क्रमश:
इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्म मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं-(१)जैविक कर्म (२)प्रतिक्रियात्मक कर्म और (३)सक्रिय कर्म |फिर सक्रिय कर्म भी तीन प्रकार के होते है-(अ )भौतिक कर्म (ब)अकर्म और (स )विकर्म|
जैविक कर्म शरीर में होने वाले निश्चित कर्म है,जिनका मन से कोई सम्बन्ध नहीं है|प्रतिक्रियात्मक वे कर्म है जो मन के साथ पूर्वजन्म से संचित कर्म के रूप में आते है और इस जन्म में परिणाम देने के लिए प्रतिक्रियात्मक रूप से होते है|तीसरे कर्म जो इस जन्म में सक्रिय कर्म किये जाते है ,वे मन में अंकित होते रहते है और पुनर्जन्म में उनका परिणाम मिलता है जो अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी|सक्रिय कर्म में केवल अकर्म ही यहाँ इस जन्म में परिणाम दे सकते है परन्तु इस कर्म को करनेवाले को न तो कर्म से लगाव होता है और न ही परिणाम से|इसलिए अकर्म मन में संचित नहीं होते और न ही अगले जन्म में उनका कोई परिणाम मिलता है|
केवल भौतिक कर्म और विकर्म ही मन में संचित होकर आत्मा के साथ नए शरीर में जाते हैं|उनका परिणाम जो भी तय होता है,नए शरीर में ही मिलता है|जिस जन्म में ये कर्म किये जाते है उस जन्म में इन कर्मो का कोई परिणाम नहीं मिलता|वर्त्तमान जन्म में केवल पूर्व जन्म में किये भौतिक कर्म और विकर्म के परिणाम ही प्रतिक्रियात्मक कर्म करते हुये ही प्राप्त होते हैं|
इस संसार में मनुष्य योनि को छोड़कर ८४ लाख तरह के जीव-जंतु और भी है|संचित कर्म(भौतिक और विकर्म) ,के अनुसार ही मनुष्य इन योनियों में जन्म लेता है और प्रतिक्रियात्मक कर्म करते हुये उनका परिणाम भुगतता है|ये सभी भोग योनियाँ होती है|यहाँ इन योनियों में किये कर्म केवल प्रतिक्रियात्मक ही होते है|कोई भी सक्रिय कर्म नहीं होते,अतः ये कर्म संचित भी नहीं होते|जब प्राणी अपनी इन योनियों में सभी का परिणाम को भोग लेता है तभी उसे मानव योनि फिर से सुलभ होती है|अगर यहाँ फिर से मानव जीवन में वह भौतिक कर्म औरविकर्म के चक्कर में आ जाता है तो उसे फिर से इन ८४ लाख योनियों में ही भटकते रहना होगा |
इसीलिए मानव योनि को भोग योनि के साथ साथ योग योनि भी कहा गया है|अतः महापुरुषों ने मानव जन्म में हमेशा अच्छे कर्म करने को ही महत्व देने का कहा हैं|जिससे कम से कम इन ८४ लाख भोग योनियों में तो ना भटकना पड़े|गीता में भगवान कहते है कि जो जैसा इस जन्म में करता है ,अगले जन्म में उसको सब वैसा ही मिल जाता है|व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु|
उद्धारेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन ||गीता ६/५||
अर्थात्,अपने द्वारा इस संसार सागर से अपना उद्धार करे और अपने आप को अधो गति में न डाले,क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है|
बन्धुरात्मात्मंनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः |
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ||गीता ६/६||
अर्थात्, जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों द्वारा शरीर जीता हुआ है,उस जीवात्मा का वह आप ही तो मित्र है;और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है,वह आप ही शत्रु की तरह शत्रुता बरतता है|
उपरोक्त दोनों श्लोकों में भगवान ने स्पष्ट कर दिया है कि मनुष्य कैसे अपने मन के द्वारा इन्द्रियों को जीतकर अकर्म के द्वारा अपना उद्धार कर सकता है;और ऐसा न कर पाने पर वह भौतिक कर्म और विकर्म करते हुये ८४ लाख योनियों में भटकते हुये जन्म-मरण के चक्कर में ही घूमता रहेगा|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्म मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं-(१)जैविक कर्म (२)प्रतिक्रियात्मक कर्म और (३)सक्रिय कर्म |फिर सक्रिय कर्म भी तीन प्रकार के होते है-(अ )भौतिक कर्म (ब)अकर्म और (स )विकर्म|
जैविक कर्म शरीर में होने वाले निश्चित कर्म है,जिनका मन से कोई सम्बन्ध नहीं है|प्रतिक्रियात्मक वे कर्म है जो मन के साथ पूर्वजन्म से संचित कर्म के रूप में आते है और इस जन्म में परिणाम देने के लिए प्रतिक्रियात्मक रूप से होते है|तीसरे कर्म जो इस जन्म में सक्रिय कर्म किये जाते है ,वे मन में अंकित होते रहते है और पुनर्जन्म में उनका परिणाम मिलता है जो अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी|सक्रिय कर्म में केवल अकर्म ही यहाँ इस जन्म में परिणाम दे सकते है परन्तु इस कर्म को करनेवाले को न तो कर्म से लगाव होता है और न ही परिणाम से|इसलिए अकर्म मन में संचित नहीं होते और न ही अगले जन्म में उनका कोई परिणाम मिलता है|
केवल भौतिक कर्म और विकर्म ही मन में संचित होकर आत्मा के साथ नए शरीर में जाते हैं|उनका परिणाम जो भी तय होता है,नए शरीर में ही मिलता है|जिस जन्म में ये कर्म किये जाते है उस जन्म में इन कर्मो का कोई परिणाम नहीं मिलता|वर्त्तमान जन्म में केवल पूर्व जन्म में किये भौतिक कर्म और विकर्म के परिणाम ही प्रतिक्रियात्मक कर्म करते हुये ही प्राप्त होते हैं|
इस संसार में मनुष्य योनि को छोड़कर ८४ लाख तरह के जीव-जंतु और भी है|संचित कर्म(भौतिक और विकर्म) ,के अनुसार ही मनुष्य इन योनियों में जन्म लेता है और प्रतिक्रियात्मक कर्म करते हुये उनका परिणाम भुगतता है|ये सभी भोग योनियाँ होती है|यहाँ इन योनियों में किये कर्म केवल प्रतिक्रियात्मक ही होते है|कोई भी सक्रिय कर्म नहीं होते,अतः ये कर्म संचित भी नहीं होते|जब प्राणी अपनी इन योनियों में सभी का परिणाम को भोग लेता है तभी उसे मानव योनि फिर से सुलभ होती है|अगर यहाँ फिर से मानव जीवन में वह भौतिक कर्म औरविकर्म के चक्कर में आ जाता है तो उसे फिर से इन ८४ लाख योनियों में ही भटकते रहना होगा |
इसीलिए मानव योनि को भोग योनि के साथ साथ योग योनि भी कहा गया है|अतः महापुरुषों ने मानव जन्म में हमेशा अच्छे कर्म करने को ही महत्व देने का कहा हैं|जिससे कम से कम इन ८४ लाख भोग योनियों में तो ना भटकना पड़े|गीता में भगवान कहते है कि जो जैसा इस जन्म में करता है ,अगले जन्म में उसको सब वैसा ही मिल जाता है|व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु|
उद्धारेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन ||गीता ६/५||
अर्थात्,अपने द्वारा इस संसार सागर से अपना उद्धार करे और अपने आप को अधो गति में न डाले,क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है|
बन्धुरात्मात्मंनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः |
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ||गीता ६/६||
अर्थात्, जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों द्वारा शरीर जीता हुआ है,उस जीवात्मा का वह आप ही तो मित्र है;और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है,वह आप ही शत्रु की तरह शत्रुता बरतता है|
उपरोक्त दोनों श्लोकों में भगवान ने स्पष्ट कर दिया है कि मनुष्य कैसे अपने मन के द्वारा इन्द्रियों को जीतकर अकर्म के द्वारा अपना उद्धार कर सकता है;और ऐसा न कर पाने पर वह भौतिक कर्म और विकर्म करते हुये ८४ लाख योनियों में भटकते हुये जन्म-मरण के चक्कर में ही घूमता रहेगा|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
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