गीता-ज्ञान की सार्थकता – 29
जीवन में
सर्वप्रथम कर्म प्रारम्भ करने का आधार तो हमने खोज लिया-प्रारब्ध | प्रारब्ध पूर्व
मानव जन्म में किया गया पुरुषार्थ अर्थात पूर्व मनुष्य योनि में किये गए कर्म |
इससे स्पष्ट है कि समस्त योनियों में जो चक्राकार हम घूम रहे हैं उसका आधार मूलतः
कर्म ही है | अर्जुन की तरह एक गृहस्थ के लिए इस आवागमन के चक्र से बाहर निकलने का
सर्वोत्तम रास्ता, जिसे गीता में प्रमुखता के साथ स्पष्ट किया गया है, वह है -
कर्म-योग का | कर्म-योग को समझने के लिए हमें कर्मों की मूल को जानना होगा | कर्म
का मूल क्या है ? इसको जाने बिना हम कर्मों के स्वरूप को परिवर्तित नहीं कर सकते |
कर्म का आधार कामना और कामना का आधार कर्म | इतना जान लेना अपर्याप्त है | केवल इतना
जान लेने मात्र से तो आवागमन से मुक्ति नहीं मिलेगी | कामना जिस कारण से मन में जन्म
लेती है, वही कारण होगा कर्म प्रारम्भ करने का | कामना जन्म लेती है, विषय-भोग के
कारण अर्थात मन के विषयासक्त हो जाने के कारण | विषय-भोग वह शारीरिक सुख है, जो हम
इस भौतिक संसार में खोजते हैं और जिसे हमारा मन बार-बार भोगने की कामना करता है |
प्रारम्भ में सभी विषय-भोग अमृत तुल्य प्रतीत होते हैं परन्तु अंत में ये विष
तुल्य हो जाते हैं अर्थात प्रत्येक विषय-भोग प्रारम्भ में शारीरिक सुख प्रदान करता
हुआ प्रतीत अवश्य होता है परन्तु अंत में यही विषय-भोग शरीर को दुःख देता है |
विषय-भोग को बार-बार प्राप्त करने की कामना मन के कारण और मन में ही उत्पन्न होती है
और केवल एक मात्र बुद्धि ही मनुष्य में ऐसा साधन है, जिससे कामनाओं और मन दोनों को
नियंत्रित किया जा सकता है |
विषय
पाँच ज्ञानेन्द्रियों से सम्बंधित है | प्रत्येक
ज्ञानेन्द्रिय अपने-अपने विषय को ग्रहण कर मन को उपलब्ध करवाती है | उस
विषय को प्राप्त करने के लिए कर्म हमारी पाँचों कर्मेन्द्रियाँ करती है | इस
प्रकार विषय-भोग मन को उपलब्ध होता है | मन के प्रिय विषय-भोग को पुनः और बारम्बार
प्राप्त करने के लिए मन में अनेकों प्रकार की कामनाओं का जन्म होता है | फिर कामनाओं
के पूरा होते जाने से मन में लोभ आ जाता है | लोभ पुनः एक नई कामना को जन्म देता है | इस प्रकार यह विषय-भोग
से प्रारम्भ हुआ चक्र मन से कामना के माध्यम से कर्म कर वापिस विषय-भोग पर लौट आता
है | इस प्रकार से यह विषय-भोग से कर्म और पुनः विषय-भोग तक चलते रहने वाला अटूट
चक्र मनुष्य के जीवन में सदैव चलता रहता है | जब विषय-भोग वृद्धावस्था अथवा अन्य किन्हीं
कारणों से उपलब्ध नहीं हो पाते अथवा अपर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं, तो
विषय-भोग की कामनाएं सूक्ष्म शरीर के चित्त में संग्रहित हो जाती है | देह की
समाप्ति के बाद यही कामनाएं हमारे सूक्ष्म शरीर के माध्यम से नए जीवन में मिलने
वाले स्थूल शरीर में स्थानांतरित हो जाती है | फिर नई योनि के नए जीवन में पुनः उन
कामनाओं से विषय-भोग प्राप्त करने के लिए कर्म प्रारम्भ हो जाते हैं | कभी न मिट
पाने वाले आवागमन के पीछे केवल यही एकमात्र रहस्य है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||