क्रमश:
पुनर्जन्म एक वास्तविकता है,बिलकुल स्पष्ट है|फिर भी अंतिम समय में व्यक्ति क्यों भयभीत हो जाता है?इसका एक मात्र कारण उसकी पुनर्जन्म के बारे में सोच है|वह सोचता है कि आज जो कुछ है,मरने के बाद सब समाप्त हो जायेगा|वास्तव में ऐसा नहीं है|आपकी अधूरी ईच्छा के अनुरूप ही आपको नया शरीर मिलने वाला है|आपकी इच्छाए अब यह वृद्ध जीर्ण शीर्ण शरीर पूरी नहीं कर पायेगा,अतः आपको नया शरीर लेना आवश्यक है|नया और शक्तिशाली शरीर मरे बिना हासिल होना असंभव है|भगवान पुनर्जन्म को साधारण भाषा में अर्जुन को स्पष्ट करते है---
देहिनोSस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ||गीता२/१३||
अर्थात्,जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन,जवानी और वृद्धावस्था होती है वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है;उस विषय में धीर पुरूष मोहित नहीं होता|
इसका सीधा अर्थ यही है की पुनर्जन्म को आप इस शरीर में निरंतर परिवर्तित होने वाली अवस्था के तौर पर ही एक अवस्था माने|वृद्धावस्था के बाद आने वाली अवस्था|ऐसा मान लेने से आप शरीर के प्रति मोहित नहीं होंगे और मृत्यु को भी एक साधारण रूप से होने वाला अवस्था परिवर्तन ही मानेंगे|इस तरह मृत्यु के प्रति व्याप्त भय दूर हो जायेगा|भय के दूर होते ही वर्तमान जीवन का पूरा उपयोग कर पाएंगे|इसी को स्पष्ट करते हुये भगवान आगे कहते है--
देही नित्यमव्ध्योSयं देहे सर्वस्य भारत|
तस्मात्सर्वाणी भूतानि न त्वं शोचितमर्हसि||गीता२/३०||
अर्थात्,हे अर्जुन!यह देही(आत्मा)सबके शरीर में सदा ही अवध्य है|इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने के योग्य नहीं है|
इस देह यानि शरीर में अवस्थित देही कभी भी नहीं मरती है|यह देही आखिर है क्या?यहाँ भगवान ने आत्मा शब्द काम में नहीं लिया है,इसका विशेष कारण है|आत्मा को कभी भी देह की जरूरत नहीं होती है|आत्मा का स्थाई निवास तो परमात्मा है|उसे तो मजबूरीवश देह में आना पड़ता है|आत्मा को मजबूर करता है मन|मन में दबी आधी अधूरी आकांक्षाये आत्मा को परमात्मा की तरफ जाने से रोक लेती है और मन उन आकाक्षाओं को पूरा करने के लिए बलात् आत्मा को नए शरीर में ले आता है|इसी कारण से भगवान ने यहाँ आत्मा शब्द नहीं कहा है|आत्मा और मन को संयुक्त रूप से देही नाम दिया है|आत्मा को अवध्य माना गया है|यहाँ भगवान ने मन और आत्मा दोनों अवध्य बताया है,क्योंकि संयुक्त रूप में होने के कारण यहाँ मन भी अवध्य हो जाता है|अतः देही अगर अवध्य है तो फिर नया शरीर उपलब्ध होगा ही|इस प्रकार किसी भी प्राणी की मृत्यु पर शोकग्रस्त हो जाना उचित नहीं है|अब इस देही में आत्मा ही एक मात्र सत्य है|इसको स्पष्ट करते हुये कृष्ण कहते है-
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः|
उभयोरपि दृष्टोSन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभि||गीता२/१६||
अर्थात्,असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है|इस प्रकार दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है|
संसार में असत् की सत्ता नहीं है,और सत् का अभाव नहीं है,अर्थात् सत् हमेशा रहता है|यहाँ सत् आत्मा है|असत् शरीर को कहा गया है|इसका मतलब यह नहीं है कि शरीर झूठ हैशरीर भी सत्य है,परन्तु यह हमेशा के लिए नहीं है जबकि आत्मा हमेशा के लिए है|स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहते थे--
"है" सो सुन्दर है सदा,"नहीं" सो सुन्दर नाहीं|
" नहीं"को प्रकट देखिये",है" सो दिखे नाहीं||
इस बात को जब आत्मसात कर लेंगे तो वास्तविकता आपके सामने होगी,और चलने के लिए बिलकुल नया रास्ता|अन्त में ईश्वर को यही कहना चाहता हू कि-
तुझमे मुझमे बस फर्क यही,मैं नर हूँ तुम नारायण हो|
मैं हूँ संसार के हाथों में और संसार तुम्हारे हाथों में||
कल से-" पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार---एक परिकल्पना" जिससे आप सहमत भी हो सकते है|असहमत हो तो लिखे,विषयवस्तु को स्पष्ट करने की कोशिश करूँगा|
|| हरिः शरणम् ||
पुनर्जन्म एक वास्तविकता है,बिलकुल स्पष्ट है|फिर भी अंतिम समय में व्यक्ति क्यों भयभीत हो जाता है?इसका एक मात्र कारण उसकी पुनर्जन्म के बारे में सोच है|वह सोचता है कि आज जो कुछ है,मरने के बाद सब समाप्त हो जायेगा|वास्तव में ऐसा नहीं है|आपकी अधूरी ईच्छा के अनुरूप ही आपको नया शरीर मिलने वाला है|आपकी इच्छाए अब यह वृद्ध जीर्ण शीर्ण शरीर पूरी नहीं कर पायेगा,अतः आपको नया शरीर लेना आवश्यक है|नया और शक्तिशाली शरीर मरे बिना हासिल होना असंभव है|भगवान पुनर्जन्म को साधारण भाषा में अर्जुन को स्पष्ट करते है---
देहिनोSस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ||गीता२/१३||
अर्थात्,जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन,जवानी और वृद्धावस्था होती है वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है;उस विषय में धीर पुरूष मोहित नहीं होता|
इसका सीधा अर्थ यही है की पुनर्जन्म को आप इस शरीर में निरंतर परिवर्तित होने वाली अवस्था के तौर पर ही एक अवस्था माने|वृद्धावस्था के बाद आने वाली अवस्था|ऐसा मान लेने से आप शरीर के प्रति मोहित नहीं होंगे और मृत्यु को भी एक साधारण रूप से होने वाला अवस्था परिवर्तन ही मानेंगे|इस तरह मृत्यु के प्रति व्याप्त भय दूर हो जायेगा|भय के दूर होते ही वर्तमान जीवन का पूरा उपयोग कर पाएंगे|इसी को स्पष्ट करते हुये भगवान आगे कहते है--
देही नित्यमव्ध्योSयं देहे सर्वस्य भारत|
तस्मात्सर्वाणी भूतानि न त्वं शोचितमर्हसि||गीता२/३०||
अर्थात्,हे अर्जुन!यह देही(आत्मा)सबके शरीर में सदा ही अवध्य है|इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने के योग्य नहीं है|
इस देह यानि शरीर में अवस्थित देही कभी भी नहीं मरती है|यह देही आखिर है क्या?यहाँ भगवान ने आत्मा शब्द काम में नहीं लिया है,इसका विशेष कारण है|आत्मा को कभी भी देह की जरूरत नहीं होती है|आत्मा का स्थाई निवास तो परमात्मा है|उसे तो मजबूरीवश देह में आना पड़ता है|आत्मा को मजबूर करता है मन|मन में दबी आधी अधूरी आकांक्षाये आत्मा को परमात्मा की तरफ जाने से रोक लेती है और मन उन आकाक्षाओं को पूरा करने के लिए बलात् आत्मा को नए शरीर में ले आता है|इसी कारण से भगवान ने यहाँ आत्मा शब्द नहीं कहा है|आत्मा और मन को संयुक्त रूप से देही नाम दिया है|आत्मा को अवध्य माना गया है|यहाँ भगवान ने मन और आत्मा दोनों अवध्य बताया है,क्योंकि संयुक्त रूप में होने के कारण यहाँ मन भी अवध्य हो जाता है|अतः देही अगर अवध्य है तो फिर नया शरीर उपलब्ध होगा ही|इस प्रकार किसी भी प्राणी की मृत्यु पर शोकग्रस्त हो जाना उचित नहीं है|अब इस देही में आत्मा ही एक मात्र सत्य है|इसको स्पष्ट करते हुये कृष्ण कहते है-
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः|
उभयोरपि दृष्टोSन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभि||गीता२/१६||
अर्थात्,असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है|इस प्रकार दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है|
संसार में असत् की सत्ता नहीं है,और सत् का अभाव नहीं है,अर्थात् सत् हमेशा रहता है|यहाँ सत् आत्मा है|असत् शरीर को कहा गया है|इसका मतलब यह नहीं है कि शरीर झूठ हैशरीर भी सत्य है,परन्तु यह हमेशा के लिए नहीं है जबकि आत्मा हमेशा के लिए है|स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहते थे--
"है" सो सुन्दर है सदा,"नहीं" सो सुन्दर नाहीं|
" नहीं"को प्रकट देखिये",है" सो दिखे नाहीं||
इस बात को जब आत्मसात कर लेंगे तो वास्तविकता आपके सामने होगी,और चलने के लिए बिलकुल नया रास्ता|अन्त में ईश्वर को यही कहना चाहता हू कि-
तुझमे मुझमे बस फर्क यही,मैं नर हूँ तुम नारायण हो|
मैं हूँ संसार के हाथों में और संसार तुम्हारे हाथों में||
कल से-" पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार---एक परिकल्पना" जिससे आप सहमत भी हो सकते है|असहमत हो तो लिखे,विषयवस्तु को स्पष्ट करने की कोशिश करूँगा|
|| हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment