शरीर का विकास किस तरह से होता है,संक्षेप में समझाने का प्रयास किया गया है|वैसे यह इतना विशाल विषय है कि इसको समझने के लिए इस विज्ञानं और श्रीमद्भागवत महापुराण का गहराई से अध्ययन करना जरूरी है|यहाँ पर ,पुनर्जन्म का विषय होने के कारण केवल उन्हीं विषयों पर चर्चा की गयी है,जिन्हें जानना जरूरी है,अन्यथा पुनर्जन्म के बारे में समझाना मुश्किल होता|फिर भी अगर आवश्यक हुआ तो सम्बन्धित विषय को साथ साथ में स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा|
प्रकृति के २४ तत्व तथा २५ वां महतत्व मिलकर शरीर का पूर्णरूपेण निर्माण करते है|प्रकृति के २४ तत्वों में से २० से होने वाले शारीरिक विकास की चर्चा पूर्व में कर चुके है|अब इस स्थूल विकास से सूक्ष्म विकास कि तरफ ध्यान करते है|शेष बचे चार हैं-मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार|गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते है-
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मनः |
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः ||गीता३/४२||
अर्थात्,इन्द्रियां स्थूल शरीर से सूक्ष्म और बलवान है,इन इन्द्रियों से मन,मन से बुद्धि अधिक सूक्ष्म और बलवान है|परन्तु इन सबसे सूक्ष्म और बलवान है,वह आत्मा ही है|
स्थूल शरीर पांच भौतिक पदार्थों से बना है|पदार्थ का आधार तत्व है ,और तत्व का आधार परमाणु,यानि उर्जा|अतः यह स्पष्ट है कि उर्जा का स्थूल रूप ही यह भौतिक शरीर है|इस उर्जा के स्थूल रूप(Macro)से हम सूक्ष्म रूप(Micro) की तरफ चलेंगे|स्थूल शरीर से सूक्ष्म इन्द्रियां है,जिनके विकास की जानकारी भागवत में पूर्ण रूप से दी गयी है|इन्द्रियों से सूक्ष्म मन है|इन्द्रियां तो स्थूल शरीर का ही एक भाग है ,जो हम साक्षात् देख सकते है,और उनका अनुभव भी कर सकते है|परन्तु मन इससे भी सूक्ष्म है,जिसको हम देख तो नहीं सकते परन्तु अनुभव जरूर कर सकते है|मन ,इन्द्रियों की तरह नहीं है| ना ही इसका कोई विकास गर्भावस्था में होता है|फिर आखिर यह मन है क्या ?
मन शरीर की कोई अवस्था का नाम नहीं है|आत्मा और शरीर को आपस में जोड़ने वाली कड़ी का नाम ही मन है|समस्त दसों इन्द्रियां और इन इन्द्रियों के पांचो विषय(Subject,characteristics),पांच तत्वों से बने भौतिक शरीर में अवस्थित हैं|उपरोक्त सभी स्थूल प्रकृति से सम्बन्धित है|मन अपरा पृकृति से सम्बन्धित है,परन्तु यह अपरा और परा यानि सूक्ष्म के बीच की अवस्था है,जो कि प्रकृति को परमात्मा से जोड़ती है|प्रकृति भी परमात्मा की ही शक्ति है|
प्रकृति भी उर्जा है,परमात्मा भी उर्जा है|उर्जा ,शक्ति , बल आदि एक ही है|उर्जा के बारे में आवश्यकता अनुसार पहले विवरण आ चूका है|उर्जा कभी नष्ट नहीं होती,केवल उसका स्वरुप परिवर्तित हो सकता है|उर्जा का अपना प्रभाव होता है जो उससे संबन्धित क्षेत्र को प्रभावित करता है|जब दो उर्जा क्षेत्र किसी एक जगह पर कार्य कर रहे हो तो एक नया तीसरा क्षेत्र प्रभाव में आजाता है,अर्थात् एक नया क्षेत्र बन जाता है|इस नवनिर्मित क्षेत्र से दोंनो क्षेत्र प्रभावित होते हैं,जिससे दोनों अपना अपना प्रभुत्व बनाए रखने का प्रयास करते हैं|जिससे दोनों के बीच एक संतुलन (Balance)बन जाता है|इस संतुलन के कारण उस निश्चित क्षेत्र में कोई अव्यवस्था की स्थिति नहीं बनती,और सभी कार्य सुचारू रूप से बेरोकटोक चलते रहते है|
मानव शरीर में भी ऐसा ही होता है|पहला उर्जा क्षेत्र यह भौतिक शरीर है,जिसमे पांच तत्व,पांच ज्ञानेन्द्रियाँ,पांच कर्मेन्द्रियाँ और पांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय शमिल है|यह पहला उर्जा क्षेत्र प्रकृति का है|दूसरा उर्जा क्षेत्र आत्मा का है|दोनों के प्रभाव क्षेत्र में जो तीसरा उर्जा क्षेत्र बन जाता है ,वही मन है|यह मन अपने मुख्य उर्जा क्षेत्रों से उर्जा लेते हुये उन्ही को प्रभावित करता है|और दोनों मुख्य उर्जा क्षेत्र अपना अपना प्रभुत्व बनाये रखने के लिए एक सामंजस्य स्थापित कर लेते है|इस संतुलन के कारण मानव जीवन सुचारू रूप से चलता रहता है|जहाँ पर भी इस संतुलन में विषमता आती है,जीवन का सुगमता पूर्वक चलना दुर्भर हो जाता है|अतः इस संतुलन का बने रहना आवश्यक हो जाता है|
क्रमश:
||हरि शरणम् ||
प्रकृति के २४ तत्व तथा २५ वां महतत्व मिलकर शरीर का पूर्णरूपेण निर्माण करते है|प्रकृति के २४ तत्वों में से २० से होने वाले शारीरिक विकास की चर्चा पूर्व में कर चुके है|अब इस स्थूल विकास से सूक्ष्म विकास कि तरफ ध्यान करते है|शेष बचे चार हैं-मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार|गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते है-
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मनः |
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः ||गीता३/४२||
अर्थात्,इन्द्रियां स्थूल शरीर से सूक्ष्म और बलवान है,इन इन्द्रियों से मन,मन से बुद्धि अधिक सूक्ष्म और बलवान है|परन्तु इन सबसे सूक्ष्म और बलवान है,वह आत्मा ही है|
स्थूल शरीर पांच भौतिक पदार्थों से बना है|पदार्थ का आधार तत्व है ,और तत्व का आधार परमाणु,यानि उर्जा|अतः यह स्पष्ट है कि उर्जा का स्थूल रूप ही यह भौतिक शरीर है|इस उर्जा के स्थूल रूप(Macro)से हम सूक्ष्म रूप(Micro) की तरफ चलेंगे|स्थूल शरीर से सूक्ष्म इन्द्रियां है,जिनके विकास की जानकारी भागवत में पूर्ण रूप से दी गयी है|इन्द्रियों से सूक्ष्म मन है|इन्द्रियां तो स्थूल शरीर का ही एक भाग है ,जो हम साक्षात् देख सकते है,और उनका अनुभव भी कर सकते है|परन्तु मन इससे भी सूक्ष्म है,जिसको हम देख तो नहीं सकते परन्तु अनुभव जरूर कर सकते है|मन ,इन्द्रियों की तरह नहीं है| ना ही इसका कोई विकास गर्भावस्था में होता है|फिर आखिर यह मन है क्या ?
मन शरीर की कोई अवस्था का नाम नहीं है|आत्मा और शरीर को आपस में जोड़ने वाली कड़ी का नाम ही मन है|समस्त दसों इन्द्रियां और इन इन्द्रियों के पांचो विषय(Subject,characteristics),पांच तत्वों से बने भौतिक शरीर में अवस्थित हैं|उपरोक्त सभी स्थूल प्रकृति से सम्बन्धित है|मन अपरा पृकृति से सम्बन्धित है,परन्तु यह अपरा और परा यानि सूक्ष्म के बीच की अवस्था है,जो कि प्रकृति को परमात्मा से जोड़ती है|प्रकृति भी परमात्मा की ही शक्ति है|
प्रकृति भी उर्जा है,परमात्मा भी उर्जा है|उर्जा ,शक्ति , बल आदि एक ही है|उर्जा के बारे में आवश्यकता अनुसार पहले विवरण आ चूका है|उर्जा कभी नष्ट नहीं होती,केवल उसका स्वरुप परिवर्तित हो सकता है|उर्जा का अपना प्रभाव होता है जो उससे संबन्धित क्षेत्र को प्रभावित करता है|जब दो उर्जा क्षेत्र किसी एक जगह पर कार्य कर रहे हो तो एक नया तीसरा क्षेत्र प्रभाव में आजाता है,अर्थात् एक नया क्षेत्र बन जाता है|इस नवनिर्मित क्षेत्र से दोंनो क्षेत्र प्रभावित होते हैं,जिससे दोनों अपना अपना प्रभुत्व बनाए रखने का प्रयास करते हैं|जिससे दोनों के बीच एक संतुलन (Balance)बन जाता है|इस संतुलन के कारण उस निश्चित क्षेत्र में कोई अव्यवस्था की स्थिति नहीं बनती,और सभी कार्य सुचारू रूप से बेरोकटोक चलते रहते है|
मानव शरीर में भी ऐसा ही होता है|पहला उर्जा क्षेत्र यह भौतिक शरीर है,जिसमे पांच तत्व,पांच ज्ञानेन्द्रियाँ,पांच कर्मेन्द्रियाँ और पांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय शमिल है|यह पहला उर्जा क्षेत्र प्रकृति का है|दूसरा उर्जा क्षेत्र आत्मा का है|दोनों के प्रभाव क्षेत्र में जो तीसरा उर्जा क्षेत्र बन जाता है ,वही मन है|यह मन अपने मुख्य उर्जा क्षेत्रों से उर्जा लेते हुये उन्ही को प्रभावित करता है|और दोनों मुख्य उर्जा क्षेत्र अपना अपना प्रभुत्व बनाये रखने के लिए एक सामंजस्य स्थापित कर लेते है|इस संतुलन के कारण मानव जीवन सुचारू रूप से चलता रहता है|जहाँ पर भी इस संतुलन में विषमता आती है,जीवन का सुगमता पूर्वक चलना दुर्भर हो जाता है|अतः इस संतुलन का बने रहना आवश्यक हो जाता है|
क्रमश:
||हरि शरणम् ||
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