अभी तक हम शास्त्रों में वर्णित ज्ञान की आधुनिक विज्ञानं से तुलना कर रहे थे|शास्त्रों में जो भी लिखा गया है,उसे विज्ञानं साबित कर पाया है|परन्तु अभी भी ऐसे कई ज्ञान छुपे हुये है,जिन्हें आधुनिक विज्ञानं अभी भी सिद्ध नहीं कर पाया है|आशा है एक दिन यह सब संभव होगा|भ्रूण विज्ञानं से संबधित जो महत्वपूर्ण बातें श्रीमद्भागवत में वर्णित है,उनमे से कुछ आज प्रस्तुत कर रहा हूँ,जो अभी भी विज्ञानं की शोध से अछूती है|
श्रीमद्भागवत के तीसरे स्कंध के छब्बीसवें अध्याय में इन्द्रियों के विकास की चर्चा है|जिसे संक्षेप में प्रस्तुत करना बहुत ही मुश्किल है|प्रयास कर रहा हूँ|इस अध्याय में बताया गया है कि मानव शरीर की रचना पांच महाभूतों,दस इन्द्रियों [पांच ज्ञानेन्द्रियाँ(Five senses of knowledge) व पांच कर्मेन्द्रियाँ(Five senses of act) ],पांच ज्ञानेन्द्रियों के तन्मात्र (विषय) तथा चार-मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार ;इस प्रकार कुल मिलाकर =२४|उपरोक्त सब प्रकृति के कार्य है|इनके साथ जब काल यानि पुरुष रूप साक्षात् भगवान जब २५ वें तत्व के रूप में सक्रिय होते है तभी मानव शरीर का निर्माण संभव होता है|यहाँ पुरुष रूप भगवान महतत्व या वासुदेव(Chief element) भी कहलाते हैं| महतत्व को स्पष्ट करते हुये गीता में भगवान कहते हैं-
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः |
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ||गीता-९/८ ||
अर्थात्, अपनी प्रकृति को अंगीकार करके यानि वशीभूत करके ,उसी प्रकृति की सहायता से अपने कर्मानुसार जन्म-मृत्यु के अधीन इन समस्त प्राणियों की बार बार सृष्टि करता हूँ|
पांच महाभूत यथा भूमि,जल,आकाश ,अग्नि और समीर;तो शरीर निर्माण के लिए मुख्य आधार है ही,इन्ही से आगे ज्ञानेन्द्रियों ,कर्मेन्द्रियों का विकास संभव होता है|ज्ञानेन्द्रियों से इन्हीं के पांच विषय (SUBJECTS i.e. Taste,Smell,Touch,Vision and Hearing)विकसित होते है| चूँकि इन्द्रियों से ही सब भोग संभव है,अतः इनके विकसित होने की जानकारी आवश्यक है|इन्द्रियां ही मन में कामनाएं पैदा करती है,जो कर्मेन्द्रियों द्वारा पूरी की जाती है|कामनाएं पूरी ना होने से क्रोध उत्पन्न होता है,क्रोध से मतिभ्रम पैदा हो जाता है जिससे मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है|कामनाएं अधूरी रह जाना ही पुनर्जन्म का एक महत्वपूर्ण कारण बनता है|अतः इन इन्द्रियों के बारे में जानना आवश्यक हो जाता है|
ज्ञानेन्द्रियों का विकास--
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महतत्व(Chief element) के विकृत(Differentiation or Change) होने पर अहंकार उत्पन्न होता है|अहंकार से वैकारिक,तैजस और तामस इन तीन का प्रादुर्भाव होता है|तामस से पांच महाभूतों की उत्पत्ति होती है,जबकि वैकारिक से मन की|तैजस ही इन इन्द्रियों की उत्पत्ति का मूल कारण होता है|तैजस से ही बुद्धितत्व(Intelligence) की उत्पत्ति होती है |तामस इनका मूल स्रोत है|जिसके विकृत होने पर तैजस और वैकारिक के द्वारा इन्द्रियों और मन का विकास होता है|इन सब का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है,जिसके कारण ये एक दूसरे के लिए पूरक भी हैं और एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं|गर्भावस्था के दौरान ज्ञानेन्द्रियों का विकास इस प्रकार होता है|--
(१)कान-(आकाश) EARS-(HEARING) पांच महाभूतों की (तामस) विकृति(Differentiation) से शब्द तन्मात्र(Basic element) की उत्पत्ति होती है,जिससे शब्द का ज्ञान करने वाली श्रोनेंद्रिय यानि कान की उत्पत्ति होती है|जिसके लक्षण हैं-अर्थ का प्रकाशक,ओट में खड़े वक्ता का ज्ञान कराना और आकाश का सूक्ष्म रूप होना ;जिससे शरीर का संतुलन बनता है|यह इन्द्रिय आकाश का प्रतिनिधित्व करती है|
(२)त्वचा (वायु)-SKIN- (TOUCH SENSATION) इस शब्द तन्मात्र यानि आकाश में विकार होने पर स्पर्श तन्मात्र की उत्पत्ति (त्वचा)होती है,जो कि वायु का प्रतिनिधित्व करती है|इसके लक्षण है-कोमलता,कठोरता,उष्णता और शीतलता आदि का ज्ञान कराना|
(३)नैत्र -(अग्नि) EYES- (VISION) स्पर्श तन्मात्र यानि वायु के विकृत होने पर रूप तन्मात्र की उत्पत्ति होती है|यह नैत्र है|नैत्र अग्नि यानि तेज का प्रतिनिधित्व करते है|नैत्र दृष्टेन्द्रीय है|इस इन्द्रिय से देखने का कार्य किया जाता है|
(४)जीभ (जल)TONGUE-(TASTE) रूप यानि तेज के विकृत होने पर रस तन्मात्र की उत्पत्ति होती है|जीभ,जो कि जल का प्रतिनिधित्व करती है|यह स्वाद का ज्ञान कराती है|
(५)नाक -(पृथ्वी)-(NOSE)-(SMELL) रस(जल) तन्मात्र के विकृत होने पर गंध तन्मात्र की उत्पत्ति होती है,यानि नाक ,जोकि पृथ्वी का प्रतिनिधित्व करती है|यह गंध का ज्ञान करने वाली इन्द्रिय है|
उपरोक्त सब विवरण श्रीमद्भागवत महापुराण ३/२६ से लिया गया है|आधुनिक विज्ञानं इस बात से सहमत है कि सभी इन्द्रियों का विकास ECTODERM से होता है|और इस ECTODERM में विकार से अलग अलग इन्द्रियों का प्रादुर्भाव संभव होता है|आज जो STEM CELLS से अंगों का निर्माण निकट भविष्य में संभव होने जा रहा है ,वहां भागवत का यह विकार (DIFFERENTIATION)वाला सिद्धांत ही मुख्य भूमिका निभा रहा है|
हम भारतीय लोग भी इन धर्मशास्त्रों का गंभीरता से अध्ययन कर शोध कर सकते है,परन्तु देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ शिक्षा केवल रोजगारोन्मुखी है|और धर्मशास्त्रों को केवल बुढ़ापे में अगला जन्म सुधारने के लिए पठन हेतु छोड़ दिया गया है|जब किसी को इस अवस्था में शास्त्र पढ़ने से शोध की सोच भी उभरती है तो उसके जीवन में ना तो समय बचता है और न ही उर्जा|अतः आवश्यक है कि इन शास्त्रों की शिक्षा बचपन से ही दी जावे,जिससे इनका फायदा देश को मिल सके और पूर्व की भांति भारत अग्रिम पंक्ति में शामिल हो सके|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
श्रीमद्भागवत के तीसरे स्कंध के छब्बीसवें अध्याय में इन्द्रियों के विकास की चर्चा है|जिसे संक्षेप में प्रस्तुत करना बहुत ही मुश्किल है|प्रयास कर रहा हूँ|इस अध्याय में बताया गया है कि मानव शरीर की रचना पांच महाभूतों,दस इन्द्रियों [पांच ज्ञानेन्द्रियाँ(Five senses of knowledge) व पांच कर्मेन्द्रियाँ(Five senses of act) ],पांच ज्ञानेन्द्रियों के तन्मात्र (विषय) तथा चार-मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार ;इस प्रकार कुल मिलाकर =२४|उपरोक्त सब प्रकृति के कार्य है|इनके साथ जब काल यानि पुरुष रूप साक्षात् भगवान जब २५ वें तत्व के रूप में सक्रिय होते है तभी मानव शरीर का निर्माण संभव होता है|यहाँ पुरुष रूप भगवान महतत्व या वासुदेव(Chief element) भी कहलाते हैं| महतत्व को स्पष्ट करते हुये गीता में भगवान कहते हैं-
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः |
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ||गीता-९/८ ||
अर्थात्, अपनी प्रकृति को अंगीकार करके यानि वशीभूत करके ,उसी प्रकृति की सहायता से अपने कर्मानुसार जन्म-मृत्यु के अधीन इन समस्त प्राणियों की बार बार सृष्टि करता हूँ|
पांच महाभूत यथा भूमि,जल,आकाश ,अग्नि और समीर;तो शरीर निर्माण के लिए मुख्य आधार है ही,इन्ही से आगे ज्ञानेन्द्रियों ,कर्मेन्द्रियों का विकास संभव होता है|ज्ञानेन्द्रियों से इन्हीं के पांच विषय (SUBJECTS i.e. Taste,Smell,Touch,Vision and Hearing)विकसित होते है| चूँकि इन्द्रियों से ही सब भोग संभव है,अतः इनके विकसित होने की जानकारी आवश्यक है|इन्द्रियां ही मन में कामनाएं पैदा करती है,जो कर्मेन्द्रियों द्वारा पूरी की जाती है|कामनाएं पूरी ना होने से क्रोध उत्पन्न होता है,क्रोध से मतिभ्रम पैदा हो जाता है जिससे मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है|कामनाएं अधूरी रह जाना ही पुनर्जन्म का एक महत्वपूर्ण कारण बनता है|अतः इन इन्द्रियों के बारे में जानना आवश्यक हो जाता है|
ज्ञानेन्द्रियों का विकास--
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महतत्व(Chief element) के विकृत(Differentiation or Change) होने पर अहंकार उत्पन्न होता है|अहंकार से वैकारिक,तैजस और तामस इन तीन का प्रादुर्भाव होता है|तामस से पांच महाभूतों की उत्पत्ति होती है,जबकि वैकारिक से मन की|तैजस ही इन इन्द्रियों की उत्पत्ति का मूल कारण होता है|तैजस से ही बुद्धितत्व(Intelligence) की उत्पत्ति होती है |तामस इनका मूल स्रोत है|जिसके विकृत होने पर तैजस और वैकारिक के द्वारा इन्द्रियों और मन का विकास होता है|इन सब का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है,जिसके कारण ये एक दूसरे के लिए पूरक भी हैं और एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं|गर्भावस्था के दौरान ज्ञानेन्द्रियों का विकास इस प्रकार होता है|--
(१)कान-(आकाश) EARS-(HEARING) पांच महाभूतों की (तामस) विकृति(Differentiation) से शब्द तन्मात्र(Basic element) की उत्पत्ति होती है,जिससे शब्द का ज्ञान करने वाली श्रोनेंद्रिय यानि कान की उत्पत्ति होती है|जिसके लक्षण हैं-अर्थ का प्रकाशक,ओट में खड़े वक्ता का ज्ञान कराना और आकाश का सूक्ष्म रूप होना ;जिससे शरीर का संतुलन बनता है|यह इन्द्रिय आकाश का प्रतिनिधित्व करती है|
(२)त्वचा (वायु)-SKIN- (TOUCH SENSATION) इस शब्द तन्मात्र यानि आकाश में विकार होने पर स्पर्श तन्मात्र की उत्पत्ति (त्वचा)होती है,जो कि वायु का प्रतिनिधित्व करती है|इसके लक्षण है-कोमलता,कठोरता,उष्णता और शीतलता आदि का ज्ञान कराना|
(३)नैत्र -(अग्नि) EYES- (VISION) स्पर्श तन्मात्र यानि वायु के विकृत होने पर रूप तन्मात्र की उत्पत्ति होती है|यह नैत्र है|नैत्र अग्नि यानि तेज का प्रतिनिधित्व करते है|नैत्र दृष्टेन्द्रीय है|इस इन्द्रिय से देखने का कार्य किया जाता है|
(४)जीभ (जल)TONGUE-(TASTE) रूप यानि तेज के विकृत होने पर रस तन्मात्र की उत्पत्ति होती है|जीभ,जो कि जल का प्रतिनिधित्व करती है|यह स्वाद का ज्ञान कराती है|
(५)नाक -(पृथ्वी)-(NOSE)-(SMELL) रस(जल) तन्मात्र के विकृत होने पर गंध तन्मात्र की उत्पत्ति होती है,यानि नाक ,जोकि पृथ्वी का प्रतिनिधित्व करती है|यह गंध का ज्ञान करने वाली इन्द्रिय है|
उपरोक्त सब विवरण श्रीमद्भागवत महापुराण ३/२६ से लिया गया है|आधुनिक विज्ञानं इस बात से सहमत है कि सभी इन्द्रियों का विकास ECTODERM से होता है|और इस ECTODERM में विकार से अलग अलग इन्द्रियों का प्रादुर्भाव संभव होता है|आज जो STEM CELLS से अंगों का निर्माण निकट भविष्य में संभव होने जा रहा है ,वहां भागवत का यह विकार (DIFFERENTIATION)वाला सिद्धांत ही मुख्य भूमिका निभा रहा है|
हम भारतीय लोग भी इन धर्मशास्त्रों का गंभीरता से अध्ययन कर शोध कर सकते है,परन्तु देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ शिक्षा केवल रोजगारोन्मुखी है|और धर्मशास्त्रों को केवल बुढ़ापे में अगला जन्म सुधारने के लिए पठन हेतु छोड़ दिया गया है|जब किसी को इस अवस्था में शास्त्र पढ़ने से शोध की सोच भी उभरती है तो उसके जीवन में ना तो समय बचता है और न ही उर्जा|अतः आवश्यक है कि इन शास्त्रों की शिक्षा बचपन से ही दी जावे,जिससे इनका फायदा देश को मिल सके और पूर्व की भांति भारत अग्रिम पंक्ति में शामिल हो सके|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
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