Tuesday, July 30, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:१७|मन-६

क्रमश:
                        गीता के अनुसार कर्म तीन प्रकार के होते हैं, कर्म,अकर्म और विकर्म|इनकी प्रकृति के अनुसार उन्हें अलग तरीके से तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है-सात्विक, राजसिक और तामसिक कर्म| मनुष्य के कर्म ,जो भी वह अपने जीवन में करता है ,वे सब प्रकृति के गुणों(Characteristics of nature)के कारण ही संभव है|गुण भी तीन प्रकार के होते है-सात्विक,राजसिक और तामसिक|
                                                   मन के बारे में पूर्ण जानकारी हो जाने पर पता चलता है कि मन आत्मा को शरीर से जोड़े रखने की एक कड़ी है|जिसका स्वयं का कोई उर्जा स्रोत नहीं होता ,बल्कि वह दो उर्जा स्रोतों के बीच एक सामंजस्य पैदा करता है जिससे संसार की सभी क्रियाएँ सामान्य रूप से संचालित होती रहे|मन शुरुआत में एक ठहरे हुये जल की झील के समान होता है,जिसमे छोटा सा एक कंकड डालने से ही हलचल मच जाती है|इस हलचल से उत्पन्न तरंगे दोनों ही तटों को प्रभावित करती है-आत्मा को भी और शरीर को भी|इस हलचल से प्रभावित ना होना लगभग असंभव होता है|
                                    मन और शरीर का उद्भव ईश्वर की प्रकृति से होता है|और प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण तीनो गुण इनमे उपस्थित होते है|कोई भी मन और शरीर इन तीनो गुणों से अछूता नहीं हो सकता|किसी में एक गुण की प्रधानता होती है तो किसी में अन्य की|प्रधान गुण के कारण उस व्यक्ति का वैसा ही आचरण होता है और वह उसी के अनुरूप कर्म करता है|
     
                                   गीता में भगवान कहते हैं-
                               सत्वं रजस्तम इति गुणा: प्रकृतिसम्भवा:|
                               निबध्नन्ति  महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्||गीत१४/५||
                               अर्थात्, हे अर्जुन!सत्वगुण,रजोगुण और तमोगुण-ये  प्रकृति से उत्पन्न तीनो गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं|
     यहाँ जो तीन गुणों के बारे में भगवान बता रहे हैं ,वे सब शरीर और जीवात्मा को बांधे रखने की एक कड़ी है|इसी प्रकार मन भी जीवात्मा को शरीर से जोड़ने की एक कड़ी है|गुणों के अनुरूप ही कर्म होते है,जो फिर से मन में संचित होकर पुनर्जन्म को निर्धारित करते हैं|
                    विज्ञानं के अनुसार अगर देखा जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर और उसके समस्त अंगों में विद्युत उर्जा निरंतर बनी रहती है ,जिसके कारण जैव विद्युत-चुमबकीय क्षेत्र(Bio Electromagnetic field) सक्रिय रहता है|किसी एक अंग के इस क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन का असर दूसरे अंग के क्षेत्र को प्रभावित करता है|इस परिवर्तन होने को ही कर्म होना कहते हैं|उदाहरण के तौर पर अगर पेट यानि आमाशय (Stomach)में इस क्षेत्र में परिवर्तन होता है , तब हमें भूख लगने या पेट भर जाने आदि का अनुभव होता है|यह परिवर्तन हाथों में उपस्थित क्षेत्र को प्रभावित करता है जिससे खाना शुरू करने या खाना बंद करने की प्रकिया होती है|यहाँ गुण अमाशय में उपस्थित जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र है और कर्म वह प्रकिया है जो इस क्षेत्र में परिवर्तन आने से घटित होती है| यह उदाहरण जैविक कर्म का है|एक अन्य उदहारण भौतिक कर्म का लेते है-आप हमेशा प्रातः भ्रमण को जाते है|प्रतिदिन सुबह आपके मष्तिष्क के जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन आता है,वह आपके शरीर की अन्य मांसपेशियों के क्षेत्र को प्रभावित करता है जिससे आपके भ्रमण की प्रकिया शुरू हो जाती है|इसी प्रकार भ्रमण के दौरान आपके कान अगर पीछे से दौड़कर आते हुये  पशुओं की आवाज सुनते है,तो यह सब  कान के  भीतरी यंत्र में इस क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन के कारण होता है |यह परिवर्तन अनायास ही आपके पैरों में उपस्थित इसी क्षेत्र को प्रभावित करता है,जिससे आप अचानक एक झटके के साथ उछलकर उन पशुओं के रास्ते से हट जाते हैं|यह प्रतिक्रियात्मक कर्म का एक उदाहरण है|इन कर्मों से  जो विद्युत चुम्बकीय  क्षेत्र उत्पन्न होता है वह मन में अंकित यानि रेकॉर्ड होता है|यह फिर से शरीर को और आत्मा को प्रभावित करता है|जिस कर्म को करने से मनुष्य को आनंद आता है,मन की इसी रिकार्डिंग से पुनः शरीर को वही कर्म दोहराने का आदेश मिलता है |यह प्रक्रिया सतत जीवन भर चलती रहती है,और व्यक्ति भौतिक कर्म करते करते विकर्म की तरफ अग्रसर होता जाता है|उसे यह भान भी नहीं होता कि इन सब का लेख मन के एक हिस्से में अंकित हो रहा है,और जिनका परिणाम उसे अगले जन्म में मिलेगा|
                                     इस प्रकार हम देखते है कि  समस्त कर्म  इन जैव विद्यत चुम्बकीय क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तन मात्र ही है,और ये क्षेत्र प्रकृति के गुण ही है|इसको ही गीता में सभी गुण, गुणों में ही वरत रहे है,ऐसा कहा गया है|जिस व्यक्ति को इसका भान हो जाता है वह फिर भौतिक कर्म से विकर्म की और जाने की बजाय अकर्म की तरफ जाने का प्रयास करता है|जब वह इसमे सफल हो जाता है तब उसके सभी कर्म नष्ट हो जाते है,फिर वह कर्म करते हुये भी कर्म में बंधता नहीं है|कर्म में बंधने का अर्थ यह है की इन कर्मों के लेख मन के किसी भी  हिस्से में अंकित नहीं होते है| वास्तविकता में इसी स्थिति को मुक्त होना या मोक्ष प्राप्त होना कहते है|
      क्रमश:
                || हरि शरणम् ||
                                    

No comments:

Post a Comment