क्रमश:
गीता में भगवान ने किसी जीव को उत्पन्न करने के लिए पांच तत्वों,पांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय,दस इन्द्रियों के अलावा मन,बुद्धि और अहंकार आवश्यक बताये है,जो कि प्रकृति से पैदा होते हैं|जबकि श्रीमद्भागवत महापुराण में इनके अतिरिक्त चित्त को भी शामिल किया है|चित्त को भी प्रकृति से उत्पन्न माना गया है|हालाँकि मन और चित्त में स्थिति के अनुसार कोई फर्क नहीं है,दोनों शरीर और आत्मा को जोड़ते है|अंतर केवल गुणात्मक है|अन्य शब्दों में कहा जाये तो इन को प्रयायवाची कह सकते है|मन और चित्त एक ही सिक्के के दो पहलू है|मन को पट्ट और चित्त को चित्त कह सकते है|मन का जो किनारा शरीर व संसार को छूता है वह मन है और दूसरा किनारा जो आत्मा को छूता है वह चित्त कहलाता है|दोनों शब्द केवल शब्दों का फेर है|मन कभी भी चित्त बन सकता है और चित्त कभी भी मन|
मन का हिस्सा जो बुद्धि से प्रभावित होता है और आत्मा भी उसे प्रभावित करता है ,उसे अंतःकरण भी कहते हैं|इसलिए अन्तःकरण की आवाज ज्यादा मायने रखती है,बजाय मन की आवाज के|व्यक्ति जब सांसारिक मोहजाल में फंसा रहता है और उसके मस्तिष्क पर काम और वासनाएं हावी होने लगती है तब वह चित्त यानि अन्तःकरण अथवा अंतर्मन की आवाज की उपेक्षा करनी शुरू कर देता है|यहीं से चित्त का परिवर्तन मन में होने लगता है|इस आवाज की लगातार उपेक्षा करते जाने से उस व्यक्ति को इसका सुनाई देना भी बंद हो जाता है|ऐसी स्थिति में चित्त के स्थान को मन पूर्ण रूप से घेरकर समस्त स्थान पर अपना प्रभुत्व कायम कर लेता है|यह मानव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है|इस त्रासदी से निकलना मनुष्य के लिए लगभग असंभव हो जाता है|इस संसार में डाकू से महर्षि बनने के उदाहरण एक दो से ज्यादा नहीं है|जब चित्त की आवाज सुनकर मनुष्य अच्छी राह पर चल देता है तो फिर परमात्मा से उसकी दूरी तुरंत समाप्त हो जाती है,कोई इंतज़ार नहीं करना होता|फिर वह स्वयं ही परमात्मा स्वरुप होते होते परमात्मा ही हो जाता है|
यह सब पढना और लिखना जितना आसान है|जीवन में उतारना उतना ही मुश्किल|क्योंकि कर्ता भाव हमें इसे जीवन में उतारने से रोक देता है|हम ही इस संसार में सभी कार्य करने वाले बन जाते हैं|यह सब हमारे चित्त को प्रभावित करती है और मन प्रभावशील हो जाता है|सब "मैं" ही हूँ , यह मन का स्वभाव है,सब परमात्मा है यह चित्त का स्वभाव है|जब आप मन के अधीन होते हैं, तब आप कुछ ना करते हुये,केवल सोचते हुये भी सब कुछ करते है(कर्म-बंधन) ,और जब आप चित्त के अधीन होकर कुछ करते है ,तो आप सब कुछ करते हुये भी कुछ नहीं करते हैं|(कर्म-संन्यास)|कर्म बंधन आप को जन्म-मरण के चक्र से बाहर नहीं आने देता ,जबकि कर्म संन्यास मुक्ति का मार्ग खोलता है|गीता में भगवान कहते है-
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः|
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः||गीता २/६०||
अर्थात्,हे अर्जुन!आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली अर्थात् अपना प्रभुत्व कायम करने के स्वभाव वाली इन्द्रियां यत्न करते हुये बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती है|
इस श्लोक से स्पष्ट है कि जब मनुष्य को भोग प्रधान कर्म करने में आनंद आने लगता है तो इन्द्रियां मन पर अपना प्रभाव कायम कर लेती है| जिस कारण मनुष्य अधिक आनंद उठाने के लिए कर्म करने को विवश हो जाता है|वह कर्म के साथ अपने आप को बांध लेता है-यही कर्म-बंधन है|
कर्म-बंधन में व्यक्ति को अतुलनीय आनंद की अनुभूति होती है|कर्म-संन्यास को वह एक काल्पनिकता मानता है|आज जो सामने है उसको नकारना असंभव है|जो अभी सामने नहीं है,वह है भी या नहीं,इसी सोच में पूरा जीवन समाप्त हो जाता है|फिर कोई कहाँ से कर्म-बंधन छोड़ कर कर्म-संन्यास को उपलब्ध होगा?इस देश के नागरिकों की यही विडम्बना है|हम योग नहीं कर सकते,जिम जा सकते हैं|हम घर पर निम्बू पानी नहीं पियेंगे,बाहर की बोतलबंद पेय पी लेंगे;घर पर शाम को बनी रोटी अगले दिन सुबह नहीं खायेंगे,महीने पहले के बने बिस्किट खा लेंगे;छः महीने के बच्चे को डिब्बाबंद खाद्य देना पसंद करेंगे;घर पर सूजी की खीर नहीं खिलाएंगे,ऐसे सैंकडों उदहारण मिल जायेंगे|काश!इस चित्त और मन को पश्चिम का कोई वैज्ञानिक सिद्ध कर दे तब फिर हम भी इन सब पर विश्वास कर सकेंगे| हमारे सभी शास्त्र वैज्ञानिक पुष्टि कर के लिखे हुये हैं,विश्वास तो हमें ही करना होगा|अन्यथा हमारे पास चित्त न होकर मात्र मन होगा और कर्म-संन्यास के स्थान पर सिर्फ कर्म-बंधन|हमारा भविष्य हम ही तय कर सकते है,कोई अन्य नहीं|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
गीता में भगवान ने किसी जीव को उत्पन्न करने के लिए पांच तत्वों,पांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय,दस इन्द्रियों के अलावा मन,बुद्धि और अहंकार आवश्यक बताये है,जो कि प्रकृति से पैदा होते हैं|जबकि श्रीमद्भागवत महापुराण में इनके अतिरिक्त चित्त को भी शामिल किया है|चित्त को भी प्रकृति से उत्पन्न माना गया है|हालाँकि मन और चित्त में स्थिति के अनुसार कोई फर्क नहीं है,दोनों शरीर और आत्मा को जोड़ते है|अंतर केवल गुणात्मक है|अन्य शब्दों में कहा जाये तो इन को प्रयायवाची कह सकते है|मन और चित्त एक ही सिक्के के दो पहलू है|मन को पट्ट और चित्त को चित्त कह सकते है|मन का जो किनारा शरीर व संसार को छूता है वह मन है और दूसरा किनारा जो आत्मा को छूता है वह चित्त कहलाता है|दोनों शब्द केवल शब्दों का फेर है|मन कभी भी चित्त बन सकता है और चित्त कभी भी मन|
मन का हिस्सा जो बुद्धि से प्रभावित होता है और आत्मा भी उसे प्रभावित करता है ,उसे अंतःकरण भी कहते हैं|इसलिए अन्तःकरण की आवाज ज्यादा मायने रखती है,बजाय मन की आवाज के|व्यक्ति जब सांसारिक मोहजाल में फंसा रहता है और उसके मस्तिष्क पर काम और वासनाएं हावी होने लगती है तब वह चित्त यानि अन्तःकरण अथवा अंतर्मन की आवाज की उपेक्षा करनी शुरू कर देता है|यहीं से चित्त का परिवर्तन मन में होने लगता है|इस आवाज की लगातार उपेक्षा करते जाने से उस व्यक्ति को इसका सुनाई देना भी बंद हो जाता है|ऐसी स्थिति में चित्त के स्थान को मन पूर्ण रूप से घेरकर समस्त स्थान पर अपना प्रभुत्व कायम कर लेता है|यह मानव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है|इस त्रासदी से निकलना मनुष्य के लिए लगभग असंभव हो जाता है|इस संसार में डाकू से महर्षि बनने के उदाहरण एक दो से ज्यादा नहीं है|जब चित्त की आवाज सुनकर मनुष्य अच्छी राह पर चल देता है तो फिर परमात्मा से उसकी दूरी तुरंत समाप्त हो जाती है,कोई इंतज़ार नहीं करना होता|फिर वह स्वयं ही परमात्मा स्वरुप होते होते परमात्मा ही हो जाता है|
यह सब पढना और लिखना जितना आसान है|जीवन में उतारना उतना ही मुश्किल|क्योंकि कर्ता भाव हमें इसे जीवन में उतारने से रोक देता है|हम ही इस संसार में सभी कार्य करने वाले बन जाते हैं|यह सब हमारे चित्त को प्रभावित करती है और मन प्रभावशील हो जाता है|सब "मैं" ही हूँ , यह मन का स्वभाव है,सब परमात्मा है यह चित्त का स्वभाव है|जब आप मन के अधीन होते हैं, तब आप कुछ ना करते हुये,केवल सोचते हुये भी सब कुछ करते है(कर्म-बंधन) ,और जब आप चित्त के अधीन होकर कुछ करते है ,तो आप सब कुछ करते हुये भी कुछ नहीं करते हैं|(कर्म-संन्यास)|कर्म बंधन आप को जन्म-मरण के चक्र से बाहर नहीं आने देता ,जबकि कर्म संन्यास मुक्ति का मार्ग खोलता है|गीता में भगवान कहते है-
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः|
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः||गीता २/६०||
अर्थात्,हे अर्जुन!आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली अर्थात् अपना प्रभुत्व कायम करने के स्वभाव वाली इन्द्रियां यत्न करते हुये बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती है|
इस श्लोक से स्पष्ट है कि जब मनुष्य को भोग प्रधान कर्म करने में आनंद आने लगता है तो इन्द्रियां मन पर अपना प्रभाव कायम कर लेती है| जिस कारण मनुष्य अधिक आनंद उठाने के लिए कर्म करने को विवश हो जाता है|वह कर्म के साथ अपने आप को बांध लेता है-यही कर्म-बंधन है|
कर्म-बंधन में व्यक्ति को अतुलनीय आनंद की अनुभूति होती है|कर्म-संन्यास को वह एक काल्पनिकता मानता है|आज जो सामने है उसको नकारना असंभव है|जो अभी सामने नहीं है,वह है भी या नहीं,इसी सोच में पूरा जीवन समाप्त हो जाता है|फिर कोई कहाँ से कर्म-बंधन छोड़ कर कर्म-संन्यास को उपलब्ध होगा?इस देश के नागरिकों की यही विडम्बना है|हम योग नहीं कर सकते,जिम जा सकते हैं|हम घर पर निम्बू पानी नहीं पियेंगे,बाहर की बोतलबंद पेय पी लेंगे;घर पर शाम को बनी रोटी अगले दिन सुबह नहीं खायेंगे,महीने पहले के बने बिस्किट खा लेंगे;छः महीने के बच्चे को डिब्बाबंद खाद्य देना पसंद करेंगे;घर पर सूजी की खीर नहीं खिलाएंगे,ऐसे सैंकडों उदहारण मिल जायेंगे|काश!इस चित्त और मन को पश्चिम का कोई वैज्ञानिक सिद्ध कर दे तब फिर हम भी इन सब पर विश्वास कर सकेंगे| हमारे सभी शास्त्र वैज्ञानिक पुष्टि कर के लिखे हुये हैं,विश्वास तो हमें ही करना होगा|अन्यथा हमारे पास चित्त न होकर मात्र मन होगा और कर्म-संन्यास के स्थान पर सिर्फ कर्म-बंधन|हमारा भविष्य हम ही तय कर सकते है,कोई अन्य नहीं|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
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