुक्ति के लिए संत यही कहते हैं कि मृत्यु शाश्वत सत्य है,इससे भागो मत |मृत्यु का शोक मत करो |मृत्यु को सदैव याद रखें |
                             अब प्रश्न यह उठता है कि मृत्यु का शोक नहीं करें,तो क्या हम भयमुक्त हो जायेंगे ? नहीं, बिलकुल भी नहीं |मृत्यु को जब तक हम समझ नहीं पाएंगे तब तक इस भ्रम से निकल पाना मुश्किल है |सभी संत लोग कहते हैं कि मृत्यु को सदैव याद रखे |उनका कहने का अर्थ साफ है कि मृत्यु कभी भी आ सकती है क्योंकि यह शाश्वत सत्य है |अतः इससे डरे नहीं बल्कि इसको समझे | मृत्यु को एक अवस्था की तरह समझना-जैस बालक,युवा ,प्रोढ,वृद्धावस्था और अंत में शरीर की मृत्यु और फिर नया शरीर | जिस दिन मृत्यु को आप समझ लेंगे तब आपके मन से भय और भ्रम दोनों ही समाप्त हो जायेंगे | भय और भ्रम के जाते ही सत्य आपके सामने होगा | वही सत्य आपको अपनी वास्तविकता से परिचय करायेगा |
                                  || हरिः शरणम् ||

Monday, February 24, 2014

मोह-भ्रम |

                                    संसार में जितनी भी भ्रांतियां है ,उन सबके मूल में भय है | यह भय न जाने कितने कारणों से पैदा होता है |परन्तु भय के पैदा हो जाने पर व्यक्ति को ऐसा भ्रम होता है मानो वह जो भी विचार कर रहा है,वही सत्य है |भ्रम, सत्य का विलोम ही तो है |आप भ्रम को ही एक सत्य के रूप में प्रस्तुत करने लगते है | अपने एक भ्रम को सत्य साबित करने के लिए वह दूसरा भ्रम पाल लेता है | सैकड़ों भ्रम एक साथ भी मिल जाये तो भी वे कभी भी एक सत्य नहीं बन सकते |यह भ्रम व्यक्ति की पलायनवादी मानसिकता को ही दर्शाता है |
                  भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-
                                   कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् |
                                   अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन            || गीत२/२||
                                   क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते |
                                   क्षुद्रं   हृदयदौर्बल्यं   त्यक्त्वोत्तिष्ठ   परन्तप || गीता २/३||
                  अर्थात्,हे अर्जुन!तुम्हे इस असमय में यह मोह किस हेतु से उपलब्ध हुआ ? क्योंकि यह न तो श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है , न स्वर्ग को देनेवाला है और न ही कीर्ति करने वाला है | हे अर्जुन!नपुसंकता को मत प्राप्त हो,तुझमे यह उचित नहीं जान पड़ती |हे परंतप !ह्रदय की इस तुच्छ दुर्लबता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा |
                  श्रीमद्भागवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण के मुख से यही श्लोक सबसे पहले निकले हैं |जब अर्जुन अपनी विरोधी सेना में अपने ही भाई-बंधुओं,सगे-सम्बन्धियों और नाते-रिश्तेदारों को ही देखता है ,तो उसके मन में युद्ध न करने के भाव आ जाते हैं | वह सोचने लगा था कि अपने भाइयों को मारकर अगर उसे सारा साम्राज्य मिल भी गया ,तो भी वह मेरे लिए नरकगामी ही होगा |अतः वह युद्ध नहीं करना चाहता था |वह अपने इस विचार को शास्त्रोक्त बता रहा था |यह अर्जुन का ज्ञान के प्रति असमय पैदा हुआ मोह था |अर्जुन एक योद्धा था और युद्ध करना ही उसका धर्म था |युद्ध न करना उसको बदनाम कर सकता था |इस कारण से इसे अर्जुन की दुर्लबता कहा गया है |अर्जुन में यह मोह और दुर्लबता ,दोनों ही भय के कारण पैदा हुए | वह भय था-अपने ही हाथों होने वाली परिजनों की मृत्यु का |इस भय ने उसके मस्तिष्क में एक प्रकार का भ्रम पैदा कर दिया | उस भ्रम के कारण ही उसे शास्त्र ज्ञान याद आया, जिससे वह अपने निर्णय को सत्य साबित कर सके |जबकि वास्तविकता यह थी कि एक योद्धा होने के कारण शास्त्रोक्त यही था कि वह युद्ध करे | परन्तु भ्रम के कारण वह युद्ध न करने को सही बता रहा था | जबकि युद्ध न करना एक योद्धा के लिए अनुचित था |युद्ध न करना पलायनवादी मानसिकता दर्शाता है |
                   वह युद्ध करने से कभी भी नहीं डरता था |इससे पहल्र भी उसने कई युद्ध लड़े थे |परन्तु महाभारत में उसे युद्ध अपने ही भाई-बंधुओं से करना था |भाइयों के मरने की कल्पना मात्र से ही वह भयभीत हो जाता है |तब  उसे शास्त्र याद आते हैं | उनकी आड़ में वह युद्ध से पलायन कर अपने भ्रम को सही साबित करने की एक कोशिश कर रहा था |लेकिन श्रीकृष्ण जैसे सारथी और सखा होने के कारण यह संभव नहीं हो सका |अगर श्रीकृष्ण के स्थान पर आज के कोई तथाकथित पंडित-ज्ञानीजन होते तो शायद अर्जुन के निर्णय को उचित बताते हुए स्वीकार भी कर लेते |
                    इस संसार में उचित और अनुचित के मध्य विभाजन रेखा बड़ी ही सूक्ष्म है ,जिस कारण से उचित को अनुचित और अनुचित को उचित बता देना बड़ा आसान है |अपने स्वर्थानुसार लोग इसे स्वीकार भी कर लेते हैं |आज आवश्यकता है कि इस रेखा को सही तरीके से समझकर ही उचित अनुचित का निर्णय किया जाय ,अन्यथा इस भ्रमजाल से कभी भी मुक्ति नहीं मिल सकेगी | बिना भय और भ्रम से मुक्त हुए सत्य को पाना असंभव है |
                                     || हरिः शरणम् ||

Sunday, February 23, 2014

भय की वास्तविकता |

                                             आप अपना वास्तविक जीवन केवल इसी लिए नहीं जी पा रहे हैं क्योंकि आपको दूसरों की देखा देखी जीना ही उचित लगता है |लेकिन ऐसा जीवन क्या आपको जीने की संतुष्टि दे सकता है ?नहीं,कदापि नहीं| ऐसा जीना आपको जीने का भ्रम ही देता है ,संतुष्टि नहीं |ऐसे जीवन से आप संतुष्ट हो ही नहीं सकते क्योंकि ऐसा जीवन आप दूसरों के अनुसार जी रहे है.स्वयं के अनुसार नहीं |जब तक मनुष्य स्वयं के अनुसार कुछ नहीं कर लेता तब तक उसे संतुष्टि मिल ही नहीं सकती |स्वयं के संतुष्ट हो जाने को ही आत्मसंतुष्टि कहा जाता है |आत्म संतुष्टि तभी मिल पायेगी जब आप इस भ्रम-जाल से मुक्ति पा लेंगे |इस भ्रम-जाल को निर्मित करने में भय की मुख्य भूमिका होती है अतः सबसे पहले भय की वास्तविकता जाननी होगी |भय को जाने बिना हम भ्रम से बाहर नहीं निकल सकते |
                                    भय को कई तरीकों से वर्णित किया जा सकता है -जैसे संसार का भय ,किसी इंसान या जानवर का भय,परिवार से बिछडने का भय,मरने का भय,इज्जत का भय,किसी काम के गलत हो जाने का भय आदि | सभी प्रकार के भय केवल मात्र एक ही कारण के अंतर्गत आ जाते है |वह है "कुछ या सब कुछ खो जाने" का भय |यही भय की वास्तविकता है |जब तक मानव मन से यह खो जाने का भय नहीं निकल जायेगा तब तक उसका अपने ही स्वभाव से जीना नहीं हो पायेगा | जिस दिन व्यक्ति सब कुछ खो जाने को तैयार हो जाता है, उस दिन से वह भय-मुक्त हो जाता है |फिर उसे न तो मरने का भय रहता है और न ही किसी प्रकार की झूठी इज्जत का |वह संसार में प्रत्येक भय से मुक्त हो जायेगा और यह भय से मुक्ति उसे भ्रम से भी मुक्ति दिला देगी |
                                     जब मानव इस संसार में जन्म लेता है तब उसका भविष्य पहले से ही तय होता है | उसके इस जीवन में क्या होना है,क्या करना है और कब तक और कैसे जीना है ,सब कुछ पहले से ही निर्धारित किया जा चूका होता है |इसलिए मानव को अपने इस जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं सोचना चाहिए जो एक प्रकार का भय पैदा करे | भय मुक्त जीवन ही उन्मुक्त जीवन है |ऐसे उन्मुक्त जीवन में भ्रम का कोई स्थान नहीं है |
                                       || हरिः शरणम् || 

Saturday, February 22, 2014

भय और भ्रम |

                                           संसार में हम जितने भी कार्य करते हैं ,प्रायः कार्य किसी न किसी भय के वशीभूत होकर ही करते हैं |"लोग क्या कहेंगे ?" ऐसा हम सभी अपने जीवन में सदैव ही सोचते और कहते रहते हैं |यह "लोग क्या कहेंगे ?"ही सबसे बड़ा भय है ,जो व्यक्ति को सबसे ज्यादा भ्रमित करता है |इस भय के कारण ही कोई भी इंसान अपने स्वभावानुसार जी नहीं पा रहा है |मैं जानता हूँ कि आप में से कई व्यक्ति मेरी इस बात से कतई सहमत नहीं होंगे |लेकिन यह कटु सत्य है |हम में से ज्यादातर लोग दूसरों के हिसाब से ही अपना जीवन जी रहे हैं,बहुत ही कम लोग ऐसे मिलेंगे जो अपना जीवन अपने अनुसार ही जी रहे हैं|कहेंगे सभी कि हम स्वयं के स्वभावानुसार जी रहे है ,लेकिन जरा दिल पर हाथ रखकर दो मिनट के लिए सोचिये कि क्या आप सही कह रहे हैं ?
                      अगर आप सही कह रहे हैं तो मैं आपसे सिर्फ यही पूछना चाहता हूँ कि आपको सबसे ज्यादा गुस्सा अपने आप ही आता है या कोई दिलाता है ?आपका जवाब मैं जानता हूँ कि क्या होगा?आप कहेंगे कि किसी की अनुचित बात पर मुझे गुस्सा आता है |अब आपही सोचिये कि जब गुस्से पर नियंत्रण भी किसी दूसरे का है तो ऐसे में आपके जीवन का नियंत्रण भी तो किसी और के हाथ में हो सकता है |आप बाहर जाने से पहले अपने आप को क्यों सजाते संवारते हैं ?इसलिए न कि आप लोगों को यही दिखाना चाहते है कि आपका जीवन कितना सुव्यवस्थित है | अगर आपका जीवन इतना ही सुव्यवस्थित है तो फिर किसी को सुव्यवस्थित दिखाने की आवश्यकता भी क्या है ?आवश्यकता है,क्योंकि आपका जीवन सुव्यवस्थित नहीं है,इस लिए आप अपने को सुव्यवस्थित दिखाने का भ्रम पैदा करते हैं |और यहीं से आपकी मानसिक अवस्था बदलना शुरू हो जाती है |आप धीरे धीरे इस डर से कि कोई क्या सोचेगा ,अपने आपको वास्तविकता से परे करते जाते है और यह दूसरों का कथित भय आपको भ्रम-जाल में उलझाता चला जाता है |
                       आपने एक बात अपने संज्ञान में ली होगी कि जब आप कभी अकेले किसी एक अँधेरी रात में निर्जन क्षेत्र से गुजर रहे होते हैं तब अचानक ही आपके गले से कुछ स्वर निकलने प्रारम्भ हो जाते है,चाहे वह किसी गाने के बोल हो,भजन हो या सीटीकी आवाज़ हो |कभी आपने इस पर गौर किया है कि ऐसा क्यों होता है ?ऐसा इसलिए होता है,जिससे कि आपको  उन स्वरों को सुनकर अकेले होने का अहसास न हो | आप अपने आप ही ऐसा भ्रम पाल लेते हैं जैसे इस रास्ते पर आपके अलावा कोई अन्य भी है | ऐसा भ्रम आप इसलिए पैदा कर लेते हैं ,जिससे आपको भय न लगे |भय और भ्रम का आपस में चोली दामन का साथ है |जहाँ भय है वहाँ भ्रम भी है | जिस दिन आपके मन से सारा भय दूर हो जायेगा ,भ्रम अपने आप ही तिरोहित हो जायेगा |
                            भ्रम से बाहर निकलने का सबसे आसान और एकमात्र तरीका यही है कि आप भयमुक्त हो जाएँ |भयवश भगवान की उपासना,पूजा भी एक भ्रम पालने से अधिक कुछ भी नहीं है | जहाँ भय है वहाँ प्रेम का पदार्पण कभी भी नहीं हो सकता |जहाँ प्रेम नहीं वहाँ परमात्मा भी नहीं |
                          ||हरिः शरणम् ||

Friday, February 21, 2014

भ्रम-जाल |

                                             भ्रम ,जो सत्य से कोसों दूर है,भ्रम जो व्यक्ति को असत्य को सत्य होने का आभास देता है ,भ्रम जो सत्य को जानने की राह में सबसे बड़ी बाधा है ,संसार में ऐसे ही कई भ्रम अस्तित्व में है जो भ्रम का एक जाल सा निर्मित कर लेते हैं |वैसे भ्रम का कोई अस्तित्व नहीं है ,भ्रम पैदा होना भी एक भ्रम ही है |जैसे सपने का वास्तविकता से कोई नाता नहीं होता |आँख खुलते ही सपना अदृश्य हो जाता है |जागने पर आपको महसूस होता है कि यह सब स्वप्न मात्र था ,उसका सत्य से किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं रहता |जबकि स्वप्नावस्था में सब कुछ वास्तविक ही नज़र आता है |जाग जाने के उपरांत भी अगर आप उसी स्वप्न में खोये रहते है,तो इसका एक ही अर्थ है के आप वास्तविकता से सामना करने से कतरा रहे हैं, सत्य से आप भयग्रस्त हैं | वास्तविकता से आपको डर लग रहा है  |यह अपने आप के इर्द-गिर्द एक सपने का जाल बुनना जैसा ही होता है |जब यह भ्रम-जाल आपको अपनी जकड में ले लेता है ,फिर आप अपने आप को इससे मुक्त नहीं करा सकते |
                                        रामचरितमानस में गोस्वामीजी लिखते हैं-
                        "उमा कहऊ मैं अनुभव अपना |सत हरि भजन जगत सब सपना ||"
             शंकर भगवान अपनी धर्मपत्नि पार्वती को रामकथा सुनाते हुए यह कहते हैं " हे उमा ! यह संसार मात्र एक सपना है ,सत्य तो केवल ईश्वर का भजन करना है |यह मेरे स्वयं का अनुभव है | " शिव जैसे महेश्वर का जब यही मानना है,तो सत्य ही है |जब तक आप संसार को ही सत्य मानते रहोगे तब तक आप परमात्मा को प्राप्त नहीं कर पाओगे |संसार एक भ्रम मात्र है ,जो है नहीं परन्तु होने का आभास देता है |शाश्वत सत्य तो परमात्मा है -जो अव्यय है ,सदा एक जैसा है ,अपरिवर्तनीय है जबकि संसार तो परिवर्तनशील है |और जो पल पल बदल रहा है वह सत्य कैसे हो सकता है ?सत्य तो कभी भी नहीं बदलता है |यह आपका भ्रम ही है जो संसार को सत् होने का आभास देता है |आपको इस संसार से निकल कर अपने वास्तविक स्वरुप को प्राप्त  करना होगा |इस भ्रम-जाल से बाहर निकलना होगा तभी आप सत्य के करीब होंगे |
                                भ्रम की सबसे बड़ी कमी यही है कि एक भ्रम दूसरा भ्रम ही पैदा करता है | इस प्रकार इंसान इससे बाहर निकल नहीं पाता और उलझ कर रह जाता है |आपके भीतर भ्रम न पले,इसका उपाय एक मात्र यही है कि सपनों में जीना छोड़ दे |जिस प्रकार मनुष्य जाग जाता है,तब वह देख रहे स्वप्न को भुला देता है | उसी प्रकार जाग जाएँ और मानलें कि जो भी आप देख रहें है सब सपना मात्र है |आप उस सपने के हिस्से जरूर हैं परन्तु सपना आपकी वास्तविकता नहीं है अर्थात सपने में आप जरूर हैं परन्तु आप स्वयं एक सपना नहीं है |आप सत्य हैं ,सपना नहीं |सपना तो भ्रम है |सपने देखना कहीं से भी गलत नहीं है परन्तु सपने को ही अपना जीवन ध्येय ही बना लेना अनुचित है | ऐसे ही कई सपने जिनको आप अपने जीवन में देखते हुए उन्ही को अपना सबकुछ मान बैठते हैं ,वह भ्रम-जाल है |सत्य तो इससे कहीं परे है |
                                                   || हरिः शरणम् ||

Thursday, February 20, 2014

भ्रम का पदार्पण |

                                            जब शिशु पैदा होता है तब वह ब्रह्मस्वरूप ही होता है |कहा जाता है न कि बच्चे भगवान का ही रूप होते हैं |एकदम निश्छल ,समता से परिपूर्ण ,चेहरे पर मधुर मुस्कान ,संसार की प्रत्येक चिंता-फ़िक्र से दूर और निर्मल मन |शिशु कभी भी भ्रम में नहीं जीता है |वास्तविकता के सबसे करीब होता है,बिलकुल सत्य के पास |बेवजह का रोना उसको पसंद नहीं होता |कोई परेशानी होगी या भूखा होगा तभी आपको उसका रोना दिखाई देगा |शेष समय में अपनी मस्ती में ही मस्त |
                                       फिर उसमे बड़े होने पर ऐसा क्या परिवर्तन आ जाता है कि वह वास्तविकता से दूर होता जाता है ,सत्य से विपरीत आचरण करने लगता है ?इसको जाने बिना हम न तो भ्रम को पहचान पाएंगे और न ही सत्य को जान पाएंगे |कहते हैं न कि बच्चे की पहली पाठशाला उसका घर होता है और पहली शिक्षिका उसकी माँ |अगर बचपन में ही उसे सही शिक्षा और दिशा मिले तो बच्चे का भ्रमित होना असंभव होता है |परन्तु यह इंसान इतना स्वार्थी होता है कि वह बच्चे को तो सत्य की राह पर चलने की शिक्षा देता है और उसके सामने ही वह असत्य का आचरण करता है |इससे सम्बंधित एक जोक याद आ रहा है |
                                     एक बार किसी व्यक्ति ने अपने मित्र से कुछ धनराशि उधार ले रखी थी |उसने वह राशि वापिस करने के लिए उसे अपने घर पर बुलाया था |दुर्भाग्यवश वह उक्त राशि का इंतजाम नहीं कर पाया था |तभी वह मित्र अपनी धनराशि लेने आ पहुंचा |उसने उसको दरवाजे पर आकर आवाज़ दी |उस व्यक्ति ने अपने चार साल के बच्चे को कहा कि जाकर उससे कह दे कि पापा घर पर नहीं है | वह बच्चा दरवाज़े पर खड़े व्यक्ति से जाकर कहता है कि अंकल, पापा कह रहे हैं कि वे घर पर नहीं है |  अब आप ही जरा सोचिये -क्या शिक्षा दे रहे हैं ऐसे व्यक्ति अपने बच्चे को |ऐसे ही शुरुआत होती है सत्य से असत्य की तरफ जाने की  यात्रा |मासूम बच्चे को भ्रमित करने का कार्य कौन कर रहा है ?देखने में,सुनने में यह आपको मात्र एक जोक लग सकता है |इसे सुनकर आप हंस सकते हैं |परन्तु यह जोक भी कुछ न कुछ सोचने को मजबूर अवश्य करता है | जब ऐसी ही कई बातें हम बच्चे के माध्यम से उपयोग में लेते हैं तो एक दिन यही बच्चा अपनी गलती को आपसे ही झूठ बोलकर छुपाने का दुस्साहस करेगा |
                              सत्य को नकार देना , उससे मुंह मोड लेना ही सबसे बड़ा भ्रम है | जब व्यक्ति को सत्य को कहने,सुनने से संसार दूर होता महसूस होता है तब उसे भ्रम पैदा होने लगता है कि यह सत्य, सत्य न होकर कोई अलग ही चीज है जो संसार को मुझसे अलग कर रही है |जब स्वयं से हटकर वह दूसरों के बारे में सोचने लगता है ,तभी सत्य से उसकी दूरी बढती जाती है |यह दूरी व्यक्ति के मन में सुखी होने का एक भ्रम पैदा करती है |ऐसे ही कई भ्रम पालकर वह भ्रम-जाल में फंसता चला जाता है |यह भ्रम-जाल ही उसे सत्य प्रतीत होने लगता है |सत्य कभी भी अचानक ही नहीं मरता है और न ही भ्रम एक दिन में पैदा हो जाता है |यह एक सतत चलते रहने वाली प्रक्रिया है |जिस दिन आप सत्य की तरफ लौटने लगोगे, भ्रम तत्काल ही दूर होता चला जायेगा |
                                    मानव जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि सत्य उसे संसार से दूर कर देता है ,जबकि वह संसार से दूर होना नहीं चाहता |इसीलिए सत्य का भ्रम पालना उसकी मजबूरी बन जाता है |ध्यान रहे -भ्रम पालकर आप संसार में बने रह सकते है और सत्य पाकर परमात्मा को पा सकते हैं ,परन्तु दोनों को आप एकसाथ कभी भी नहीं पा सकते |तय आपको करना है कि आपके लिए सही व उचित क्या है-संसार या परमात्मा |भ्रम या सत्य |
                                                  || हरिः शरणम् ||

Wednesday, February 19, 2014

सत्य या भ्रम |

                                              एक बार एक कक्षा में एक शिक्षक बच्चों को पढ़ा रहे थे |उन्होंने बच्चों से एक प्रश्न किया | बोले -"बच्चों,क्या तुममे से कोई बता सकता है कि वास्तविकता और भ्रम में क्या अंतर है ?" सभी विद्यार्थी एक दम शांत ,जैसे कि किसी को कुछ भी पता नहीं हो | जैसा कि प्रायः होता ही है कि प्रत्येक कक्षा में दो-चार शरारती विद्यार्थी भी हुआ करते हैं |हमारे समय में भी ऐसा होता था |ये ऐसे विद्यार्थी होते हैं जो संकट के समय बड़े काम आते हैं ,और समस्त विद्यार्थियों को ऐसे आसन्न संकट से उबार लेते हैं | ऐसा ही इस कक्षा में भी हुआ |एक विद्यार्थी अचानक अपने स्थान से खड़ा हुआ और शिक्षक से बोला-"मास्टरजी ,आप इस कक्षा में हम सबको पढ़ा रहे हैं,यह सत्य है,एक वास्तविकता है |आप जो भी पढ़ा रहे हैं वह हम सब समझ भी रहे है ,यह आपका भ्रम है |"
                                          यह उत्तर सुनकर शिक्षक ने क्या कहा होगा उस विद्यार्थी से ,यह तो इस चुटकुले में आगे वर्णित नहीं है | परन्तु चाहे यह एक जोक ही हो,परन्तु उस शरारती बच्चे ने वास्तविकता और भ्रम के बीच का अंतर काफी हद तक स्पष्ट कर दिया है |आप अपने जीवन में कितने बड़े भ्रम पाले हुए हैं ,यह तो आप स्वयं ही नहीं जानते |इन भ्रम से आप अपने आप को अलग कर वास्तविकता में जाना भी तो नहीं चाहते |यह भ्रम आपको अपनी मज़बूत पकड़ से इतना ज्यादा जकड लेता है कि कई बार तो आप इस भ्रम को ही जीवन की वास्तविकता समझ बैठते हैं |
                            बच्चे भगवान के ही रूप होते हैं ,और इसलिए वे कई बार अनायास ही अपने बालपन से आपके भ्रम को तोड़ डालते है |पर हम अपने चारों और एक ऐसा आवरण बना लेते हैं कि इतना सब कुछ समझने के बाद भी इस भ्रमजाल से निकल नहीं पाते है |बहुत पहले एक साप्ताहिक पत्रिका आया करती थी-धर्मयुग |आजकल प्रकाशित होती है या नहीं-मुझे इसका ज्ञान नहीं | उसके अंतिम पृष्ठ पर प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट प्राण शर्मा  का एक कार्टून प्रकाशित हुआ करता था -"कार्टून कोना-ढब्बूजी" |यह वही कार्टूनिस्ट श्री प्राण शर्मा है जिसका "चाचा चौधरी "कार्टून कथा बहुत ही प्रसिद्ध है | धर्मयुग में "ढब्बूजी" पर एक कार्टून छपा था |यह  कार्टून  लगभग इसी भ्रम को तोडता हुआ प्रतीत होता है |  वह कार्टून आज भी मुझे याद है |इस कार्टून में ढब्बूजी का बेटा अपना स्कूल का गृह कार्य कर रहा होता है और ढब्बूजी अपने बच्चे को कह रहे हैं कि बेटे ,क्या मैं तुम्हे गणित के सवाल हल करने में तुम्हारी मदद करूँ ? उनका बेटा उनकी तरफ देखे बिना ही ढब्बूजी को कहता है कि नहीं पिताजी ,मैं सब सवाल अपने आप ही गलत हल कर लूँगा |यहाँ भ्रम होता है ढब्बूजी को,अपनी गणित के ज्ञान बारे में और उनका बेटा एक ही झटके में उनके इस भ्रम को तोड़ देता है |हो सकता है कि उसके पिताजी ने कभी एक सवाल गलत हल कर दिया हो और स्कूल में बच्चे को शिक्षक ने कुछ कहा हो,यह सब हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं |प्राण साहब तो कार्टून बनाकर हमें हँसा चुके है और इस कार्टून के माध्यम से एक सन्देश भी दिया है |
                         क्या हम सब इस संसार में ढब्बूजी की तरह  ही नहीं है,जो समझ रहे हैं कि हमें सब कुछ का ज्ञान है ?ज्ञान एक अथाह समुद्र के समान है,उसमे मात्र डुबकी लगाने से कुछ भी नहीं होगा |आवश्यकता है कि इस ज्ञान समुद्र में डुबकी लगाकर मोती ही अपनी मुट्ठी में भरकर बाहर निकले,तल की मिट्टी नहीं |किंनारे पर बैठ कर मुट्ठी खोलें और देखें कि ज्ञान से हाथ क्या लगा-मिट्टी या मोती | ग़लतफ़हमी या वास्तविकता ,असत् या सत् , भ्रम या सत्य |  
                            || हरिः शरणम् ||

Tuesday, February 18, 2014

अमृत-धारा |कबीर-११

                                         आज इस संसार में जहाँ भी दृष्टि डालो ,धर्मगुरु ही धर्मगुरु  नज़र आते हैं |वे केवल मात्र अपना कुनबा बढ़ाने का प्रयास ही कर रहे  है |जबकि समाज और व्यक्ति के कल्याण का प्रयास करना उनकी जिम्मेदारी है |आज की इस भागदौड की जिंदगी से परेशान व्यक्ति शांति की तलाश में इन गुरुओं के पास भटकते रहते है |वे शांति दे पाते हैं या नहीं ,इसकी जानकारी तो आपको उन लोगों से ही प्राप्त हो सकती है ,जो इनके शिष्य बने हुए हैं |आये दिन समाचार पत्रों में इन धर्मगुरुओं की ख़बरें पढकर मन जरूर व्यथित हो जाता है कि सारे संसार का धर्मगुरु कहलाने वाले भारत देश में ऐसे कैसे धर्मगुरु बने लोग फिर रहे है ?
                                        संसार से वियोग कर परमात्मा के साथ योग करना ही वास्तविक आध्यात्मिकता है |परन्तु आज तो धर्मगुरु शिष्यों से स्वयं के साथ योग करने का कहते हैं |ऐसे शिष्य कैसे परमात्मा के साथ योग कर पाएंगे ,यह तो वे तथाकथित धर्मगुरु ही बता सकते हैं |शायद कबीर को ऐसे धर्मगुरुओं के बारे में बहुत पहले ही आभास हो गया था |तभी उन्होंने लिखा है कि -
                                      जो गुरु ते भ्रम न मिटे,भ्रान्ति न जिसका जाय |
                                       सो गुरु झूठा जानिए, त्यागत देर न लाय ||
                                    व्यक्ति अपनी जिंदगी में कई परेशानियां पाल लेता है |जब वह इन परेशानियों से तंग आ जाता है तब वह ऐसे व्यक्ति की तलाश करता है जो उसे इन सभी परेशानियों से मुक्ति दिला सके |व्यक्ति की इस मानसिकता का फायदा उठाते हुए ये तथाकथित धर्मगुरु उसे अपना शिष्य बना लेते हैं |परन्तु उसकी परेशानियों का हल ऐसे गुरु भी नहीं सुझा पाते | वह व्यक्ति एक से दूसरे ,फिर तीसरे गुरु के पास जाता है और इस प्रकार यह एक अंतहीन सिलसिला बन जाता है |कबीर कहते हैं कि जो गुरु आपका भ्रम मिटा न सके ,आपके मन की भ्रान्ति दूर न कर सके ,वह फिर गुरु न होकर कोई गुरु का स्वांग धारण किये हुए झूठा व्यक्ति है |आपको ऐसे व्यक्ति को तुरंत ही त्याग देना चाहिए |आपकी समस्त परेशानियां आपकी भ्रान्ति के कारण है,भ्रम के कारण है |वे सब आपकी कमियां ही है ,जो परेशानियां बनकर आपके जीवन को बर्बाद कर रही है |सच्चा गुरु आपकी कमियों को दूर करता है न कि केवल अपना कुनबा बढाता है |आदर्श गुरु की पहचान के बारे में कबीर कहते हैं-
                                         गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है,गढ़ गढ़ काढे खोट |
                                         अंतर  हाथ  सहार  दे,  बाहर  बाहे  चोट  ||
                          जैसे एक कुम्हार जब घड़ा बनाता है तो वह घड़े के भीतर एक हाथ से सहारा रखता है और बाहर से दूसरे हाथ से चोट मारकर उसकी कमियां निकालकर उस घड़े को मजबूती प्रदान करता है |जिससे वह घड़ा भविष्य में पड़ने वाली समस्त चोटों को सहन कर सके |कबीर यही बताते हैं कि गुरु कुम्हार की तरह होना चाहिए |वह शिष्य को भीतर से तो सहारा दिए रखे और बाहर से उसकी समस्त कमियां दूर करे जिससे वह भविष्य में पैदा हो सकने वाली परेशानियों का सामना मजबूती के साथ कर सके | ऐसा व्यक्ति ही वास्तविक गुरु हो सकता है |
                                                  || हरिः शरणम् || 

Monday, February 17, 2014

अमृत-धारा |रहीम-६

                                              सज्जन पुरुष और साधुजन कई बार अपने क्रियाकलापों से आम आदमी को जागरूक करते रहते हैं |किसी के पास लेखन की विधा होती है किसी के पास अपने कार्यों की और किसी के पास उदाहरण देकर समझाने की |ऐसे ही एक बार एक साधू-महात्मा रेल में अपने बड़े भारी भरकम सामान के साथ चढ़े |सभी लोगों के बीच जाकर एक सीट पर वे बैठ गए | भारी बक्से को उन्होंने अपने सिर पर ही उठाये  रखा | नीच नहीं रखा ,जिसके कारण वे परेशानी में रहे |उन्हें इस स्थिति में देखकर पास ही बैठे एक व्यक्ति ने कहा-"महाराज जी,इस बक्से को नीचे रख दीजिए | बहुत भारी है |आराम से सफर कीजिये |"साधू बोले-"नहीं,मेरा बक्सा है | इसे मेरे को अपने साथ ही ले जाना है |इसे मैं नीचे क्यों कर रख दूं?"यह सुनकर पास बैठा दूसरा व्यक्ति बोल पड़ा-"महात्माजी ,यह रेल भी वहीं जायेगी,जहाँ आप जा रहे हो |बक्सा नीचे रख देने से वह कहीं दूसरी जगह नहीं चला जायेगा ?" इस पर भी साधू ने कहा कि "नहीं,यह मेरा बक्सा है ,इसे मैं ही उठाऊंगा |रेल में क्यों रखूं ?"  तभी एक अन्य व्यक्ति ने कहा -"आप साधू हैं,समझदार हैं ,फिर भी यह मूर्खतापूर्ण बात क्यों कर रहे है ?बेवजह अपने बोझ को सिर पर उठा रखा है |बोझ को नीचे रख दीजिए ,आपकी यह यात्रा आरामदायक हो जायेगी |"
                                           साधू बोले-"इस डिब्बे में आप सब समझदार लोग बैठें है,मैंने तो सोचा कि आप मुर्ख हैं |मैंने तो इस बक्से को ही सिर पर उठा रखा है,आप तो इस पूरे संसार का न जाने कितना बोझ अपने सिर पर लादे घूम रहे है | सब समझदार हो,केवल मेरे को ही समझा रहे हो,परन्तु खुद कुछ भी समझ नहीं रहे हो |"
                                             यह जो संसार में मोह,माया,इर्ष्या और वैमनस्य का भार हर कोई अपने सिर पर उठाये घूम रहा है |वह इस संसार की यात्रा उस बोझ तले दबा हुआ कर रहा है |फिर वह कैसे उम्मीद कर सकता है कि उसकी यह जीवन-यात्रा सुगम होगी |रहीम इसी बात को अपने अनोखे अंदाज़ में कहते हैं-
                                          भार झोंकी के भार में,रहिमन उतरे पार |
                                           पै बुडे मंझधार में,जिनके सिर पर भार ||
                                                   यह जो दुनियादारी का बोझ आप अपने सिर पर उठाये फिर रहे हैं उसे भाड़ में झोक दो,बिलकुल ही समाप्त करदो |भाड़ वह बर्तन होता है जिसमे चने या मूगफली आदि सेके जाते हैं |अगर इस भार को सिर पर उठाये हुए ही संसार सागर से पार होना चाहते हो तो यह कदापि भी संभव नहीं है |सिर पर भार रखे अगर पार जाने की कोशिश करोगे तो पार होने की बजाय बीच मंझधार में ही डूब जाओगे |भार उठाकर घूमते रहना कोई समझदारी नहीं है |प्रत्येक व्यक्ति यही समझता है कि यह कार्य केवल और केवल मैं ही कर सकता हूँ |वह यह नहीं जानता कि तुम्हारे इस संसार में आने से पहले भी सब कार्य संपन्न होते थे और तुम्हारे इस संसार से चले जाने के बाद भी वैसे ही होते रहेंगे |फिर प्रत्येक बात का बोझ सिर पर उठाकर फिरने का अर्थ ही क्या है?यह बोझ आपकी जिंदगी को ही दुखदाई बनाएगा |इस संसार में तो होगा वही, जो होना है |और जो होना है वह पहले से ही निश्चित है |आप इसे चाहकर भी परिवर्तित नहीं कर सकते |
                          एक कब्रिस्तान के मुख्य दरवाजे पर लिखा था-
          "यहाँ ऐसे सैंकड़ो लोग दफ़न हैं ,जो अपने जीवनकाल में कहा करते थे कि यह दुनियां उनके बिना नहीं चल सकती | आज वे इस दुनियां से चले गए,दुनियां फिर भी उनके बिना वैसे ही चल रही है |"
                    अब तो अपने सिर का भार उतार कर फैंक दीजिए........
                                            || हरिः शरणम् || 

Sunday, February 16, 2014

अमृत-धारा |बिहारी-४

                                     बिहारी ने न केवल समाज और व्यक्ति सुधार के लिए रचनाये रची है बल्कि उन्होंने समाज में जो भी घटित हो रहा था ,सभी पर अपनी लेखनी चलाई है |उस समय आज के राजस्थान क्षेत्र के लोग अर्थार्जन के लिए कहीं बहुत दूर जाकर श्रम किया करते थे |उनके पास न तो इतने साधन थे और न ही इतनी सुविधाए कि अपनी पत्नी को अपने साथ लेजाये |पीछे गांव में उसकी वामांगिनी विरह में अपने दिन व्यतीत करते हुए अपने पति का इंतज़ार किया करती थी |आज की तरह संपर्क का कोई भी साधन उस समय नहीं हुआ करता था |इस कारण से उसकी यह प्रतीक्षा उसे भीतर ही भीतर घायल करती जाती थी और उसकी विरह की अग्नि प्रचंड होती जाती थी |बिहारी के कवि ह्रदय ने इन सबको गहराई के साथ अनुभव किया और उस विरहिणी के अंतर्मन की आवाज को अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त किया है |जरा गंभीरता पूर्वक इस आवाज़ को आप भी सुने |
                                    सुनि पथिक मुंह माह,निसी लुंवे चले वहि ग्राम |
                                        बिन पूंछे,बिनु ही कहै,जरती बिचारी बाम ||
                  एक पथिक ,अपनी मंजिल पाने के लिए अपनी राह जा रहा था |माघ का महीना था |उस महीने में राजस्थान में जबरदस्त शीत लहर चलती है |कवि बिहारी कहते हैं कि उस पथिक से मैंने सुना कि जब वह उस गांव से जब वह गुजर रहा था तो वहाँ शीत लहर की बजाय उसने लू चलने का अनुभव किया |पथिक पूछ रहा है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि इस माघ महीने में लू चलने लगे |उस पथिक को बिहारी समझाते हुए कहते हैं कि उस गांव में किसी की बामअंगिनी यानि किसी की धर्मपत्नी ,अपने पति से दूर होने के कारण विरह की अग्नि में जल रही है |अपने इस विरह की आग को वह न तो बुझा पा रही है और न ही किसी से कह सकती है |वह विरह की आग दिन प्रतिदिन बढती ही जा रही है |मानो वह विरहनी अब एक औरत न होकर लुहार की धौंकनी हो गयी हो |इस विरहिणी के विरह की आग के कारण ही हे पथिक!तुम्हे उस गांव में लू चलने का अहसास हुआ है |
                        किसी भी प्रेमिका के विरह को इस प्रकार लेखनी से कागज पर उतारना हर किसी के बस की बात नहीं  है |केवल बिहारी जैसा कवि ही ऐसी बात को इस प्रकार कह सकता है |एक और बानगी देखिये-
                                  मैं ही बौरी विरह बस ,कै बौरो सब गांव |
                                  कहा जनि वे कहत है,ससिहि सीतकर नाँव ||
                 यहाँ विरहिणी कह रही है कि मैं तो मान लेती हूँ कि अपने प्रिय की याद में ,उसके विरह में पागल हो गयी हूँ परन्तु क्या समस्त गांव भी पागल हो गया है जो वे कह रहे हैं चंद्रमा शीतलता प्रदान करता है और इस कारण से उसका एक नाम शीतकर भी है |यहाँ तो चारों और सब कुछ जला जा रहा है ,फिर चन्द्रमा शीतलता कैसे प्रदान कर रहा है ? लगता है सभी ग्रामवासी पागल हो गए हैं जो चन्द्रमा को शीतकर कह रहे हैं |ऐसी विरहिणी को शब्द केवल सहृदय कवि ही दे सकता है |माता सीता जब अशोक वाटिका में भगवान श्रीराम से दूरी के कारण विरह की आग में जल रही थी तब मानस में तुलसी ने उनके विरह को शब्द दिए थे,देखिये-
                       पावकमय ससि स्रवत न आगि |मानिही मोहि जानि हतभागी ||(सुन्दरकाण्ड-१२/९ )
        सीता यहाँ कहती है कि  मुझको विरहिणी समझ कर,सब जानते हुए भी अग्निमय चंद्रमा  अग्नि की वर्षा नहीं कर रहा है | यहाँ सीता भी विरह की अग्नि में जल रही है इसलिए चन्द्रमा को भी पावकमय यानि अग्नि देने वाला बता रही है | अशोकवाटिका में राम के विरह को सहन न करने के कारण सीता ने अपनी चिता बनाली |परन्तु उस चिता को अग्नि प्राप्त नहीं हुई |तब सीता चंद्रमा को यह बात कहती है |ऐसे शब्दों से विरहिणी की व्यथा को व्यक्त करना केवल बिहारी और तुलसी जैसे कवि के बस की ही बात हो सकती है |
                                     || हरिः शरणम् ||

Saturday, February 15, 2014

प्रेम,शांति,आनन्द |


पहले "मेरा" गया,
फिर "तेरा" गया'
फिर "मैं" गया,
फिर "तूं" गया,
इस तरह धीरे धीरे सब गया,
"सब कुछ " खोया,
एक दिन ऐसा आया कि
"क्या खोया" ,उसको भी खो दिया |
उस दिन भीतर से एक आवाज़ आई-
"खोया"ही खोया तो फिर  "पाया" क्या ?
...........जब "मैं" नहीं ,
"तूं"  भी नहीं,
 "मेरा" भी  नहीं,
 "तेरा" भी  नहीं,
फिर कौन उत्तर दे,
 किसको उत्तर दे और
क्यों उत्तर दे ?
कि सब कुछ खोकर
आखिर "पाया" क्या ?
क्योंकि......
जिसको पाया ,
 खुद ही मूक है |
"गूंगा केरी सरकरा.........."
प्रेम! शांति!! आनन्द!!!
................................................................
         || हरिः शरणम् ||

Friday, February 14, 2014

प्रेम और आसक्ति |

                                     प्रेम और प्रेमासक्ति ,दो शब्द मात्र ही नहीं है | दोनों समानार्थी भी नहीं है | दोनों में बड़ा ही गुणात्मक अंतर है |प्रायः लोग दोनों में अंतर नहीं कर पाते है अतः वे आसक्ति और प्रेम को एक ही समझने की भूल कर बैठते हैं |आसक्ति और दीवानगी(Infatuation) समानार्थी हैं | किसी के मोह में इतना हद तक उलझ जाना एक प्रकार की दीवानगी उत्पन्न करता है ,जबकि प्रेम में दीवानगी का कोई स्थान नहीं है |प्रेम आपके भीत्तर आत्मा और ह्रदय से उठता हुआ एक अहसास है जबकि आसक्ति या दीवानगी आपके शरीर में उत्पन्न होने वाले हार्मोन्स के कारण पैदा होती है |जैसे आप किसी को अचानक देखते है और उसकी तरफ आपका एक आकर्षण सा पैदा होता है ,वह शरीर की स्वाभाविक प्रतिक्रिया मात्र होता है जो आपके शरीर में बन रहे हार्मोन्स के कारण होता है |जबकि आपका उस व्यक्ति के साथ कोई सम्बन्ध होता भी नहीं है और न ही आप उसको अच्छी तरह से जानते हो |ऐसा प्रायः विपरीत लिंग के व्यक्ति से संपर्क में आने से होता है |
                                 प्रेम में उस व्यक्ति की भावनाओं ,उसकी अभिलाषाओं और सपनों को अच्छी तरह समझ कर उससे व्यक्तिगत संपर्क बनाया जाता है |प्रेम में सम्बन्ध सदैव के लिए होता है जबकि आसक्ति कुछ समय बाद कमजोर पड़ने लगती  है और एक समय बाद अदृश्य हो जाती है | यह निर्भर करता है की उस व्यक्ति ने आपकी आवश्यकता कितनी पूरी की |जब आपकी अपेक्षाए पूरी हो जाती है तब आपका तथाकथित प्रेम भी पानी की तरह वाष्प बनकर काफूर हो जाता है |जबकि प्रेम में अगर बलिदान भी देना पड़े तो प्रेम और ज्यादा गहराई प्राप्त करता है | ऐसा प्रेम समय के साथ बढ़ता जाता है |
                                 आजकल युवा लोग प्रेम और आसक्ति में अंतर नहीं कर पा रहे हैं |अपनी युवावस्था में शारीरिक आकर्षण के वशीभूत होकर वे इसे ही प्रेम मानकर शादी के बंधन तक में बन्ध जाते है | परन्तु शीघ्र ही उन्हें अहसास हो जाता है कि उनका यह निर्णय ही गलत था |इसी कारण आजकल प्रेम-विवाह के बाद भी तलाक की संख्या निरंतर ही बढती जा रही है |आसक्ति सिर्फ और सिर्फ अपनी उन्नति और संतुष्टि चाहती है जबकि प्रेम अपने साथी की उन्नति और संतुष्टि चाहता है |यही प्रेम और आसक्ति में मूलभूत अंतर है |अगर दो युवा प्रेमवश शादी करते हैं तो उनका प्रेम समय के साथ और आगे बढ़ेगा और उच्च अवस्था को प्राप्त होगा |आसक्तिवश किये गए प्रेम के परिणाम तो दुखद ही होंगे जिनकी परिणिति तलाक के रूप में सामने आएगी |
                             आसक्तियुक्त प्रेम  केवल भौतिक आवश्यकता पूरी करने में विश्वास रखता है और यह आवश्यकता पूरी होते ही न जाने कहाँ विलीन हो जाता है |जबकि वास्तविक प्रेम में भौतिक आवश्यकता पूरी हो या न हो ,कोई फर्क नहीं पड़ता है |आसक्ति केवल भौतिकतावादी है जबकि विशुद्ध प्रेम आध्यात्मिकतावादी |
                               ज्यों ज्यों आप परिपक्व होते हैं ,उम्र के अनुसार प्रगति करते हैं त्यों त्यों आप आसक्ति को  पीछे छोडते जाते है यानि आपकी आसक्ति कम होती जाती है | क्योंकि यह सब शरीर में पैदा होने वाले हार्मोन्स के कारण होता है और इन हार्मोन्स का स्राव ढलती उम्र के साथ कम होता जाता है | परन्तु प्रेम में ऐसा नहीं होता है |प्रेम करने की क्षमता कभी भी चुकती नहीं है , चाहे आपकी उम्र कितनी ही हो जाये |
                              आज समस्या यह है कि प्रेम और आसक्ति में अंतर कोई भी नहीं कर पा रहा है , युवा समुदाय तो बिलकुल भी नहीं |आज कथित प्रेम-दिवस पर वह हाथ में गुलाब लेकर अपने ही तरह के किसी आसक्त की तलाश कर रहा है | वह यह नहीं जानता कि प्रेम, समय,स्थान और व्यक्ति विशेष से बहुत परे है |
                                                   || हरिः शरणम् ||

Thursday, February 13, 2014

अमृत-धारा |रसखान-४

                                             दुनियां में जितनी भ्रांतियां "प्रेम"शब्द को लेकर है,उतनी किसी अकेले अन्य शब्द को लेकर कहीं नहीं है |प्रेम शब्द को जितने हलके ढंग से लोग आधुनिक युग में प्रयोग में ले रहे हैं उतना दुरूपयोग शायद ही किसी अन्य शब्द का हुआ है |प्रेम प्रसंग के चलते मारामारी,अपहरण और न जाने कितने छोटे बड़े अपराध इस जगत में आज देखने को मिल रहे है |जबकि इनका सम्बन्ध वास्तविक प्रेम से कहीं पर भी नहीं है |इन सबको प्रेम से अलग करने को रसखान कहते हैं-
                                            दम्पति सुख अरु विषय रस,पूजा निष्ठां ध्यान |
                                                  इन हे परे बखानिये,सुद्ध प्रेम रसखान ||
                        लोग दाम्पत्य सुख को प्रेम का नाम दे देते हैं |शारीरिक सुख और प्रेम दोनों अलग अलग हैं |दाम्पत्य में प्रेम हो भी सकता है और नहीं भी |इसलिए दाम्पत्य सुख को एक शारीरिक सुख ही कहा गया है |और प्रेम में शारीरिक सुख मिले ही ,यह आवश्यक नहीं है |प्रेम को शारीरिक सुख के साथ नहीं बांधा जा सकता |रसखान यहाँ कहते हैं कि " दम्पति सुख अरु विषय रस,पूजा निष्ठां ध्यान "-दम्पति साथ रहकर जो सुख एक दूसरे से प्राप्त करते है ,उसे ही प्रेम नहीं कह सकते |विषय रस -वह सुख जो करने,कहने और सुनने से प्राप्त होता है ,उसे विषय-रस कहा जाता है|जैसे परनिंदा करना और सुनना व्यक्ति को सुख प्रदान करता है |मधुर खाना पीना,सुंगंधित पदार्थों की खुशबू लेना,स्पर्श का सुख प्राप्त करना,सुन्दरता का अवलोकन करना आदि जो भी क्रिया कलाप है वह आपको क्षणिक सुख प्रदान करते है |इस तात्कालिक सुख के कारण उसके प्रति आपका अस्थाई लगाव और जुडाव भी उनके प्रति पैदा हो सकता है ,परन्तु इतना सब कुछ होने के बाद भी आप इसको प्रेम की श्रेणी में नहीं रख सकते |ईश्वर के प्रति निष्ठां,ईश्वर का ध्यान और उससे की गई प्रार्थना और उसकी पूजा करना भी प्रेम नहीं है |यह तो सब आप अपनी कामनाएं पूरी करने के लिए ईश्वर से मात्र प्रार्थना कर रहे हैं |इस पूजा का अर्थ यह कदापि नहीं है कि आपका परमात्मा के प्रति कोई प्रेम है ही |इन सबसे परे जो कुछ है अर्थात बिना आकंक्षा के जो कुछ है , उसको आप प्रेम कह सकते है |रसखान कहते है कि इन सब से बढ़कर जो कुछ भी है ,वास्तव में वही शुद्ध प्रेम है |प्रेम की पहचान बताते हुए कवि रसखान इसे और अच्छी तरह से स्पष्ट करते हैं-
                                      प्रेम रूप दर्पण अहे,रचे अजूबो खेल |
                                  या में अपनों रूप कछु,राखी परिहै अनमेल ||
                      परमात्मा ने प्रेम रुपी दर्पण को बनाकर अजीब प्रकार का खेल तैयार कर दिया है |जब इस दर्पण में कोई भी अपने आप को निहारेगा तो स्वयं की वास्तविकता उजागर हो जायेगी |इस दर्पण में आपका वह रूप दिखाई देगा जो आपका वास्तविक रूप है,जिसे आप इस भौतिक संसार में स्वीकार नहीं करते हैं |इस दर्पण में तो आपका रूप किसी और प्रकार का है और इस संसार को दिखाने के लिए किसी और प्रकार का |रसखान इस दोहे के माध्यम से समझा रहे हैं कि संसार के लिए जो आपने रूप बना रखा है वह आपके उपयुक्त नहीं है,वह अनमेल है ,इस रूप को दूर ही रख दें और अपने वातविक स्वरूप को पहचाने |व्यक्ति को अपने वास्तविक स्वरूप के साथ ही जीना चाहिए ,कृत्रिम स्वरूप के साथ नहीं |वास्तविक रूप तो एकमात्र आपका प्रेम-रूप ही है |
                                        || हरिः शरणम् || 

Wednesday, February 12, 2014

अमृत-धारा |रसखान-३

                                               रसखान कृष्ण प्रेम में इतने खोये रहते थे कि उन्होंने अपना निवास ही ब्रज को बना लिया था |रसखान ने जितना अच्छा चित्रण कृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला का किया है उतना सुन्दर वर्णन शायद ही किसी अन्य कवि ने किया होगा |रसखान की यह चाह जगजाहिर थी कि वे इस ब्रज भूमि पर ही बार बार जन्म लेना चाहते थे |उनकी इस इच्छा का एक मात्र कारण यही था कि वे सदैव श्री कृष्ण का सानिध्य चाहते थे |उन जैसा कृष्ण प्रेम शायद ही कहीं देखने को मिलता है |प्रेम के बारे में उनकी सोच उच्चतम थी |प्रेम के सम्बन्ध में वे कहते हैं
                                     प्रेम अगम अनुपम अमित,सागर सरिस बखान |
                                      जो आवत एही ढिग बहुरि,जातनाहि रसखान ||
                      प्रेम अगम है |प्रेम अनुपम है |प्रेम अमित है |प्रेम अगम है-का अर्थ है कि प्रेम करने का कोई आधार नहीं होता और न ही प्रेम पैदा होने के बाद वापिस कभी जा सकता है |अगर आप किसी से प्रेम करते है और आप से कोई पूछे कि आप उसे किस आधार पर प्रेम करते हैं ?जवाब में अगर आप प्रेम करने का कोई आधार बताते हैं तो इसका एक ही अर्थ है कि आप प्रेम नहीं किसी और की बात कर रहे है |प्रेम तो बस प्रेम होता है,उसका कोई आधार नहीं होता जिसके कारण प्रेम किया जा रहा हो |एक बार प्रेम पैदा होने के बाद उसे निकाल बाहर करना मुश्किल होता है |इसीलिए रसखान कहते हैं कि प्रेम अगम है |
                    प्रेम अनुपम है -यानि प्रेम की तुलना किसी अन्य से हो ही नहीं सकती |प्रेम अतुलनीय होता है |प्रेम आपको भीतर तक ,सदैव के लिए भिगो देता है |प्रेम अमित है यानि प्रेम बंधन मुक्त है |प्रेम को न तो किसी सीमा में बांधा जा सकता और न ही समय और स्थान में |"प्रेम अगम अनुपम अमित,सागर सरिस बखान "-प्रेम सागर के समान एक गहराई लिए हुए होता है |प्रेम की गहराई मापना उतना ही मुश्किल है जितना समुद्र की गहराई मापना |प्रेम सदैव के लिए ,सागर सी गहराई लिए,बंधनमुक्त और अतुलनीय होता है |
                            "जो आवत एही ढिग बहुरि,जातनाहि रसखान"-जो प्रेम को एक बार उपलब्ध हो जाता है ,उसका वापिस पूर्वावस्था में लौट जाना संभव नहीं है |आज प्रेम है और कल नहीं रहेगा ,ऐसा कहना गलत है |ऐसा तो आसक्ति के होने पर ही हो सकता है,प्रेम के साथ नहीं |रसखान ने प्रेम को परमात्मा के साथ जोड़ते हुए कहा है कि-
                                            हरी के सब आधीन है,हरि प्रेम आधीन ||
                                           याही ते हरि आपु ही,याहि बड़प्पन दीन ||
                                 इस ब्रह्माण्ड में जितना कुछ दृश्यमान है और जितना सब अदृश्य है ,समस्त यहाँ परमात्मा के अधीन है |इतना सब कुछ होते हुए भी परमात्मा स्वयं प्रेम के अधीन है |अर्थात यहाँ इस संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब उस परमात्मा की इच्छा अनुरूप होता है |परन्तु परमात्मा को अपने वश में केवल मात्र प्रेम के द्वारा ही किया जा सकता है |स्वयं परमात्मा कहते भी है कि मैं प्रेम के वश में हूँ |इसीलिए रसखान कहते हैं कि प्रेम को यह ऊँचा स्थान ,यह बडप्पन परमात्मा ने ही दिया है |जितने भी भक्त इस संसार में हुए हैं उन्होंने ज्ञान की बजाय प्रेम-पथ पर चलकर ही सत्य को प्राप्त किया है |परमात्मा ही वह सत्य है |
                                       || हरिः शरणम् ||




Tuesday, February 11, 2014

अमृत-धारा |बिहारी-३

                                इस संसार में जितने भी कवियों ने जन्म लिया है ,वे आध्यात्मिक व्यक्तित्व के धनी रहे हैं |वे परमात्मा में विश्वास रखते थे |परमात्मा के साथ उनका सम्बन्ध प्रेम का होता था |और आप जानते ही हैं कि  प्रेम-संबंधों में नोंक-झोंक चलती रहती है |जो जिसको सबसे अधिक प्रेम करता है,उसको किसी कार्य के संपन्न न होने पर उलाहना भी देता है |परमात्मा से प्रेम करने वाला भी इस सिद्धांत से परे नहीं है|विशेष रूप से कवि ह्रदय तो उन्मुक्त भाव से अपने साध्य ,अपने प्रेमी परमात्मा को उलाहना देने में जरा भी नहीं चुकते है |तभी तो पता चलता है कि साध्य और साधक में कितना प्रेम है ?कवि बिहारी भी इससे अछूते नहीं है |वे भी अपने परमात्मा को उलाहना देते हुए कहते हैं -
                                         कब को टेरत दीन है,होत न स्याम सहाय |
                                      तुम हूँ लागी जगत गुरु,जगनायक जग बाय ||
                          बिहारी इस दोहे के माध्यम से प्रभु को उलाहना देते हुए कहते हैं -"कब को टेरत दीन हैं"अर्थात हे परमात्मा ,आपको यह दीन दुखी व्यक्ति कितने लंबे समय से पुकार रहा है |जब व्यक्ति मुसीबत में होता है तब वह ईश्वर को सबसे ज्यादा याद करता है |क्योंकि प्रत्येक मुसीबत मनुष्य के मन मे एक प्रकार का भय पैदा करती है |बिना परेशानी और मुसीबत के मनुष्य के मन में किसी भी प्रकार का भय पैदा होने का प्रश्न ही नहीं है |जब वह मुसीबत और परेशानी में होता है तब उसे एकमात्र ईश्वर का सहारा ही नज़र आता है |ऐसी अवस्था में वह ईश्वर को बिना रुके वह बार बार पुकारता चला जाता है |फिर भी हे ईश्वर तुम उसकी सहायता करने  के लिए क्यों नहीं आते हो?-"होत न श्याम सहाय"|यह ईश्वर को कवि ह्रदय का स्पष्टतः उलाहना ही है |उलाहना देते हुए बिहारी ईश्वर को मनुष्य के बराबर होने का कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि "तुम हूँ लागी जगत गुरु,जगनायक जग बाय ||"अर्थात हे संसार के गुरु,जगतगुरु,हे जगनायक क्या तुम्हे भी इस संसार की इस जग की हवा (बाय)लग गयी है जो तुम इस दीन की बिलकुल भी नहीं सुन रहे हो |इस संसार में कोई भी किसी की नहीं सुनता है |बिहारी यही बात अपने अन्दाज़ में परमात्मा को कहते हुए कहते हैं कि हे परमात्मा क्या तुम्हे भी इस संसार की हवा लग गई है जो तुम भी सांसारिक लोगों की तरह ही व्यवहार करने लग गए हो |
                        इतना मधुर उलाहना एक प्रेमी भक्त ही अपने परमात्मा को दे सकता है |इससे भी बढ़कर यह बात है कि ऐसे भक्त का उलाहना परमात्मा भी खुले मन से स्वीकार करते हैं |
                                    || हरिः शरणम् || 

Monday, February 10, 2014

अमृत-धारा |कबीर-१०

                                       हमारे बचपन की कई बातें ऐसी होती है ,जो आज किसी पुस्तक को पढते पढते अनायास ही याद आ जाती है |उस समय हम सोचा भी नहीं करते थे कि आज जो हमें कुछ पढ़ने या करने के लिए कहा जा रहा है वह जीवन में महत्वपूर्ण स्थान भी रखती है |एक बार कक्षा में शिक्षक ने कहा कि बाहर जाकर धुप में खड़े होकर अपनी छाया को पकडने का प्रयास करना और देखना कि आप उसे पकड़ पाते हो या नहीं |बच्चे ही तो थे ,भोजनावकाश के दौरान निकल पड़े बाहर और लगे अपनी छाया को पकड़ने |पूरी अवधि में छाया को पकड़ने का प्रयास करता रहा परन्तु सफलता नहीं मिली |शिक्षक ने भी दूसरे दिन इस बारे में कुछ भी नहीं पूछा | उस समय बात आई गई हो गयी |परन्तु जब कबीर को पढने लगा तब उनके एक दोहे को पढकर उस दिन की वह बात अनायास ही याद आ गयी|
                                            माया छाया एकसी,बिडला जाने कोय |
                                            भागत के पीछे लगे,सम्मुख भागे सोय ||
                     आप अपनी छाया को जब पकड़ने का प्रयास करते हैं तो आपको उसके पीछे दौडना पड़ता है |आप उस छाया के पीछे कितना ही दौड़े आप उसको पकड़ ही नहीं पाएंगे |ज्योंही आप उसकी तरफ भागते हो वह आपके आगे उतनी ही गति से भागती है|आप उसे पकड़ ही नहीं सकते |जब आप थकहार कर रुक जाते हो तब वह भी अपने आप रुक जाती है |आप फिर से उसको पकडने का प्रयास करते हैं तो वह फिर आपके आगे उसी गति से दूर भागने लगती है |अंत में आप जब वापिस लौटने लगते हो तब पाते हो कि वह आपके पीछे पीछे ही चली आ रही है |कबीर कहते हैं कि माया और छाया दोनों एक समान है और यह बात कोई कोई ही जानता है |सब कोई इस बात को नहीं जानते और समझते हैं |
                    कबीर यहाँ इसी बात को माया के सम्बन्ध में कहते हैं |कहते हैं कि माया और छाया की प्रकृति समान होती है |जैसे आप छाया को पकड़ने के लिए उसके पीछे भागते हो तो वह आपसे दूर भागने लगती है |इसी प्रकार आप माया के पीछे उसे पाने के लिए भागते हो और वह आपसे दूर भागने लगती है |जब आप उस छाया से विमुख होजाते हो तो पाओगे कि छाया आपके पीछे पीछे आने लगती है |यही माया की प्रकृति है |जब आप माया से विमुख होना चाहते हैं तो वह आपके पीछे पीछे आने लगती है | आखिर यह माया है क्या ? कबीर इस माया के बारे में स्पष्ट करते हैं और कहते हैं-
                                          माया माया सब कहे,माया लखै न कोय |
                                          जो मन से न उतरे,जानिए माया सोय ||
                  जो दिनरात आपके मन को अधिकृत किये हुए रहती है ,माया उसी को कहते हैं |अगर आपके मन में सदा धन की कामना रहती है तो यहाँ यह धन आपके लिए माया है |अगर आप सदैव अपने घरबार व परिवार  के बारे में ही सोचते रहते हो तो यह माया है |माया का अर्थ है किसी के भी प्रति मोह और लगाव |वैसे ही जैसे छाया का आपके शरीर के साथ लगाव होता है |
                   कबीर कहते हैं कि यह जो माया ,आपके मन में गहरे तक आधिपत्य स्थापित किये हुए है ,उसे अपने मन से निकाल बाहर करें | न तो माया के पीछे भागे |क्योंकि अगर आप उसके पीछे भागोगे तो वह आपसे दूर भागेगी |आप उसे प्राप्त नहीं कर सकोगे |साथ ही माया से दूर भागने की आवश्यकता भी नहीं है ,क्योंकि अगर आप माया से दूर भागने की कोशिश करोगे तो भी वह आपका पीछा नहीं छोड़ने वाली |वह आपके पीछे सदैव ही लगी रहेगी |इसके लिए आवश्यक है कि आप माया को अपने मन पर हावी न होने दे|माया के प्रति समता का व्यवहार करें |फिर माया आपका कुछ भी नहीं बिगाड सकती |इंतज़ार कीजिये,परमात्मा के आशीर्वाद का ,जो आपके सिर पर सदैव बना रहे,माया स्वतः ही अद्रश्य हो जायेगी,आपका पीछा छोड़ देगी ,ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य जब आपके सिर के बिलकुल ऊपर चमकता है तब आपकी छाया एकदम से गायब हो जाती है |
                                   || हरिः शरणम् ||

Sunday, February 9, 2014

अमृत-वाणी |कबीर -९

                                                   भगवान बुद्ध एक बार किसी गांव से गुजर रहे थे |उनके प्रायः सभी स्थानों पर ज्यादातर प्रशंसक ही थे |प्रशंसा और आलोचना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं|जिस व्यक्ति के प्रशंसक ज्यादा होते हैं वहाँ एक दो उसके आलोचक अवश्य ही होते हैं चाहे वह साक्षात् ईश्वर ही क्यों न हो |ऐसा ही बुद्ध के साथ भी था |उस गांव में सभी लोग उनका चरणवंदन कर रहे थे |तभी वहाँ पर उनका एक आलोचक आया और क्रोध में आकर उनको गलियां देने लगा |बुद्ध निर्विकार भाव से उसकी गालियां चुपचाप बैठे सुनते रहे |उनके एक दो शिष्यों ने उस व्यक्ति को रोकने की कोशिश की,परन्तु बुद्ध ने उन्हें संकेत से कुछ भी करने से मना कर दिया |गालियाँ देते देते जब वह बुद्ध को जरा भी विचलित न कर सका तो अंत में थक हारकर वह चुप हो गया |
                                               तभी भगवान बुद्ध ने उसे पास बुलाकर पूछा कि अगर तुम किसी को कोई वस्तु दो और सामने वाला उसे लेने से इंकार कर दे तो वह वस्तु किस के पास रहेगी ?वह व्यक्ति बोला कि मेरे पास ही रहेगी और  किसके पास जायेगी |बुद्ध बोले -"अच्छा,बड़े समझदार लगते हो |मैं तुम्हारी यह सभी गलियां लेने से इंकार करता हूँ |"अब वह व्यक्ति बुद्ध का मंतव्य समझ गया |वह उनके चरणों में गिर पड़ा और अपने किये हुए व्यवहार की क्षमा मांगने लगा |बुद्ध ने उसे क्षमा कर दिया |वह बुद्ध का प्रिय शिष्य बन गया |
                                               कबीर इसी बात को अपने अंदाज़  में साधारण जन को समझाते हुए कहते हैं-
                                  गारी ही सो ऊपजे,कलह कष्ट और मींच |
                                  हारि चले सो साधू है,लागि चले सो नीच ||
                                                 कबीर आमजन को समझाते हुए कहते हैं कि आपसी गाली-गलौज से ही झगडा यानि कलह .कष्ट ,परेशानी और तनाव बढता है |मींच का अर्थ होता है दबाव या तनाव |जैसे कि आँख मींचना का अर्थ होता है दबावपूर्वक आँख को बंद करना यानि जबरदस्ती आँख बंद करना |गाली के प्रत्युतर में गाली देना कलह,कष्ट और तनाव ही पैदा करता है |आपसी गाली गलौज से कुछ भी फायदा नहीं होनेवाला |  कबीर आगे कहते हैं कि जो गाली के प्रत्युतर में गाली देता है वह निम्न प्रकृति का व्यक्ति माना जा सकता है |"लागि चले सो नीच "जिसको गाली लगती है वह वास्तव में उस गाली के लगता है न कि गाली उसे लगती है |अगर आप गाली के न लगो तो गाली और उसे देने वाला आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते |समस्या तो यहीं आकर पैदा होती है कि आप स्वयं उस गाली के लग जाते हो, चिपक जाते हो |तब कलह,कष्ट और तनाव पैदा हो जाता है |  परन्तु सज्जन व्यक्ति गाली के साथ चिपकते नहीं है ,वह गाली और गाली देने वाले को महत्व बिल्कुल भी नहीं देते हैं |इसीलिए कबीर कहते हैं कि ""हारि चले सो साधू है"-जो गाली को छोड़ देते हैं ,गाली की तरफ ध्यान नहीं देते हैं ,उसे नजरंदाज़ कर देते है ,वास्तव में ऐसे व्यक्ति ही साधू कहलाने के योग्य हैं |
                                        संसार में जितने भी महापुरुष पैदा हुए हैं ,सभी गाली और गाली देने वाले के साथ ऐसा ही व्यवहार करते हैं |गांधीजी ने तो यहाँ तक कहा है कि जो तुम्हे एक गाल पर थप्पड़ मारे उसके सामने दूसरा गाल भी करदो |तभी तो उन्हें महात्मा कहा जाता है |कबीर ने सत्य ही कहा है कि गाली आपको तनाव देती है,कष्ट देती है और कलह पैदा करती है |गाली के साथ चिपके नहीं उसे त्याग दे |आपको सचमुच में ही बड़ी अद्भूत शांति का अनुभव होगा |
                                       || हरिः शरणम् || 

Saturday, February 8, 2014

अमृत-धारा |कबीर-८

                                           मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह आज का कार्य कल पर टालता रहता है |वह यह समझ नहीं पा रहा है कि कौन सा कार्य कब करना है ?वह अपने शरीर को आराम देने के लिए ही कार्य करता है |उसका आगे क्या होगा यह वह सोचता भी नहीं है |भौतिकता में वह इतना रम जाता है कि ईश्वर को प्राप्त करने की उसकी सोच तक ही नहीं बन पाती है |सांसारिक कार्य को वह सबसे अधिक महत्त्व देता है और परमात्मा के कार्य को वह एक एक दिन कर आगे के लिए टालता जाता है |और वह एक दिन उसके जीवन में कभी भी नहीं आता है,तब तक जीवन का संध्या काल दस्तक दे चूका होता है |जो कार्य सम्पूर्ण उर्जा से संपन्न हो सकता है ,वह जीवन के संध्याकाल में शरीर की सारी उर्जा के क्षय होने के बाद कैसे संभव हो सकता है ?परन्तु यह बात उसको मृत्यु पर्यंत समझ नहीं आती |कबीर इसी बात को कहते हैं-
                                                   रात गंवाई सोय के,दिवस गंवाया खाय |
                                                   हीरा जन्म अमोल है,कौड़ी बदले जाय ||
                       दिन में अपने जीवनयापन में लगे रहते हो और रात को थकहारकर सो जाते हो |यही एक आदमी का दिन प्रतिदिन का जीवन हो गया है |जबकि जीवन को ऐसा नहीं होना चाहिए |यह मानव जीवन अनमोल है |यह जन्म तो एक लंबे कई जीवन जीने के उपरांत उपलब्ध हुआ है ,यह मानव जीवन हीरे के समान है और आप इसे कौडियों के बदले समाप्त किये जा रहे हो |मानव जीवन का जो उद्देश्य होना चाहिए उस को पूरा करने के स्थान पर तुम अपने शरीर और इस संसार की भौतिकता में डूब कर बेकार कर रहे हो |
                                                   पांच पहर धंधे गया,तीन पहर गया सोय |
                                                   इक पहर हरी नाम बिनु,मुक्ति कैसे होय ||
                     प्राचीन काल में समय की इकाई प्रहर होती थी |एक प्रहर तीन घंटे का होता है |इस प्रकार एक दिन-रात में कुल आठ प्रहर होते है |कबीर कहते हैं कि मनुष्य अपने पाँच प्रहर तो जीविका कमाने के लिए धंधा करता रहता है और तीन प्रहर अपनी थकन मिटने के लिए सोकर बीता देता है |इस प्रकार एक दिन के आठों प्रहर वह इन्ही दो कार्यों में बीता देता है |उसे इस दौरान परमात्मा का भी स्मरण नहीं रहता |और परमात्मा के बिना उसकी मुक्ति की कल्पना भी नहीं की जा सकती |कबीर यहाँ यह कहना चाहते हैं कि सब कार्य करते हुए भी कुछ समय परमात्मा के कार्यों के लिए भी निकालना चाहिए |
                                   दुर्लभ मानुस जन्म है,देह न बारम्बार |
                                  तरुवर ज्यों पत्ती झडे,बहुरि न लागे डार ||
                 अंत में कबीर मानव जन्म के बारे में कहते हैं कि यह मानव जन्म बहुत ही दुर्लभ है,यह बार बार मिलना संभव नहीं है |जैसे किसी पेड़ पर लगा पत्ता झड कर नीचे गिर जाता है तो फिर वह पत्ता उस पेड़ पर दुबारा से नहीं लगाया जा सकता |अतः मानव जीवन का सदुपयोग कर लेना ही बुद्धिमता है |
                  || हरिः शरणम् || 

Friday, February 7, 2014

अमृत-धारा |बिहारी-२

                                किसी भी बात को आसान और मधुर तरीके से कहने का अंदाज़ अगर सीखना हो तो कवि बिहारी से सीखा जा सकता है |इस समाज में भिन्न भिन्न  प्रकार के मनुष्य निवास करते हैं |सबसे बड़ी बात यह है कि सबके अपने अपने स्वभाव होते है |और सब अपने उसी स्वभाव के अनुरूप आचरण करते हैं |और इससे भी बड़ी बात यहाँ यह हहै कि हर कोई अपना स्वभाव तो बदलने की कोशिश करता नहीं है और संपर्क में आने वाले व्यक्ति का स्वभाव परिवर्तन करने का दुस्साहस अवश्य ही करता है |इस संसार में सब कुछ करना संभव हो सकता है,परन्तु किसी अन्य व्यक्ति का स्वभाव परिवर्तन करना किसी के लिए भी संभव नहीं है |
                                   इस भौतिक संसार में सभी प्रकार के मनुष्य निवास करते हैं|जिसमे कुछ अच्छे स्वभाव वाले होते है और कुछ अति निम्न स्तर के स्वभाव वाले |अच्छे स्वभाव वाले व्यक्ति के स्वभाव को परिवर्तित करने की किसी को भी आवश्यकता नहीं होती है परन्तु निम्न स्तर के स्वभाव वाले व्यक्ति के स्वभाव को बदलने की ईच्छा हर कोई में होती है |बिहारी कहते हैं कि आपका यह प्रयास बेकार ही जायेगा क्योंकि किसी का भी स्वभाव बदलना किसी के भी बस में नहीं होता है |बिहारी ने कहा है-
                                   कोटि जतन कोऊ करे,परे न प्रकृतिहि बीच |
                                    नल बल जल ऊंचौ चढे,तऊ नीच को नीच ||
                           पानी का स्वभाव ऐसा होता है कि वह ऊपर से नीचे की तरफ ही बहता है |विद्युत मोटर और नल की सहायता स उसे ऊपर छत पर बनी पानी की टंकी में चढ़ाया जा सकता है |परन्तु इतने से ही पानी का स्वभाव ऊपर चढने का नहीं हो जाता है |ज्योंही उसे नीचे की तरफ जाने का रास्ता मिलेगा वह ऊपर से नीचे की ओर बहने लगेगा | बिहारी पानी के इस स्वभाव से नीच मनुष्य के स्वभाव की तुलना करते हैं और कहते हैं कि चाहे आप करोड़ों (कोटि )तरह के उपाय करले,कोई भी उपाय प्रकृति प्रदत्त स्वभाव को बदल सकने जैसा कार्य नहीं करने वाला |आपके ये समस्त उपाय व्यर्थ ही साबित होंगे |क्योंकि प्रकृति प्रदत स्वभाव को कोई भी परिवर्तित नहीं कर सकता है |
                           इस दोहे से हमें यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि अगर आप को किसी व्यक्ति का स्वभाव पसंद नहीं है तो उस व्यक्ति का स्वभाव बदलने का प्रयास कदापि न करें |इससे आपकी उर्जा व्यर्थ में ही नष्ट होगी |बेहतर होगा की आप इस उर्जा का कहीं और उपयोग करें |
                                || हरिः शरणम् ||

Thursday, February 6, 2014

अमृत-धारा |बिहारी -१

                                     बिहारी,काव्य जगत का एक ऐसा नाम जिसे कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा |जिस समय बिहारी का इस संसार में आगमन हुआ और अपना जीवन जिया , उस समय को  रीति-काल कहा जाता है |बिहारी का जन्म ग्वालियर ,बुंदेलखंड में हुआ था,बाद में  वे मथुरा ,अपनी ससुराल जाकर बस गए थे | बिहारी ने ७१३ दोहों से "सतसई " नामक एक ग्रन्थ की रचना की थी |जिसके बारे में किसी ने सच ही कहा है कि-
                           सतसईया के दोहरे,ज्यों नाविक के तीर |
                           देखन   में  छोटे   लगे , घाव करे गंभीर ||
               वे राज घराने जयपुर के राज कवि रहे हैं |उस वक्त जयपुर में सवाई जय सिंह का शासन था ,जो शाहजहाँ के अधीन थे |राजा जय सिंह अपनी शादी के बाद नई रानी के साथ अतिव्यस्त हो गए थे ,तब बिहारी ने उनको आगाह करने के लिए एक दोहा कहा था-
                                नहिं पराग नहिं  मधुर मधु,नहिं विकास यहि काल |
                                  अली कली में ही बिंध्यो ,आगे कौन हवाल ||
                   बिहारी , राजा जय सिंह को समझाते हुए कह रहे हैं कि रानी रत रहने का कोई कारण नहीं है|न तो इनमे पराग है,न ही यह कोई मीठा मधु यानि शहद है और रानी में मगन रहना न ही कोई विकास का काम  है |यह तो मात्र एक काल है |हे अली अर्थात हे भँवरे (राजा को संबोधन )तूं इस कली के साथ रहकर क्यों बिंधा जा रहा है अर्थात केवल रानी में ही क्यूँ इतना रत है ,इससे ज्यादा मैं क्या कहूँ?भंवरे और कली के उदाहरण से अधिक अच्छा क्या उदाहरण दूँ-"आगे कौन हवाल" अर्थात तुमसे अधिक इस राज्य का कौन रक्षक हो सकता है ?|भंवरा कली के मोह में आकर काँटों से बिंध जाता है क्योंकि फूल में पराग भी होता है और शहद भी |पराग और शहद पाने की कामना ,भंवरे को फूल की तरफ आकर्षित करती है|फूल के चारों और कांटे होते है जिनके कारण भंवरे का शरीर बिंध जाता है |बिहारी ने जय सिंह को यही समझाया कि रानी में न तो पराग है और न ही मीठा शहद |केवल रानी के पास रहकर तूं अपने आपको घायल क्यों कर रहा है?आप एक अच्छे योद्धा हो,रानी के पास रहते हुए घायल होने से अच्छा है कि युद्ध मैदान में वीरता के साथ लड़ते हुए घायल हों |उस समय शाहजहाँ ने बिना जय सिंह को साथ लिए बखल पर आक्रमण किया था परन्तु वहाँ पर वह और उसकी सेना फंस गयी |राजा जय सिंह को बुलाने के लिए उसने सन्देश भेजा था |उस समय राजा से डरते हुए किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि शाहजहाँ का यह सन्देश उन्हें पहुंचा दे क्योंकि राजा जय सिंह अपनी रानी में मस्त था |तब बिहारी ने ही उन्हें उपरोक्त दोहे के माध्यम से समझाया था |राजा जयसिंह सब बात तुरंत समझ गए और सेना लेकर बखल के लिए प्रस्थान कर गए |वहाँ वीरता से लड़कर शाहजहाँ और उसकी सेना को सुरक्षित निकल लाए |
                                    यही है बिहारी की खासियत |रीति-काल के कवि उस समय की व्यवस्था को देखकर अपनी काव्य रचना के माध्यम से संकेत देते थे |विवेकशील मनुष्य तुरंत ही उसका अर्थ समझ जाते थे और फिर उसी अनुरूप कार्य करते थे |इन रचनाओं में किसी भी प्रकार का कटाक्ष नहीं हुआ करता था,जिससे न तो कहने वाले और न ही समझने वाले को बुरा लगता था |एक आदर्श कविता और कवि की यही पहचान होती है |
                                  || हरिः शरणम् ||

Wednesday, February 5, 2014

अमृत-धारा |रहीम-५

                                                 रहीम एक समाजसुधारक भी रहे हैं |समय समय पर उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार किये|उनकी एक सोच थी कि जब तक व्यक्ति स्वयं  नहीं सुधरेगा तब तक समाज नहीं सुधर सकता |उन्होंने समझदार और मूर्खों के बारे में स्पष्टतः अंतर किया है और कहा है कि जब तक ज्ञान को आचरण में नहीं लाया जायेगा तब तक सारा ज्ञान ही व्यर्थ है |जिसको ज्ञान तो है परन्तु ज्ञान को अमल में नहीं लाता तो वह फिर ज्ञानी न होकर मूर्ख ही है |इस बारे में उनका एक दोहा है-
                                          रहिमन नीर पहान,बूडे पर सींझे नहीं |
                                           तैसे मूरख जान,बुझे पर सूझे नहीं ||
                     रहीम इस दोहे के माध्यम से कहना चाहते हैं कि जैसे नदी के जल में पत्थर डूब तो जाता है परन्तु भीतर से भीगता नहीं है-"रहिमन नीर पहान,बूडे पर सींझे नहीं"|आप पानी में पत्थर फेंकिये,वह उसमे डूब जायेगा |कई दिनों तक डूबे रहने के बाद निकालिए और उसे तोड़ डालें |आप पाएंगे कि भीतर से उसकी कठोरता कई दिनों तक पानी में डूबे रहने के बाद भी कायम है |रहीम कहते हैं कि यही स्थिति एक मूर्ख व्यक्ति की होती है,जो समझता तो सब है परन्तु उस समझ का उपयोग नहीं करता है |पानी रुपी ज्ञान में वह आकंठ डूबा है परन्तु उस ज्ञान पर वह चलता नहीं है |ऐसे व्यक्ति को मूर्ख के अतिरिक्त और क्या कह सकते हैं ?इसी मूर्खता के बारे में अन्य स्थान पर रहीम कहते हैं-
                                            पात पात को सींचबो,बरी-बरी को लोन |
                                            रहिमन ऐसी बुद्धि को ,कहो बरैगो कौन ||
                        रहीम कहते हैं कि मूर्खता कैसी कैसी होती है-देखिये जरा |पौधे को पानी देने के स्थान पर पत्तों को पानी दिया जा रहा है-"पात पात को सींचबो"|अगर पौधे को पानी देना है तो उसकी जड़ों में देना होता है,केवल पत्तों को भिगोने से कुछ नहीं होगा |इसी प्रकार दाल की जब बडियां बनाई जाती है तो नमक पूरी दाल में डाला जाता है ,न कि बडियां बनाने के बाद एक एक बड़ी पर नमक डाला जाये |मूर्ख लोग एक एक बड़ी पर नमक डालते हैं-"बरी-बरी को लोन"|आगे रहीम कहते हैं कि ऐसी बुद्धि की कोई सराहना कैसे कर सकता है ?रहीम इसके बाद बुद्धिमत्ता के बारे में कहते हैं कि-
                                           एकै साधे सब सधै,सब साधे सब जाय |
                                        रहिमन मूल ही सींचबो,फूलहि फलहि अघाय ||
                         पौधे की जड में पानी देने से सब कार्य संपन्न हो सकते हैं |पेड़ के पत्ते,फूल और फल सभी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सकते हैं |अतः समझदार व्यक्ति एक ही मुख्य कार्य कर सभी कार्य संपन्न कर सकते हैं |प्रत्येक व्यक्ति की ऐसी ही सोच होनी चाहिए ,तभी उसकी बुद्धि की प्रशंसा की जा सकती है |
                         उपरोक्त सभी दोहों की अध्यात्मिक व्याख्या है |परमपिता परमात्मा ही सर्वज्ञ है और उन तक पहुंचना ही एक मात्र लक्ष्य होना चाहिए |उसी की आराधना ही सबसे बड़ी आराधना है |संसार का मूल वही है |समझदार व्यक्ति दिन-रात उसी में रत रहते हैं |
                                              || हरिः शरणम् ||

Tuesday, February 4, 2014

अमृत-धारा |कबीर-७

                                    कबीर परमात्मा की प्रार्थना के नाम पर किये जा रहे ढकोसलों के सख्त विरोधी थे |उन्होंने सभी धर्मों को मानने वालों को इन ढकोसलों के बारे में जागृत किया था | उन्होंने लोगों को चेताया कि अगर आप मन को प्रार्थना के दौरान परमात्मा की तरफ नहीं लगाते हो तो फिर आपकी ऐसी प्रार्थना की कोई कीमत नहीं है |परमात्मा आपके मुंह से उच्चारित शब्दों की तरफ आकर्षित नहीं होगा बल्कि आपका एकाग्र मन ही आपको परमात्मा के निकट ले जायेगा |
                         ऐसी ही मेरे बचपन की एक घटना मेरे को अभी याद आ रही है |मैं यदा कदा अपने ननिहाल जाया करता था |जहाँ मैं रहता हूँ उसी गांव में मेरा ननिहाल भी है |एक दिन शाम को मैं मेरे ननिहाल में ही था |शाम की आरती का समय हो चला था |मेरी बड़ी नानी भगवान की आरती नियमित तौर पर करती थी |आरती और पूजा के दौरान घर का मुख्य दरवाजा खुला रखा जाता है,ऐसी वहाँ परम्परा है |उस दिन नानी आरती कर रही थी कि अचानक एक कुत्ता मुख्य दरवाजे से घर के अंदर प्रवेश कर रसोईघर की तरफ जाने लगा |नानी "जय जगदीश हरे" गा रही थी |कुत्ते को देखते ही उनके बोल इस प्रकार बन गए-"जय जगदीश हरे...दूर रह....दूर रह..."|कुत्ते को वह कह रही थी कि दूर रह | मुझे उस समय बड़ी हंसी आई|मैंने नानी को कहा कि आप तो ईश्वर को दूर रहने की कह रही थी |नानी कुछ समझ नहीं पाई कि मैं क्या कह रहा हूँ?उस समय तो नानी को ईश्वर की बजाय रसोई में बने शाम के खाने को कुत्ते से बचाने की फ़िक्र ज्यादा थी |
                                   कबीर ऐसी ही बातों पर कटाक्ष करते हैं और कहते हैं-
                                                           माला फेरत जुग गया ,मिटा न मन का फेर |
                                                           कर का मनका छोड़कर, मन का मनका फेर ||
                  यह जो आप माला फेर रहे है,ईश्वर के नाम की जो गिनती कर रहे है उसकी कोई बात नहीं है |ईश्वर आपको कितनी बार याद करता है,उसकी क्या वह गिनती करता है,जो आप उसको जितनी बार याद कर रहे हो ,उसकी गिनती कर रहे हो |इसकी कोई बात नहीं,लेकिन जब आप ईश्वर का नाम मुँह से उच्चारित कर रहे हैं तब आपका मन कहाँ था,वह जानना ज्यादा महत्वपूर्ण है |आपका मन उस वक्त या तो किसी कल्पना में खोया हुआ रहता है,या सांसारिक गतिविधियों की कोई योजना बना रहा होता है |ऐसी माला फेरने का कोई औचित्य नहीं है |कबीर कहते हैं कि इस प्रकार माला फेरते फेरते युग बीत जायेंगे ,परमात्मा फिर भी उपलब्ध नहीं होनेवाले |क्योंकि आप परमात्मा को सच्चे ह्रदय से तो स्मरण नहीं कर रहे हैं |माला के मनके तो आपके हाथ में फिर रहे हैं और आपका मन परमात्मा की बजाय संसार में इधर उधर भागा भागा फिर रहा है |आवश्यकता है कि इस हाथ में फिर रहे माला के मनकों को तो फेरना बंद करें और इस मन को इधर उधर भटकने से रोकें |मन को संसार में लगाने  की बजाय उसे परमात्मा की तरफ लगा  दें|इस मन के मनकों को परमात्मा की तरफ फिरा देना ही असली माला के मनकों का फिराना है |कबीर ऐसी ही बात अपने अलग अंदाज़ में अन्य दोहे में भी कहते हैं-
                                                          माला तो कर में फिरे ,जीभ फिरे मुख मांही |
                                                          मनवा तो चहुँ दिसि फिरे,यह तो सुमिरन नाहीं ||
                        कभी ध्यान से देखें-जब माला हाथ में फिर  रही है तब मुख में स्वतः ही आपकी जीभ भी कुछ उच्चारित कर रही होती है |जीभ वही उच्चारित कर रही होती है जिसकी आप उसे आदत डाल देते हैं |प्रारंभ में आपको पता होता है कि आप किस मन्त्र को उच्चारित करने की आदत डाल रहे हैं |एक बार जब जीभ की वह आदत बन जाती है तब आपको भी ज्ञान नहीं रहता कि जीभ क्या उच्चारित कर रही है ?ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपका मन उस अवधि में संसार में चारों तरफ घूम रहा होता है ,सोच रहा होता है कि कल आपको किसने क्या कहा था,आज कौन कौन से काम करने है,किसको क्या कहना है ?आदि आदि |ऐसी अवस्था में आपका माला फेरना और जिव्हा से परमात्मा के लिए मन्त्रों को उच्चारित करना,सब व्यर्थ है |आप संसार में रहते हुए संसार के बारे में सोचते रहकर परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते |आप इस संसार में रहते हुए परमात्मा में मन लगाकर ही परमात्मा को पा सकते है |परमात्मा प्राप्ति के लिए संसार से भागने की कोई आवश्यकता नहीं है |साथ ही इसके लिए न तो माला की आवश्यकता है और न ही किन्ही मन्त्रों के उच्चारण की |
                                          || हरिः शरणम् ||  

Monday, February 3, 2014

अमृत-धारा |रहीम-४

                                                    रहीम और कबीर -भक्ति युग के ये दो नाम ही ऐसे है जिन्होंने परमात्मा की प्रार्थना के लिए किये जा रहे ढकोसलों को प्रमुखता से उठाया है |लोगों को इनके बारे में बताते हुए आगाह भी किया है |संसार में रहते हुए माया और मोह में रहते  हुए परमात्मा को प्राप्त करना -दोनों एक साथ होना मुश्किल है |या तो आपको मोह माया को त्यागना पड़ेगा या फिर परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयास छोडना होगा |रहीम ने इस सम्बन्ध में कहा है कि-
                           अब रहीम मुश्किल पड़ी,गाढे दोऊ काम |
                           साँचे से तो जग नहीं,झूठे से नहीं राम ||
                                                   परमात्मा ही सनातन है ,सत्य है |संसार असत है |परमात्मा सदैव और समान है |संसार परिवर्तनशील है |आप एक समय में सत् और असत दोनों को कैसे उपलब्ध हो सकते हैं ?अगर आप सत् चाहते हैं तो असत को त्यागना होगा और अगर आपका आकर्षण असत में है तो फिर सत् को भूलना होगा |रहीम यहाँ यही कह रहे हैं कि मनुष्य के सामने यह कितनी बड़ी परेशानी आ खड़ी हुई  है कि दोनों काम कैसे संभव हो ?वह सांसारिक मोह में रहते हुए परमात्मा को पाना चाहता है | अगर सत्य के साथ चले तो संसार उससे दूर हो चलेगा और अगर असत्य का साथ दे तो फिर परमात्मा से मिलन संभव नहीं है |यही मनुष्य के सामने सदैव दुविधा रही है |किसी एक रास्ते पर चलने की उधेडबुन में उसका पूरा जीवन ही समाप्त हो जाता है |वह ताउम्र तय ही नहीं कर पाता कि उसे दोनों में से एक किसे चुनना चाहिए |यहाँ रहीम  उसे कोई भी रास्ता नहीं दिखा रहे है,बल्कि उसकी दुविधा को उसे बता रहे है |
                                दुविधा को स्पष्ट करने के बाद रहीम कहते हैं-
                       तासों ही कछु पाइए,कीजे जाँकी आस |
                           रीते सरवर गये,कैसे बुझे प्यास ?
                    रहीम अब दुविधा में फंसे व्यक्ति को रास्ता दिखाने का प्रयास करते हैं |वे कहते हैं कि "तासों ही कछु पाइए,कीजे जांकी आस "जिसकी आप आशा कर रहे हो,मनुष्य की आशा है परमात्मा को पाना ,जिसकी तुम आशा कर रहे हो वही तुमको कुछ दे सकता है |यहाँ आपको जो कुछ भी मिल रहा है वह सब उस परम पिता परमात्मा का ही दिया हुआ है |रहीम यहाँ कहते हैं कि जिसको तुम चाहते हो वही तुम्हे दे सकता है |लेकिन तुम इस संसार में आकर,संसार से ही कुछ प्राप्त करने की आशा कर रहे हो |संसार तो एक रीता तालाब है ,उसमे पानी का अभाव है ,फिर भी आप उससे पानी चाहते है |ऐसे में वह सरोवर आपकी प्यास कैसे बुझा सकता है ?यहाँ प्यास आपकी कामनाएं है और संसार एक सरोवर है |संसार ने क्या किसी की कामनाये,इच्छाए कभी भी पूरी की है?नहीं,कभी भी किसी की कामनाएं पूरी हुई है और न ही कभी पूरी हो सकती है |मनुष्य यह सब भलीभांति जानता भी है ,फिर भी वह संसार से ही कुछ पाने की कामना करता है |लेकिन एक बार जब वह परमात्मा की आशा करता है तब समस्त कामनाएं समाप्त हो जाती है ,और उसे जो प्राप्त होता है वह केवल वही जान सकता है जिसने उसे प्राप्त किया है |रहीम इस बात को अपने काव्य के माध्यम से इस प्रकार कहते हैं -
                          रहिमन बात अगम्य की,कहनि सुननि की नाहीं |
                          जे जानति ते कहति नहीं,कहत ते जानति नाहीं ||
               "रहिमन बात अगम्य की"-अगम्य उसे कहते हैं जो गमन नहीं करता हो अर्थात चलायमान नहीं हो ,सनातन और प्रत्येक स्थान पर हो ,सर्वत्र हो ,परिवर्तनशील न हो |परमात्मा ही अगम्य है |रहीम कहते हैं कि परमात्मा की बात कोई कहने और सुनने की नहीं है ,क्योंकि जो परमात्मा को जान चूका है ,उसके पास तो उसे बताने के लिए शब्द नहीं है,वे परमात्मा को जानकर मौन हो जाते हैं |और जो परमात्मा को जानते ही नहीं है ,वे पूरे संसार को उसके बारे में बतलाते घूम रहे हैं |आज के सन्दर्भ में यह बात एकदम से सही प्रतीत हो रही है |कबीर ने परमात्मा को जान जाने और फिर उससे प्राप्त आनंद को सबको बता न पाने को "गूंगा केरी शर्करा "कहा है |गूंगा शक्कर खाकर भी उसकी मधुरता को बतला नहीं सकता |
                 रहीम संसार को असत कहते है और परमात्मा को सत् |दोनों एक साथ प्राप्त नहीं किये जा सकते |दोनों में से किसी एक को चुनना होगा |परमात्मा को ,सत् को चुनना ही सही चुनाव है |जब आपका चुनाव सत् के पक्ष में हो जाता है,तो फिर आप परमात्मा के अतिनिकट हो जाते हो |ऐसे में परमात्मा आप से दूर कैसे रह सकते है ?और एक बार जब आपको परमात्मा की आहट महसूस होती है तो फिर उसे व्यक्त करने के लिए आपके पास शब्द ही नहीं होते |यही आध्यात्मिकता की उच्चत्तम अवस्था है |
                                             || हरिः शरणम् ||