Sunday, July 28, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:१५|मन-४

क्रमश:
                           इस प्रकार हमने देखा कि  मानव शरीर से तीन प्रकार के कर्म संभव है|जैविक कर्म में और प्रतिक्रियात्मक कर्म में मनुष्य का कोई सक्रिय योगदान नहीं होता है,परन्तु सक्रिय कर्म ,मनुष्य के योगदान के बिना संभव नहीं है|गीता में जो कर्मयोग भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कह गया है,वह इन सक्रिय कर्म से ही सम्बन्धित है|भगवान कहते हैं-
                       किं कर्म किमकर्मेति  कवयोSप्यत्र मोहिताः|
                    तत्ते क्रम प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेSशुभात्||गीता-४/१६||
अर्थात्, कर्म क्या है, अकर्म क्या है ,इस पर विद्वान भी स्पष्टत: नहीं बता पाते हैं|वह कर्म तत्व मैं तुझे भलीभांति कहूँगा,जिसको जानकर तू इस संसार सागर से मुक्त हो जायेगा|
          यह स्पष्ट है कि अभी भी कर्मों का विवेचन कोई भी विद्वान स्पष्ट नहीं कर पाया है|इस श्लोक में भगवान जिस कर्म की चर्चा कर रहे है,वह सक्रिय कर्म की ही है|सक्रिय कर्म तीन तरह के होते है-
(१)भौतिक कर्म (Materialistic act)-यह कर्म किसी कामना के वशीभूत होकर किये जाते हैं|गीता में इन्हें केवल कर्म शब्द से ही संबोधित किया गया है|
(२)अकर्म-(Act without ambition)-वे कर्म जो बिना कामना के किये जाते हैं अर्थात् कर्ता,कर्म के साथ लिप्त नहीं होता,उसे अकर्म कहते हैं|
(३)विकर्म(Act for lust)-जब कामनाएं एक सीमा से ज्यादा बढ़ जाती है और कर्म में लिप्तता अधिक हो जाती है,उस स्थिति में किये जाने वाले कर्म विकर्म कहलाते हैं|ये कर्म निकृष्टतम श्रेणी के माने जाते हैं|इस स्थिति में व्यक्ति अपनी लिप्सा पूरी करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है|
                           पहले और तीसरे कर्म संचित कर्म भी कहलाते हैं|इनका संचय ही पुनर्जन्म का कारण बनते हैं,और उनका परिणाम वहीं पर भुगतना होता है|दूसरे तरीके के कर्म अर्थात् अकर्म संचित नहीं होते और ना  ही उनका कोई परिणाम भुगतना होता है,वे यहीं पर नष्ट हो जाते हैं|
            गीता में फिर भगवान आगे कहते हैं-
                        कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च क्रम यः |
                        स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ||गीता-४/१८||
अर्थात्, जो मनुष्य अकर्म में कर्म देखता है और जो कर्म में अकर्म देखता है वह मनुष्यों में बुद्धिमान है,वह योगी है और सम्पूर्ण कर्मों को करनेवाला है|
           भगवान यहाँ कहते कि वह सब कर्मो को करने वाला है,क्योंकि वह कर्मों में बिलकुल भी लिप्त नहीं है|अतः कर्म  करते हुये भी वह कर्मों से विलग है अर्थात् कर्मबंधन से मुक्त है|इसलिए वह बुद्धिमान और योगी कहलाने का अधिकारी है|ऐसा व्यक्ति कर्म करते हुये भी कुछ नहीं करता है|इसके यह कर्म संचित कर्म भी नहीं होते हैं|
                        मन की परिचर्चा में कर्म की चर्चा आवश्यक होती है|कर्म के बिना मन की कोई उपयोगिता भी नहीं है और मन के बिना कर्म की|प्रत्येक सक्रिय कर्म मन के कारण ही किये जाते हैं,इसी प्रकार किये हुये सभी कर्म मन में ही संचित हो जाते हैं|यही मन में संचित कर्म पुनर्जन्म का कारण बनते है|और मनुष्य इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो पाता है|
  क्रमश:
             || हरि शरणम् ||


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