क्रमश:
मनुष्य का जीवन चक्र इस प्रकार का है,जिसमे प्रत्येक दिन या ऐसे कह सकते है कि प्रत्येक क्षण कुछ ना कुछ बदलाव होता रहता है|यह बदलाव प्रतिदिन इतने सूक्ष्म प्रकार से होता है कि इसे हर दिन महसूस नहीं किया जा सकता है|लंबे अंतराल में हमें महसूस होता है कि शरीर में बदलाव आ रहा है|जन्म लेने के बाद शिशु अवस्था होती है, जिसमे बदलाव तेजी से होते है|शिशु का वजन तेजी से बढ़ता है,और सीखना भी|१-११/२ वर्ष का होने तक वह चलना सीख जाता है|शिशु अवस्था में मानसिक विकास की गति बड़ी तेज होती है,और शिशु के मस्तिष्क का विकास २ वर्ष की आयु तक लगभग पूरा हो जाता है|शिशु के बाद बाल्यावस्था में शरीर का विकास तेज गति से होता है|युवावस्था में शरीर की सभी इन्द्रियां विकसित हो जाती है|इस समय उसका शारीरिक एवं मानसिक विकास अपने उच्चत्तम स्तर पर होता है|५० वर्ष उपरांत प्रोढावस्था आ जाती है|इस वय में व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक क्षमता कम होने लगाती है|अंतिम अवस्था वृद्धावस्था है,जब व्यक्ति की सभी शक्तियां चूक जाती है,शरीर क्षय होने लगता है और एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है|
इस जीवन चक्र को देखने से पता चलता है कि मानसिक विकास शिशु अवस्था में,और शारीरिक विकास बाल्य से युवावस्था के दौरान चरम पर होता है|युवावस्था अर्थात् २५-५० वर्ष की उम्र के दौरान लगभग स्थिरता रहती है| ५० वर्ष की उम्र के बाद शारीरिक क्षय शुरू हो जाता है जो वृद्धावस्था के दौरान अपने चरम पर होता है|
इन सबसे अलग विकास की अवस्था गर्भावस्था होती है,जहाँ एक कोशिकीय अवस्था से पूर्ण शरीर का विकास ९ माह की अवधि में माँ के गर्भ में होता है|यह विकास की एक जटिल प्रक्रिया है|आज विज्ञानं आधुनिक उपकरणों से इस प्रक्रिया को समझ पाया है|भारतीय शास्त्र "महाभारत" ,जो कि लगभग ५५०० वर्ष पूर्व लिखी गयी थी,उसमे वर्णित इस विकास की प्रक्रिया को विज्ञानं की शोध से तुलना करे तो सब कुछ समान है|आश्चर्य इसी बात का है कि आधुनिक उपकरणों के अभाव में भी ऋषियों ने शोध कर सब कुछ स्पष्टत: वर्णित किया है|
मनुष्य का जीवन चक्र इस प्रकार का है,जिसमे प्रत्येक दिन या ऐसे कह सकते है कि प्रत्येक क्षण कुछ ना कुछ बदलाव होता रहता है|यह बदलाव प्रतिदिन इतने सूक्ष्म प्रकार से होता है कि इसे हर दिन महसूस नहीं किया जा सकता है|लंबे अंतराल में हमें महसूस होता है कि शरीर में बदलाव आ रहा है|जन्म लेने के बाद शिशु अवस्था होती है, जिसमे बदलाव तेजी से होते है|शिशु का वजन तेजी से बढ़ता है,और सीखना भी|१-११/२ वर्ष का होने तक वह चलना सीख जाता है|शिशु अवस्था में मानसिक विकास की गति बड़ी तेज होती है,और शिशु के मस्तिष्क का विकास २ वर्ष की आयु तक लगभग पूरा हो जाता है|शिशु के बाद बाल्यावस्था में शरीर का विकास तेज गति से होता है|युवावस्था में शरीर की सभी इन्द्रियां विकसित हो जाती है|इस समय उसका शारीरिक एवं मानसिक विकास अपने उच्चत्तम स्तर पर होता है|५० वर्ष उपरांत प्रोढावस्था आ जाती है|इस वय में व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक क्षमता कम होने लगाती है|अंतिम अवस्था वृद्धावस्था है,जब व्यक्ति की सभी शक्तियां चूक जाती है,शरीर क्षय होने लगता है और एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है|
इस जीवन चक्र को देखने से पता चलता है कि मानसिक विकास शिशु अवस्था में,और शारीरिक विकास बाल्य से युवावस्था के दौरान चरम पर होता है|युवावस्था अर्थात् २५-५० वर्ष की उम्र के दौरान लगभग स्थिरता रहती है| ५० वर्ष की उम्र के बाद शारीरिक क्षय शुरू हो जाता है जो वृद्धावस्था के दौरान अपने चरम पर होता है|
इन सबसे अलग विकास की अवस्था गर्भावस्था होती है,जहाँ एक कोशिकीय अवस्था से पूर्ण शरीर का विकास ९ माह की अवधि में माँ के गर्भ में होता है|यह विकास की एक जटिल प्रक्रिया है|आज विज्ञानं आधुनिक उपकरणों से इस प्रक्रिया को समझ पाया है|भारतीय शास्त्र "महाभारत" ,जो कि लगभग ५५०० वर्ष पूर्व लिखी गयी थी,उसमे वर्णित इस विकास की प्रक्रिया को विज्ञानं की शोध से तुलना करे तो सब कुछ समान है|आश्चर्य इसी बात का है कि आधुनिक उपकरणों के अभाव में भी ऋषियों ने शोध कर सब कुछ स्पष्टत: वर्णित किया है|
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