Saturday, March 31, 2018

गीअत-ज्ञान की सार्थकता - 29


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 29
          जीवन में सर्वप्रथम कर्म प्रारम्भ करने का आधार तो हमने खोज लिया-प्रारब्ध | प्रारब्ध पूर्व मानव जन्म में किया गया पुरुषार्थ अर्थात पूर्व मनुष्य योनि में किये गए कर्म | इससे स्पष्ट है कि समस्त योनियों में जो चक्राकार हम घूम रहे हैं उसका आधार मूलतः कर्म ही है | अर्जुन की तरह एक गृहस्थ के लिए इस आवागमन के चक्र से बाहर निकलने का सर्वोत्तम रास्ता, जिसे गीता में प्रमुखता के साथ स्पष्ट किया गया है, वह है - कर्म-योग का | कर्म-योग को समझने के लिए हमें कर्मों की मूल को जानना होगा | कर्म का मूल क्या है ? इसको जाने बिना हम कर्मों के स्वरूप को परिवर्तित नहीं कर सकते | कर्म का आधार कामना और कामना का आधार कर्म | इतना जान लेना अपर्याप्त है | केवल इतना जान लेने मात्र से तो आवागमन से मुक्ति नहीं मिलेगी | कामना जिस कारण से मन में जन्म लेती है, वही कारण होगा कर्म प्रारम्भ करने का | कामना जन्म लेती है, विषय-भोग के कारण अर्थात मन के विषयासक्त हो जाने के कारण | विषय-भोग वह शारीरिक सुख है, जो हम इस भौतिक संसार में खोजते हैं और जिसे हमारा मन बार-बार भोगने की कामना करता है | प्रारम्भ में सभी विषय-भोग अमृत तुल्य प्रतीत होते हैं परन्तु अंत में ये विष तुल्य हो जाते हैं अर्थात प्रत्येक विषय-भोग प्रारम्भ में शारीरिक सुख प्रदान करता हुआ प्रतीत अवश्य होता है परन्तु अंत में यही विषय-भोग शरीर को दुःख देता है | विषय-भोग को बार-बार प्राप्त करने की कामना मन के कारण और मन में ही उत्पन्न होती है और केवल एक मात्र बुद्धि ही मनुष्य में ऐसा साधन है, जिससे कामनाओं और मन दोनों को नियंत्रित किया जा सकता है |
               विषय पाँच ज्ञानेन्द्रियों से सम्बंधित है | प्रत्येक  ज्ञानेन्द्रिय अपने-अपने विषय को ग्रहण कर मन को उपलब्ध करवाती है | उस विषय को प्राप्त करने के लिए कर्म हमारी पाँचों कर्मेन्द्रियाँ करती है | इस प्रकार विषय-भोग मन को उपलब्ध होता है | मन के प्रिय विषय-भोग को पुनः और बारम्बार प्राप्त करने के लिए मन में अनेकों प्रकार की कामनाओं का जन्म होता है | फिर कामनाओं के पूरा होते जाने से मन में लोभ आ जाता है | लोभ पुनः एक नई  कामना को जन्म देता है | इस प्रकार यह विषय-भोग से प्रारम्भ हुआ चक्र मन से कामना के माध्यम से कर्म कर वापिस विषय-भोग पर लौट आता है | इस प्रकार से यह विषय-भोग से कर्म और पुनः विषय-भोग तक चलते रहने वाला अटूट चक्र मनुष्य के जीवन में सदैव चलता रहता है | जब विषय-भोग वृद्धावस्था अथवा अन्य किन्हीं कारणों से उपलब्ध नहीं हो पाते अथवा अपर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं, तो विषय-भोग की कामनाएं सूक्ष्म शरीर के चित्त में संग्रहित हो जाती है | देह की समाप्ति के बाद यही कामनाएं हमारे सूक्ष्म शरीर के माध्यम से नए जीवन में मिलने वाले स्थूल शरीर में स्थानांतरित हो जाती है | फिर नई योनि के नए जीवन में पुनः उन कामनाओं से विषय-भोग प्राप्त करने के लिए कर्म प्रारम्भ हो जाते हैं | कभी न मिट पाने वाले आवागमन के पीछे केवल यही एकमात्र रहस्य है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, March 30, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 28


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 28  
                 नए मानव जीवन में प्रारब्ध से सीधे ही कर्म करने प्रारम्भ नहीं होते बल्कि सर्वप्रथम मनुष्य के पूर्व मानव जीवन में अपूर्ण रही कामनाएं सक्रिय होती हैं | ये अपूर्ण कामनाएं सूक्ष्म शरीर में स्थित चित्त में संग्रहित की हुई रहती है जो शिशु के जन्म के साथ ही सूक्ष्म शरीर से भौतिक शरीर में प्रवेश करते ही उसके मन में स्थानांतरित हो जाती है | इसलिए कहा जा सकता है कि नए जन्म में पूर्व जन्म की कामनाएं अथवा काम ही कर्म प्रारम्भ होने का मुख्य कारण बनती है | उन अपूर्ण रही कामनाओं को पूरा करने के लिए  हमारा मन शरीर की कर्मेन्द्रियों से कर्म संपन्न करवाता है और पूर्वजन्म का इच्छित फल हमें बिना अधिक प्रयास किये सुगमता के साथ इस जन्म में प्राप्त हो जाता है | कहने का अर्थ है कि प्रारब्ध (भाग्य) के कारण कुछ इच्छित फल कम प्रयास से अथवा अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं | ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुख दास जी महाराज इसके लिए एक सत्य घटना बताया करते थे | यह घटना आंध्र-प्रदेश की है | चोरों ने किसी व्यापारी के घर से एक तिजोरी चोरी कर ली परन्तु वे उस तिजोरी को खोल नहीं पाए थे | चोरी की सूचना मिलने पर पुलिस भी सक्रिय हो गयी थी | वह चोरों का पीछा करने लगी | चोरों से तिजोरी खुल नहीं पा रही थी | पुलिस से बचने के लिए उन चोरों ने वह तिजोरी नदी में फेंक दी | इस प्रकार वे पुलिस से बच निकलने में सफल हो गए | नदी के बहाव की दिशा में स्थित एक गाँव से एक व्यक्ति उस नदी में नियमित स्नान करने आया करता था | उस दिन उसने उस तिजोरी को बहते देखकर उसे बाहर निकाला | घर ले जाकर उसने तिजोरी खोली तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गयी | उस तिजोरी में अथाह धन राशि और महंगे आभूषण आदि भरे पड़े थे | इस प्रकार उस व्यक्ति को पूर्व जन्म के पुरुषार्थ (भाग्य) के अनुसार केवल दैनिक शौच-कर्म करते हुए भी विपुल धन-सम्पति प्राप्त हो गयी |
                                 हमारे जीवन में भी भाग्य इसी प्रकार के खेल कई बार खेलता है | जब हमारे भाग्य में कुछ बहुत अच्छा होना लिखा होता है, तब कम प्रयास से अल्प मात्रा में कर्म करते हुए हमारी पूर्व जन्म की कामना पूर्ण हो जाती है | कामनाओं को पूरा करने के लिए थोड़ा-बहुत पुरुषार्थ तो करना ही पड़ेगा चाहे उन कामनाओं को पूरा होना हमारे भाग्य में लिखा ही क्यों न हो | कर्म करने से हमें चार पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है जिन्हें चार पदार्थ भी कहा जाता है | ये चार पुरुषार्थ हैं-काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष | कहने का आशय यह है कि बिना कर्म किये न तो कामनाएं पूरी हो सकती हैं, न ही अर्थ प्राप्त हो सकता है, न ही धर्म की प्राप्ति होती है और न ही मुक्त हुआ जा सकता है | काम और अर्थ की प्राप्ति हमारे पूर्व जन्म के पुरुषार्थ यानि प्रारब्ध (भाग्य) हैं और धर्म और मोक्ष इस जन्म में कर्म करने के पुरुषार्थ हैं | अर्थ और काम हमें पूर्व जन्म के पुरुषार्थ के कारण इस जन्म में अल्प कर्म करके ही सुगमता से प्राप्त हो जाते हैं | धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ को वर्तमान मानव जीवन में कर्म करते हुए इसी जीवन में ही प्राप्त किया जा सकता है | धर्म और मोक्ष की प्राप्ति में प्रारब्ध का योगदान कम रहता है | पुरुषार्थ एक विस्तृत विषय है, इस पर अलग से एक नई श्रृंखला में चर्चा करेंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, March 29, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 27


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 27
             कर्म के कारण ही विकार एक-एक कर मनुष्य के भीतर प्रवेश करते हैं क्योंकि कर्म भोग उपलब्ध कराते हैं और भोग हमें सुख प्रदान करता है | वास्तव में देखा जाये तो वह सुख न मिलना होकर केवल उसके मिलने भ्रम होता है | जब मनुष्य अपने जीवन के प्रारम्भ में कर्म करना प्रारम्भ करता है, तब उन कर्मों के प्रारम्भ करने में प्रारब्ध की भूमिका होती है | कोई भी कर्म भले ही वह प्रारब्ध के कारण फल प्राप्त करने के लिए ही होता हो परन्तु उस फल का मिलना वर्तमान जीवन में बिना पुरुषार्थ किये  संभव ही नहीं है | इसीलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति कर्म किये बिना क्षण मात्र भी नहीं रह सकता अर्थात प्रत्येक क्षण कोई न कोई कर्म हम करते ही रहते हैं | इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मनुष्य की अपने जीवन में कर्म करने की एक आदत बन जाती है | इसलिए मनुष्य के द्वारा अपने जीवन में कोई भी कर्म न करना लगभग असंभव सी बात है | जब प्रारब्ध के अनुसार कर्म-फल प्राप्त करने के लिए कर्म किये जाते हैं तब व्यक्ति को यह आभास होता है कि वह जो कर्म अपने वर्तमान जीवन में कर रहा है उसके कारण ही वह अपनी इच्छानुसार फल (भोग) प्राप्त कर रहा है | यह पूर्णतः सत्य नहीं है | इसी को संत जन कर्म के प्रति मोह होना कहते हैं, यह मोह होना ही अज्ञान है | इस मोह के कारण ही हमें लगता है कि हमारे प्रयास से, हमारे कर्म करने से उपयुक्त फल प्राप्त हो रहे हैं | एक ही प्रकार के फल को पुनः प्राप्त करने के लिए काम का जन्म होता है तथा उसी फल को बारम्बार और अधिक से अधिक मात्रा में प्राप्त करने की चाह को लोभ कहा जाता है | यह लोभ उस भोग की तृष्णा (प्यास) को जन्म देता है | यह तृष्णा हमें उस कर्म के प्रति आसक्त बना देती है | जब हम कर्म करते हुए अपनी रुचि के अनुसार फल प्राप्त करते जाते हैं तो हमारे भीतर मद/अहंकार नाम के विकार का जन्म हो जाता है | इस प्रकार प्रारब्ध से कर्म के रास्ते चलते हुए हम चार विकारों अर्थात मोह, काम, लोभ और मद को अपने भीतर पैदा कर चुके हैं |
                ये चारों विकार कर्म का फल इच्छानुसार प्राप्त होते जाने से पैदा हुए हैं | परन्तु जब कर्म करने के बाद भी इच्छानुसार फल प्राप्त नहीं होता तब पांचवां विकार क्रोध पैदा होता है | क्रोध से मति-भ्रम हो जाता है, जो बुद्धि का नाश कर देता है | बुद्धि के नाश होने का अर्थ है, मोह का और अधिक बढ़ जाना | क्रोध से पैदा हुए मति-भ्रम के कारण मात्सर्य पैदा होता है | मात्सर्य का अर्थ है, ईर्ष्या | ईर्ष्या उस व्यक्ति से जिसके पास वह सब कुछ उपलब्ध है जो आप चाहते हैं और आपके पास वह नहीं है | इस प्रकार एक कर्म के प्रति आसक्ति का भाव हमें काम से मात्सर्य तक समस्त छः विकारों से ग्रस्त कर देता है | कर्मासक्ति ही कर्म बंधन पैदा करती है | हम केवल उस कर्म के प्रति ही अधिक आसक्ति भाव रखते हैं, जिस कर्म को करने से हमें इच्छित फल प्राप्त होता है | यह आसक्ति ही हमें उस कर्म के साथ बाँध देती है | इस प्रकार इतने विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि कर्म ही विकार का कारण बनते हैं | इसीलिए गीता को कर्मयोग का ग्रन्थ कहा जाता है क्योंकि यही एक मात्र ग्रन्थ है, जो हमें कर्म-बंधन से मुक्त होने की राह दिखलाता है | गीता की सार्थकता तभी है जब हम कर्म के रहस्य को समझकर इस कर्म-बंधन को तोड़कर समस्त विकारों से मुक्त हो जाएँ | समस्त विकारों से मुक्त हो जाना ही जीवन- मुक्त होना है |
क्रमशः
प्रस्तुति डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, March 28, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 26


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 26
              अब प्रश्न यह पैदा होता है कि मुख्य विकार अर्थात काम का जनक कौन है और यह कहाँ पैदा होता है ? काम का जनक है, विषय-भोग (सांसारिक सुख) तथा विषय-भोग मिलते हैं, कर्म करने से | अतः कर्म ही परोक्ष रूप से मुख्य कारण बनते हैं-काम को जन्म देने में और काम के जन्म लेने का स्थान होता है, मन |  मन में विषय-भोग के प्रति आसक्ति के कारण काम जन्म लेता है अर्थात भोगों के कारण मन में काम उत्पन्न होता है | बिना किसी कर्म के किये भोग उपलब्ध हो नहीं सकते | इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि बिना कोई कर्म किये मन में काम पैदा हो ही नहीं सकता परन्तु क्या जीवन में कर्म का त्याग करना संभव है ? नहीं, कर्म करना हम छोड़ ही नहीं सकते, जीवन में हमें कर्म करने ही पड़ते हैं क्योंकि इस जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए कर्म करने आवश्यक हैं | गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते भी हैं कि मनुष्य अपने जीवन में एक क्षण के लिए भी कर्म किये बिना रह भी नहीं सकता |
                      मनुष्य कर्म करना क्यों और कैसे प्रारम्भ करता है ? इसको जानने के लिए हमें मन को जानना होगा क्योंकि मन के बिना कोई भी मनुष्य कर्म करने को विवश नहीं हो सकता | मन के दो भाग होते हैं | एक भाग शरीर के साथ संलग्न होता है और दूसरा भाग आत्मा के साथ | शरीर के साथ लगा मन का भाग तभी सक्रिय होता है जब व्यक्ति कर्म करना प्रारम्भ करता है अन्यथा नए जन्मे शिशु में मन सदैव निर्मल (Pure) ही होता है, विकार ग्रस्त नहीं | विकार तो कर्म करने के साथ ही भोग मिलने पर मन के भीतर उत्पन्न होते हैं, जिसे विकार का व्यक्ति में प्रवेश होना कहते हैं | मनुष्य अपने जीवन में कर्म करना प्रारम्भ करता है, अपने पूर्व जन्म के पुरुषार्थ अर्थात प्रारब्ध के कारण | अगर प्रारब्ध में कुछ भी लिखा नहीं हो तो कर्म प्रारम्भ करना थोडा मुश्किल होता है हालाँकि बिना कर्म किये रहना इस जीवन में संभव नहीं है | कुछ न कुछ कर्म स्वतः ही इस शरीर में होते रहते हैं | प्रत्येक कर्म का एक निश्चित फल अवश्य ही होता है | वह फल हमें या तो सुख पहुंचाता है या दुःख | दोनों ही प्रकार के कर्म-फल को भोग कहा जाता है | इन विषय-भोग (सांसारिक सुख) के प्रति व्यक्ति आसक्त हो जाता है | यह विषयासक्ति हमारे जीवन में विकारों को आमंत्रित करती है |
                      मन के भीतर जब काम बढ़ता है, तब नए जीवन के लिए प्रारब्ध बनना प्रारम्भ हो जाता है | परन्तु ऐसा किसी भी व्यक्ति के मनुष्य जीवन में संभव ही नहीं है कि उसका प्रारब्ध बना ही नहीं हो | प्रारब्ध के कारण ही तो मनुष्य जन्म मिलना संभव होता है | प्रारब्ध के कारण ही हम आवागमन से मुक्त नहीं हो पाते हैं | इतने विवेचन से कर्मों के बारे में एक अति महत्वपूर्ण बात निकलकर हमारे समक्ष आती है कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन में प्रारब्ध के कारण कर्म अवश्य करे परन्तु प्रारब्ध बनाने के लिए कर्म नहीं करे |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, March 27, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 25


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 25  
                    काम (कामना) को विकार कहा गया है, इसका अर्थ हुआ कि शुभ कामना भी एक विकार है | यह सत्य है कि काम एक विकार है परन्तु एक विकार होते हुए भी शुभकामना व्यक्ति के लिए उत्थान का मार्ग प्रशस्त करती है | प्रारम्भिक स्तर पर आध्यात्मिकता के लिए यह कामना भी आवश्यक है, जिससे हम संसार से विमुख हो सकें अर्थात संसार में रहते हुए भी उससे लिप्त न हों, आसक्त न हों | परन्तु अगर आत्म-बोध को पूर्णतः उपलब्ध होना है, तो अंततः इस शुभ कामना का भी त्याग करना होगा | भक्त प्रह्लाद से जब नरसिंह भगवान ने कहा कि वत्स ! कोई वरदान मांगो तो भक्त प्रह्लाद ने कहा कि मैं कोई वर नहीं चाहता | प्रह्लाद ने आगे कहा कि अगर फिर भी आपको वरदान के रूप में मुझे कुछ देना ही है तो आप मेरे पर इतनी कृपा कीजिये कि इस जीवन में मेरे मन में कभी कोई कामना ही न उठे | इससे भक्त प्रह्लाद ने स्पष्ट कर दिया है कि काम रुपी विकार के रहते परमात्मा से मिलन अर्थात मोक्ष असंभव है | परमात्मा के द्वार पर पहुँचने तक आपकी सभी कामनाएं गिर जानी चाहिए, सभी कामनाएं समाप्त हो जानी आवश्यक है |
                             इस प्रकार इस विवेचन से हमने काम को संक्षेप में जाना है | वैसे अकेले इस विकार काम पर ही बहुत कुछ लिखा जा सकता है परन्तु इस विषय को समझने के लिए इतना जान लेना ही पर्याप्त है | काम के कारण जो दूसरा प्रमुख विकार हमारे मन में प्रवेश करता है | आइये ! उसके बारे में भी संक्षेप में जान लेते हैं |
             दूसरा प्रमुख विकार है मोह  | मोह का अर्थ हैं ममता | जहाँ काम है वहां मोह अवश्य ही होगा | किसी एक विषय, स्थान, व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति लगाव का होना ही मोह है | हम जिस व्यक्ति, वस्तु अथवा विषय-भोग से सुख का अनुभव करते हैं, उसके प्रति हमारा विशेष लगाव हो जाता है | हम जानते हैं कि भौतिक संसार की सभी वस्तुएं व जीव अस्थाई और परिवर्तनशील है, माया है और इनके प्रति आकर्षण रखना अंत में दुःख ही देने वाला है, फिर भी हम अपने मोह (अज्ञान) के कारण उनसे बंधन को छोड़ नहीं पाते | मोह काम के कारण पैदा होता है | परमात्मा की माया हमें काम के माध्यम से एक प्रकार के आकर्षण में बाँध लेती है | यह माया का आकर्षण ही मोह (अज्ञान ) है | इस आकर्षण से छूटने का एक मात्र उपाय है, भक्ति | भक्ति अर्थात परमात्मा के प्रति प्रेम अर्थात आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाना |
                 सभी विकारों का अग्रणी (नेता) काम है | अतः हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि हम हमारी कामनाओं पर अंकुश रखें और धीरे-धीरे उस अवस्था को उपलब्ध हो जाएँ जहाँ पर मन में किसी काम का जन्म ही न हो पाए | इसके लिए हमें हमारे सुख-भोग के साधनों के प्रति आसक्ति को कम करना होगा | विषय-भोग हमारी कामनाओं को हवा देते हैं, जिससे हमें कर्म करना पड़ता है | प्रत्येक कर्म जब सुख प्रदान करता है तब पुनः उस सुख के प्रति आसक्ति बढ़ती है और आसक्ति फिर एक नए काम को जन्म देती है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Monday, March 26, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 24


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 24 
                काम अर्थात कामना | मनुष्य में कामना मन में उठती है और मन के होने व उसे अपने अनुसार चलाने की क्षमता के कारण से ही यह प्राणी मनुष्य कहलाता है | कामनायें  दो प्रकार की होती हैं - शुभ कामना और अशुभ कामना | स्मरण रखें कि दोनों ही कामनाएं विकार हैं | हाँ, शुभ कामनाएं हमें उत्थान और मुक्ति की ओर ले जाती है और अशुभ कामनाएं पतन व आवागमन के चक्र की ओर | शुभ कामना को जानने से पहले अशुभ कामनाओं के बारे में जान लेते हैं | अशुभ कामनाएं इस संसार से सुख प्राप्त करने की अपेक्षा से मन में जन्म लेती है | अशुभ कामनाएं सांसारिक कामनाएं होती है और इन्हें दो प्रकार से पूरा किया  जा सकता है | अशुभ कामना को पूरा करने के लिए प्रथम रास्ता है स्वयं के द्वारा कर्म (सकाम अथवा विकर्म) करके पूरा करना | अशुभ कामनाओं को पूरा करने के लिए दूसरा मार्ग है किसी अन्य व्यक्ति से उस कामना को पूरी करने की आशा अथवा अपेक्षा रखना | दोनों ही रास्तों से जब अशुभ कामना अर्थात सांसारिक कामना पूरी नहीं होती तो फिर क्रोध पैदा होता है | इस सांसारिक कामनाओं का पूरा होना बहुत कुछ आपके भाग्य अर्थात प्रारब्ध पर ही निर्भर करता है |
                       शुभ कामना व्यक्ति के उत्थान के लिए होती है, इसे आध्यात्मिक कामना भी कहा जा सकता है अर्थात ये कामनाएं परमात्मा अथवा आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए होती है | अगर पूर्ण रूप से समर्पित होकर मानसिक प्रयास किये जाएँ तो यह शुभ कामना परमात्मा की प्राप्ति करवा देती है | शुभ कामना को पूरा करने के लिए व्यक्ति को स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है | स्वयं के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति जैसे गुरु अथवा शास्त्र अध्ययन केवल आपके लिए मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकते हैं |  परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन स्वामी श्री राम सुख दास जी महाराज शुभ कामना को पूरा करने के लिए चार प्रकार की कृपा का होना आवश्यक बताते हैं | पहली है स्व-कृपा अर्थात परमात्मा को पाने के लिए स्वयं के द्वारा प्रयास करना आवश्यक है, स्वयं की लगन आवश्यक है | हम अगर स्वयं अपना उत्थान नहीं चाहते तो हमारा कुछ भी भला नहीं होने वाला | ज्ञान तो सभी प्राप्त करना चाहते हैं परन्तु ज्ञान के लिए स्वयं को तैयार करना पड़ता है | स्वयं को आत्म-ज्ञान के लिए तैयार करने को ही स्वामी जी स्व-कृपा होना कह रहे हैं |
                       दूसरी है, गुरु-कृपा | स्व-कृपा से जब व्यक्ति शुभ कामना पूरा करने का प्रयास करता है तो उस पर गुरु-कृपा होना आवश्यक है | यह व्यक्ति को आत्म-ज्ञान के लिए मार्गदर्शन देते हैं | जब मनुष्य आत्म-ज्ञान के लिए प्रयास करते हैं तो गुरु की खोज अधिक समय तक नहीं करनी पड़ती, गुरु मिल ही जाते हैं | जिसकी स्वयं पर कृपा नहीं होती, उसको गुरु ढूँढने से भी नहीं मिल पाते | तीसरी कृपा है, शास्त्र-कृपा | गुरु आपको शास्त्रों के माध्यम से मार्गदर्शन देता है | शास्त्रों को पढ़कर और गुरु के द्वारा उसका सही विवेचन सुनकर ही आप आत्म-ज्ञान के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं  | शास्त्र और गुरु हमारे भीतर से सभी विकार बाहर कर इस प्रकार प्रकाशित कर देते हैं जैसे किसी बर्तन को बाहर-भीतर से साफ कर चमका दिया जाता है | शास्त्र अध्ययन और गुरु का मार्गदर्शन आपको ऐसी राह दिखा देते हैं, जहाँ से परमात्मा मिलने बहुत ही सहज हो जाते हैं |
                   चौथी और अंतिम कृपा है, भगवत-कृपा | परमात्मा की कृपा के बिना कोई भी कामना फल प्रदान नहीं कर सकती, चाहे वह किसी भी प्रकार की कामना हो | जिस दिन हमें आत्म-ज्ञान हो जायेगा हम स्वयं के भीतर बैठे परमात्मा को पा लेंगे | उस दिन कृष्ण-मृग की तरह वन-वन, पत्ते-पत्ते में कस्तूरी को ढूँढना नहीं पड़ेगा |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, March 25, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 23


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 23
                   इसी प्रकार जब (काम) कामना पूरी नहीं होती तो क्रोध और दुःख उत्पन्न होता है | क्रोध उस कामना को पूरा करने के लिए फिर अधिक जोश से प्रयास करने की इच्छा पैदा करता है और अगर इस बार भी काम पूर्ण नहीं हुआ तो क्रोध और अधिक बढ जाता है | काम पूर्ण हो जाने की दशा में व्यक्ति सुख के मद/अहंकार/दर्प में चूर हो जाता है और अपने आपको सभी कामनाओं को पूर्ण करने की क्षमता वाला और एक मात्र कर्ता समझ बैठता है | इस प्रकार स्वयं के द्वारा किये गए कर्म से काम के पूर्ण होने पर दूसरा विकार मोह पैदा हो गया है | यह मोह फिर एक नई कामना (काम) को जन्म देगा | इसके साथ ही कर्म करने का राग भी हमारे भीतर प्रवेश पा जाता है | मोह वह विकार है, जो सुख प्रदान करने वाले व्यक्ति (ममता) व वस्तुओं आदि से होता है | कहने का अर्थ है कि हमें अपने द्वारा स्वयं के लिए बनाये संसार से मोह हो जाता है | मोह को अज्ञान भी कहा जाता है | हम जानते हैं कि यह संसार और इसकी सभी वस्तुएं व व्यक्ति अस्थाई और परिवर्तन शील है तथा उनसे हमारा सम्बन्ध केवल तात्कालिक है, असत् है, सार्वकालिक नहीं है; फिर भी हम उन्हीं को स्थाई, सदैव के लिए व सत्य समझ बैठते हैं और उन्हीं से सुख पाना चाहते हैं | इस प्रकार संसार के जाल में उलझाकर रख देने वाले ये काम और मोह नामक दो विकार प्रमुख हुए | काम और मोह दोनों ही विकार मनुष्य को एक प्रकार का सुख प्रदान करते हैं परन्तु वास्तव में यह सुख न होकर सुखी होने का भ्रम मात्र ही होता है |
                       जब कोई नया काम पूर्ण नहीं हो पाता अथवा वह मनोवांछित फल प्रदान नहीं करता तो व्यक्ति के इस मद अर्थात अभिमान को ठेस पहुँचती है, जो उसे दुःख पहुँचाती है | कामना को पूरा न कर पाने से हमारा क्रोध और अधिक बलवान होता जाता है | इसी प्रकार जब हमें सतत प्रयास के बाद भी कामना को पूरा करने में विफलता हाथ लगती है, तो हमारे भीतर उस कार्य को पूर्ण करने के लिए कर्म के प्रति राग भी पैदा हो जाता है | जिस अन्य व्यक्ति के पास अगर कोई वस्तु है और हमारे पास नहीं है अथवा उस व्यक्ति के अल्प प्रयास से भी वह कामना पूर्ण हो गयी हो जो हमारी पूरी नहीं हुई है तथा अगर कोई व्यक्ति हमारी कामना को पूर्ण करने में बाधक बना हो तो हमारे भीतर उस व्यक्ति के प्रति मात्सर्य (ईर्ष्या) और द्वेष पैदा हो जाता है | इस प्रकार काम पूरा होने अथवा न होने से उत्पन्न होने वाले ये दोनों विकार सामूहिक रूप से राग-द्वेष कहलाते हैं | जब कामना पूर्ण नहीं हो, तब अगर विवेक बुद्धि का उपयोग किया जाये तो व्यक्ति परमात्मा की ओर अग्रसर हो सकता है | सुख की अपेक्षा दुःख हमें शीघ्र ही आध्यात्मिक बना सकता है | इसीलिए कहा जाता है कि जीवन में जब दुःख आये तो समझ लेना चाहिए कि परमात्मा की ओर चलने का समय आ गया है |
            इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि प्रत्येक विकार एक दूसरे का जनक (Procreator) भी है और पोषक (Nourisher) भी | एक विकार के आने से व्यक्ति में एक-एक कर सभी विकार उत्पन्न हो जाते हैं | इतने विवेचन से स्पष्ट है कि इन छह विकारों में भी दो मुख्य विकार है, जो सभी विकारों के जनक भी है और पोषक भी | वे दो विकार हैं - काम और मोह | इन दोनों में से एक विकार अधिक महत्वपूर्ण है और वह विकार है, काम | इसलिए काम को थोडा विस्तार से जानना आवश्यक है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, March 24, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 22


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 22
                  विकार (Disorder) क्या है और मनुष्य में आखिर प्रवेश कैसे करते हैं ? इन प्रश्नों का उत्तर मिल जाने पर ही हम विकार-मुक्त होने की सम्भावना तलाश सकते हैं अन्यथा नहीं | गीता-ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब हम समस्त विकारों से मुक्त हो जाएँ | जब कोई वस्तु अपने मूल स्वरूप को खो देती है, तब कहा जा सकता है कि उस वस्तु में विकार आ गया है | इस भौतिक शरीर में विकार आने से हम रोग-ग्रस्त हो जाते हैं और विकार के जाते ही रोग-मुक्त | दूध में विकार आ जाने पर वह फट जाता है | दूध में पैदा हुए इस विकार को दूध का खट्टा हो जाना कहते हैं, अर्थात खटास (Acid) ही वह विकार है, जो दूध का स्वरूप परिवर्तित कर देता है | लेकिन अगर दूध में खमीर मिला दिया जाये तब भी उसका स्वरूप परिवर्तित हो जाता है और वह दही बन जाता है | दूध का स्वरूप खमीर से भी परिवर्तित होता है परन्तु खमीर (Yeast) विकार नहीं है | इस दूध के उदाहरण से विकार को समझने में हमें सहायता मिलती है | खमीर विकार नहीं है क्योंकि इससे हमें दूध में छुपे मक्खन को पाने में सहायता मिलती है जबकि खटास दूध में आया विकार है क्योंकि उससे दूध अनुपयोगी हो जाता है | इस प्रकार विकार की परिभाषा स्पष्ट हो जाती है | विकार मनुष्य के भीतर मन में प्रवेश करने वाला वह दोष है, जो उसे पतन की ओर ले जाता है | विकार के स्थान पर मनुष्य में जब भक्ति प्रवेश करती है, तब मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करने के लिए आत्म-ज्ञान की और अग्रसर होता है | विकार के प्रवेश करने से व्यक्ति के स्वरूप में परिवर्तन होता है जबकि भक्ति के प्रवेश करने से व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हो जाता है |  व्यक्ति में विकार संसार के प्रति आसक्ति रखने से प्रवेश पाते हैं जबकि भक्ति का प्रवेश संसार के प्रति अनासक्त होने से होता है | अनासक्ति परमात्मा की और ले जाएगी और आसक्ति पतन की ओर |
               जैसा कि पूर्व में सभी विकार बतलाये गए हैं, फिर भी एक बार पुनः स्मरण करा दूं कि मुख्य विकार छः हैं | ये षट्-विकार हैं - काम (Desires), क्रोध (Anger), लोभ/तृष्णा (Greed / Lust), मोह (Fascination), मद (Arrogance)  मात्सर्य (Envy, Jealousy) | इन मुख्य विकारों के बारे में आप सभी जानते ही हैं | मनुष्य के भीतर ये विकार प्रवेश कैसे करते हैं, यही विचारणीय है | जब तक हम इन विकारों की प्रकृति को नहीं समझेंगे तब तक इन विकारों से स्वयं को  दूर नहीं रख पाएंगे अथवा भीतर से बाहर नहीं निकाल पाएंगे | एक विकार दूसरे विकार से सम्बंधित (Inter related) होता है और एक दूसरे का पोषक (Nourisher) भी | सम्बंधित तो इस मायने में है कि जब एक विकार हमारे भीतर प्रवेश करता है, तब दूसरा विकार धीरे-धीरे उसके पीछे-पीछे हमारे मन में प्रवेश पा लेता है | एक विकार किसी दूसरे विकार का पोषक इस मायने में है कि एक विकार दूसरे विकार को शक्ति प्रदान करता है, जिससे वे विकार व्यक्ति पर प्रभावी हो जाते हैं और अपनी पकड़ को मजबूत बना लेते हैं | एक बार जब इन विकारों का प्रभुत्व व्यक्ति पर स्थापित हो जाता है, तो फिर उन विकारों का त्याग करना लगभग असंभव हो जाता है | उदाहरण स्वरूप जब एक (काम) कामना पूरी होती है तो व्यक्ति में लोभ उत्पन्न होता है | लोभ फिर एक नए काम (कामना) को जन्म देता है और फिर उसकी पूर्ति हो जाने पर लोभ और अधिक बढ़ कर तृष्णा बन जाता है | इस प्रकार दोनों विकार मन पर अपनी पकड़ को मजबूत कर लेते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, March 23, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 21


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 21
                  अर्जुन के जीवन को समझ लेने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि हम चाहे कितनी ही पूजा-पाठ जैसी कई क्रियाएं कर लें और चाहे भगवान श्री कृष्ण भौतिक रूप से आकर हमारे साथ जीवन भर रह लें, मुक्त होने के लिए उनके द्वारा दिए गए ज्ञान को अपने ह्रदय में सदैव बनाये रखना होगा | समस्या ज्ञान को सुनने और जानने की नहीं है, ज्ञान तो सार्वकालिक और प्रत्येक स्थान पर उपलब्ध है | समस्या है उस ज्ञान को स्मृति में बनाये रखने की | ज्ञान विस्मृत हुआ नहीं कि मन में विकार प्रवेश पा जाते हैं | अर्जुन ज्ञान को विस्मृत करता गया और विकार उसमें प्रवेश करते रहे | भगवान उस ज्ञान का स्मरण कराते, अर्जुन पुनः सक्रिय होकर अस्थाई रूप से समता धारण कर लेता परन्तु कुछ समय उपरांत वही ढाक के तीन पात | मानसिक विकार ही मुक्ति में बाधक है, परमात्मा-प्राप्ति में बाधक है, आत्म-ज्ञान में बाधक है | तो आइये, अब सबसे पहले हम उन मानसिक विकारों की तरफ चलकर उनकी खबर लेते हैं |
                परमात्मा ने हमें विकार रहित ही बनाया है परन्तु संसार में आकर हम कर्म-जाल में इस प्रकार उलझ गए हैं कि विकार ग्रस्त हो गए हैं | हमारे शास्त्रों में मुख्य विकार छः माने गए हैं | इन्हें षट्-विकार के नाम से कहा गया है | ये छः विकार हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य | वैसे शास्त्रों में कई स्थानों पर सात विकार भी बताये हैं | उपरोक्त छः विकारों में अंतिम विकार मात्सर्य के स्थान पर राग और द्वेष विकार मिलाने पर मुख्य विकारों की संख्या सात हो जाती है | वृहत् रूप से (Broadly) देखा जाये तो विकार अनगिनत है परन्तु इनके अतिरिक्त किसी न किसी  विकार का आधार इन मुख्य विकारों में से कोई एक विकार अवश्य होता है | इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि विकार कितने हैं ? विकार, विकार ही होते हैं और आत्म-ज्ञान के लिए समस्त विकारों का त्याग करना पड़ता है | मन का शुद्धिकरण समस्त प्रकार के विकारों के त्यागने से ही संभव हो सकता है | इसे भीतर की शुद्धि अर्थात आत्म-शुद्धि कहा जाता है | शुद्ध मन से ही मनुष्य जीवन-मुक्त हो सकता है अन्यथा उसको आवागमन से कभी मुक्ति नहीं मिल सकती | प्रकाश में सात रंग होते हैं परन्तु वह हमें सफ़ेद ही दृष्टिगत होता है | हमारा चैतन्य भी प्रकाश स्वरूप होता है | हमारा शरीर जिसमें हमारी जीवात्मा रहती है, वह भी उसी चैतन्य से प्रकाशित होती है | शुद्ध मन ही प्रकाश स्वरूप होता है |
                           किसी वस्तु पर जब प्रकाश पड़ता है, तब वह किसी एक विशेष रंग की दिखलाई पड़ती है | इसका क्या कारण है ? संसार की सभी वस्तुओं पर प्रकाश समान रूप से पड़ता है ? प्रत्येक वस्तु प्रकाश के सात रंगों में से कुछ रंग को अवशोषित (Absorb) कर लेती है और शेष बचे रंग को परावर्तित (Reflect) कर देती है | जिस रंग को वह परावर्तित करती है, हमें उस वस्तु का वही रंग दिखलाई पड़ता है | परावर्तित अर्थात त्यागा गया रंग ही उस वस्तु का रंग होता है, अवशोषित किया हुआ नहीं | इसी प्रकार इस संसार में आने के उपरांत हमारे मन के भीतर भी विकार रुपी रंग प्रवेश कर जाते हैं | जिस प्रकार सभी सातों रंगों को परावर्तित कर दिया जाता है तो वह वस्तु हमें प्रकाश के रंग की अर्थात दिखलाई पड़ती है | इसी प्रकार अगर हम सभी विकारों को त्याग देते हैं, तो हमारा जीवन भी प्रकाशित हो सकता है | केवल एक या दो विकार त्याग भी दिए जाएँ तो भी हमारा कोई न कोई रंग त्याग के रूप में तो दिखाई दे सकता है परन्तु इसका अर्थ है कि वास्तव में हम विकार-मुक्त नहीं हुए हैं | मन के भीतर प्रवेश कर गए समस्त विकारों का त्याग किये बिना हमारा प्रकाशित होना असंभव है | अतः आत्म-ज्ञान के लिए समस्त विकारों का त्याग करना आवश्यक है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, March 22, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता -20


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 20
                अर्जुन को मोह और मद, ये दो विकार ही ले डूबे | भगवान श्री कृष्ण जैसे गुरु भी उसे इन दो प्रमुख विकारों से मुक्ति नहीं दिला सके | इधर हम है, जो इन दो ही नहीं बल्कि समस्त विकारों के साथ जीवन की गाड़ी को खेचे चले जा रहे हैं | ऐसे में हमारा भविष्य कैसा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है | अर्जुन के दो विकार उसे बैकुण्ठ ही नहीं, सीधे स्वर्ग तक को भी उपलब्ध नहीं करा सके, स्वर्ग से पहले उन्हें कुछ दिनों के लिए नरक में जाना ही पड़ा था | अर्जुन के लिए बैकुण्ठ तो दिवास्वप्न ही बना रहा | हम इस देह को त्यागने के बाद कहाँ होंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है |
            महाभारत युद्ध से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि मनुष्य को चाहे परमात्मा से ही ज्ञान क्यों न मिल जाये, उसके लिए उस ज्ञान को जीवन भर स्मृति में बनाये रखना आवश्यक है | अगर क्षण भर के लिए भी ज्ञान को विस्मृत किया तो मनुष्य किसी भी विकार से ग्रस्त हो सकता है | इन विकारों में से किसी भी एक विकार के प्रवेश करते ही शेष सभी विकार मनुष्य में एक-एक कर आ ही जायेंगे | इसीलिए आध्यात्मिक जीवन को सावधानीपूर्वक जीना पड़ता है | ‘महाभारत’ में जब कुरुक्षेत्र-युद्ध के बाद  श्री कृष्ण द्वारिका जा रहे होते हैं तब अर्जुन उनसे गीता-ज्ञान को एक बार फिर से दोहराने को कहते हैं | यह सुनकर भगवान श्री कृष्ण व्यथित हो जाते हैं | फिर भी वे एक बार अर्जुन को वही ज्ञान दुबारा देते हैं | इस ज्ञान के संकलन को ‘अनु-गीता’ कहा जाता है | अनु-गीता में भक्ति-योग नहीं कहा गया है | ज्ञान और कर्म-योग को पुनः कहा गया है | इसका पहला कारण है कि अर्जुन अब युद्ध की मानसिकता से पूर्णतया बाहर निकल आया है और संसार में रम गया है | ऐसे में उसको अधिक आवश्यकता कर्म-योग और ज्ञान की थी | दूसरा कारण है कि कर्म और ज्ञान के अंतर्गत भक्ति-योग भी आ जाता है | अतः भगवान ने उसे अब भक्ति-योग के स्थान पर कर्म और ज्ञान पर निर्देश देना अधिक उचित समझा, जिससे कि वह पुनः सांसारिक विकारों में न फंस पाए |
          विकार ही बंधन है, विकार ही वह जाल है जिसके कारण हम संसार में उलझे रहते हैं | विकार ही हमें कर्म-बंधन में डाल देता है | विकार ही सब समस्याओं की मूल में है | विकार से मुक्त कैसे हुआ जा सकता है ? जब तक हम उन विकारों को भली भांति समझ नहीं लेंगे तब तक उनसे मुक्त होने का विचार तक नहीं कर सकते | गीता-ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब हम इस ज्ञान को सदैव स्मृति में रखें तथा उसी ज्ञान के अनुसार चलें और अपने जीवन को विकार-मुक्त बनायें |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, March 21, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 19


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 19
                    अर्जुन और श्री कृष्ण युद्ध भूमि में विचरण कर रहे हैं | भगवान श्री कृष्ण के सम्मुख अर्जुन अपने आपको सर्वकालीन महायोद्धा बताते हुए आत्मप्रशंसा में लीन है | उसके अभिमान को चूर-चूर करने के लिए श्री कृष्ण अवसर का इंतजार कर रहे हैं | तभी उनके सामने वह पहाड़ी आ जाती है, जहाँ भीम पुत्र बर्बरीक का मस्तक युद्ध देखने के लिए रखा गया था | गुरु-शिष्य दोनों टहलते हुए बर्बरीक के शीश के पास पहुंचते हैं | अर्जुन अभी भी आत्मप्रशंसा में लीन है | अंततः भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि ‘हे अर्जुन ! महाबली बर्बरीक ने सम्पूर्ण महाभारत युद्ध को देखा है | क्यों न इनसे ही पूछ लिया जाये कि इस महायुद्ध का महायोद्धा कौन है ?’ अर्जुन ने बर्बरीक की और देख कर इस प्रश्न का उत्तर चाहा | महाबली बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया-‘मुझे तो इस युद्ध में कोई भी योद्धा लड़ते हुए दिखाई ही नहीं दिया | केवल एक मात्र सुदर्शन चक्र ही इस छोर से उस छोर तक घूमते हुए संहार कर रहा था |’ बर्बरीक का यह उत्तर सुनकर अर्जुन का गर्व चूर-चूर हो गया |
                  इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि मोह और मद (अभिमान) सभी विकारों के मूल है | अगर इतना ज्ञान सुनकर और पढ़कर भी हमारा अहंकार और मोह नष्ट नहीं होता तो कमी हमारे में है, ज्ञान में और ज्ञान देने वाले में नहीं | हमें यह जानना आवश्यक है कि ज्ञान केवल सुनने और पढ़ने की पुस्तकीय बातें ही नहीं है बल्कि उस ज्ञान को जीवन में अपनाने से ही उसकी महता है | इसीलिए कहा जाता है कि ‘ज्ञानं भारः क्रियाः बिना’ अर्थात ज्ञान को काम में लिए बिना वह ज्ञान मात्र बोझ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | हम ज्ञान के बोझ तले दबे जा रहे हैं | यह बोझ ही मनुष्य में ज्ञान का अहंकार पैदा करता है | इस ज्ञान के बोझ को कम करने का एक ही उपाय है, उस ज्ञान का सही समय पर सदुपयोग कर लिया जाये | अगर ज्ञान का समय पर सदुपयोग नहीं किया जाता तो फिर ऐसा ज्ञान बोझ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रह जाता है |
                         हम पढ़ते हैं, सुनते हैं, गुरु के पास जाते हैं और सब कुछ सीखते और जानते भी हैं परन्तु उस जाने हुए ज्ञान के अनुसार चलते नहीं है | यह प्रत्येक मनुष्य की कमी है | आज जो कुछ भी सामने दिखाई दे रहा है, उसी को सत्य मान बैठे हैं जबकि वास्तविकता यह है कि जो कुछ भी हमें दिखलाई पड़ रहा है, वह प्रतिपल निरंतर परिवर्तित हो रहा है | निरंतर परिवर्तित होने वाला सत्य हो ही नहीं सकता फिर भी हम उसी को सत्य मान रहे हैं | वास्तविक ज्ञान वही है जो इस बात का ज्ञान करा दे कि सत्य शाश्वत होता है और इस भौतिक दृष्टि से वह दिखाई नहीं दे सकता | मोह वह अज्ञान है जो हमें हमारे जीवन में वास्तविक ज्ञान से वंचित कर देता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, March 20, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 18


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 18
                 मोह परमात्मा की माया के कारण ही पैदा होता है और माया में ही पैदा होता है | मोह के कारण ही काम, क्रोध, लोभ, मद, ईर्ष्या आदि सब विकार मनुष्य के मन में जन्म ले लेते हैं | ये सभी नरक के द्वार हैं और मनुष्य को चाहिए कि वह इनसे बचकर रहे | मोह में फंसकर ही व्यक्ति सुख-दुःख का अनुभव करता है, वह सदैव अपने आपको असुरक्षित पाता है | अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से ज्ञान पाकर भी बार-बार मोह में फंसता जा रहा था और एक मात्र यही कारण था कि वह मोक्ष को उपलब्ध नहीं हो सका | अर्जुन इंद्र-पुत्र था और इंद्र स्वर्ग का राजा है, फिर भी अर्जुन सीधे स्वर्ग में भी नहीं पहुँच सका | जब स्वर्ग जाने के लिए पांचो भाई व द्रोपदी हिमालय आरोहण कर रहे थे तभी एक पहाड़ पर चढते समय फिसल कर गिर जाने से अर्जुन की मृत्यु हो गयी थी | देह छोड़ते समय भी उनके मन में स्वर्ग तक न पहुँच पाने का दुःख था | स्वर्ग जाने का मोह भी अंत समय में उसके दुःख का कारण रहा | इस प्रकार जीवन के अंत तक मोह नष्ट न होने के कारण वे कभी भी द्वंद्व से मुक्त नहीं हो सके थे | इस कारण से अर्जुन को प्रारम्भ में कुछ समय के लिए नरक में भी जाना पड़ा | नरक की अवधि भोगकर वहां से फिर वह अपने जैविक पिता इंद्र की नगरी स्वर्ग पहुंचे | जहाँ पर रहकर उन्होंने अपने मानव जीवन में किये गए सत्कर्मों का फल भोगा और पुनः पृथ्वी-लोक में मनुष्य के रूप में जन्म लिया | साक्षात् परमात्मा श्री कृष्ण का सानिध्य और उनसे प्राप्त किया ज्ञान भी अर्जुन को बैकुण्ठ में स्थान नहीं दिला सका | इसका कारण गीता-ज्ञान में कोई कमी होना नहीं है, बल्कि मनुष्य की कमजोरी है क्योंकि उसकी मानसिकता ही ऐसी हो गयी है कि वह बार-बार मोह में पड़ता रहता हैं | ज्ञान पाकर भी हम त्याज्य विकारों का त्याग नहीं कर पाते हैं अथवा एक बार त्यागने के बाद पुनः उनको ही अपना लेते हैं | यह हमें सोचने को विवश करता है कि ऐसा क्या किया जा सकता है, जिससे हम सदैव के लिए मोह और माया से मुक्त हो सकें ?
                      अर्जुन के मुक्त न होने का एक मात्र कारण केवल मोह का नष्ट न हो पाना ही नहीं था | कुरुक्षेत्र का युद्ध महाभारत समाप्त हो चूका था | अर्जुन को अपने आपको महायोद्धा मान लेने का अभिमान भी हो गया था | अभी कुछ दिन ही तो बीते थे उसे गीता-ज्ञान प्राप्त किये | फिर भी वह समझ नहीं पा रहा था कि युद्ध करने वाला, युद्ध में मरने वाला और युद्ध में मारने वाला  भला कोई व्यक्ति कैसे हो सकता है ? हाँ, श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता के प्रारम्भ में ही यहाँ तक स्पष्ट कर दिया था कि ‘मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’ अर्थात ‘ये युद्ध भूमि में खड़े सभी योद्धा मारे जा चुके हैं, तू तो केवल इनको मारने का निमित मात्र बन जा |’ युद्ध की समाप्ति पर अर्जुन इस ज्ञान को विस्मृत कर चूका है | वह इस युद्ध में हुई विजय को केवल अपनी स्वयं की विजय मान रहा है | इस प्रकार अर्जुन में महाभारत युद्ध की विजय से उत्पन्न हुए अभिमान में और नारद में काम-विजय उपरांत जगे अभिमान में मूलभूत से कोई अंतर नहीं है | ऐसा अभिमान भी व्यक्ति को पतन की राह पर डाल देता है | नारद को तो श्री हरि ने अभिमान के गर्त से बाहर निकल लिया था | देखें ! अर्जुन के साथ श्री कृष्ण क्या करते हैं ?
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Monday, March 19, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 17


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 17
                       श्री हरि से आशीर्वाद प्राप्त कर देवर्षि पहुँच गए, शील निधि के दरबार में जहाँ विश्वमोहिनी का स्वयंवर हो रहा था | राजकुमारी जयमाला लेकर मंडप में आती है, नारद उछल-उछल कर उसके सामने अपने चेहरे को ले जाते हैं परन्तु राज कुमारी उनकी ओर दृष्टि तक नहीं डालती है | अन्ततः स्वयंवर समाप्त हो जाता है और सभी अपने-अपने स्थान पर जाने के लिए उठ खड़े होते हैं | स्त्री-वियोग में दुखी होकर देवर्षि भी उठ खड़े होते हैं | पास में बैठे थे शिव के दो गण, वे नारद के बन्दर जैसे चेहरे को देखकर उनकी हंसी उड़ाते हैं और नारद उन्हें शाप देते हैं कि तुम दोनों जो मेरी इस देह को देखकर राक्षसों की तरह  मुझ पर हंस रहे हो न, त्रेता युग में तुम दोनों निशाचर बनोगे | व्यथित नारद राजप्रासाद से बाहर निकलते हैं और पास में स्थित सरोवर में जाकर अपने मलिन मुख को धोते हैं | वे अपना चेहरा जल-दर्पण में देखकर हतप्रभ रह जाते हैं | यह कैसा रूप दे दिया श्री हरि आपने ? भयंकर विशाल बन्दर की देह | नहीं, ऐसा हो नहीं सकता | श्री हरि ने जानबूझकर ऐसा क्यों किया ?
               नारद इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि श्री हरि आ पहुंचे देवर्षि के सम्मुख | साथ में धर्मपत्नी रमा और वही विश्वमोहिनी राजकुमारी | श्री हरि और राजकुमारी विश्वमोहिनी, दोनों के गले में पड़ी वरमाला देखकर नारद सब कुछ समझ गए | स्त्री-मोह ने उनकी आंतरिक दृष्टि छीन ली थी, मोह ने उन्हें अँधा बना दिया था | वे व्यथित तो पहले से ही थे, श्री हरि के साथ राजकुमारी को देखकर उनकी व्यथा कई गुना अधिक बढ़ गयी | उन्होंने श्री हरि को शाप दिया कि जिस प्रकार एक स्त्री के वियोग से मैं आज दुखी हो रहा हूँ, उसी प्रकार आप भी एक दिन स्त्री के वियोग में दुखी होंगे | साथ ही साथ जिस प्रकार आपने मुझे जैसे यह वानर देह दी है, वैसे ही वानर एक दिन आपके लिए सहायक सिद्ध होंगे | श्री हरि ने मुस्कान के साथ उनका शाप शिरोधार्य किया और अपनी माया समेट ली | अब वहां पर न तो वह नगर था और न ही राजकुमारी विश्वमोहिनी | यह सब कुछ केवल भ्रमित करने वाली माया थी जिसके मोह में काम को जीत लेने वाले देवर्षि नारद भी काम के वश होकर फंस गए थे |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, March 18, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 16


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 16
                  आपके जीवन में भी आपको अपने लक्ष्य से भटकाने के लिए ऐसे ही सब विकार अवरोध बनकर आयेंगे | अगर आप ने ज्ञान को आत्मसात किया होगा तो फिर संसार की कोई भी शक्ति आपको मोह ग्रस्त नहीं कर सकती | परन्तु यह सब इतना सरल नहीं है | साधारण मनुष्य के लिए तो एक दम नहीं है | ब्रह्मा पुत्र नारद जैसे देवर्षि भी स्त्री के मोह के जाल में फंसने से नहीं बच पाए थे | देवर्षि नारद ने काम को जीत लिया था | इसका उनको अभिमान हो गया था | वे सभी देवताओं को अपनी उपलब्धि बताते हुए आत्मप्रशंसा कर रहे थे | भगवान शंकर ने उन्हें कहा भी कि मुझे तुम जो यह सब काम-विजय की गाथा सुना रहे हो न उसे भगवान विष्णु को मत बताना | देवर्षि तो काम-विजय के मद में चूर थे | भला वे शिव की बात को सुनने वाले कहाँ थे ? पहुँच गए बैकुण्ठ, श्री हरि के दरबार में और करने लगे उनके समक्ष आत्मप्रशंसा | श्री हरि ने भी स्वीकार किया कि आप जैसा कोई नहीं है, जो काम को जीत सका हो | परन्तु नारद कहाँ रुकने वाले थे | वे तो लगातार अपनी प्रशंसा किये जा रहे थे |
                 परमात्मा की एक बहुत बड़ी विशेषता है | वे संसार में सब कुछ सहन कर सकते हैं परन्तु अपने भक्त का पतन उनको सहन नहीं होता | नारद ठहरे भगवान के परम भक्त | सदैव तीनों लोकों में ‘नारायण-नारायण’ का जप करते हुए घूमते रहते हैं | श्री हरि ने देखा कि अहंकार के कारण मेरे भक्त नारद का पतन हो रहा है, उसको इस प्रकार पतित होने से रोकना होगा | नारद जब बैकुण्ठ में श्री हरि के सामने आत्मप्रशंसा करते-करते थक गए तो उन्होंने परमात्मा को प्रणाम कर पृथ्वी लोक के भ्रमण पर जाने के लिए आज्ञा मांगी | श्री हरि की स्वीकृति पाकर वे ‘नारायण-नारायण’ जपते हुए पृथ्वी-लोक के लिए चल पड़े | तुरंत ही वे पृथ्वी लोक में पहुँच गए | वहां पहुंचते ही वे देखते हैं कि एक  नगर में वहां के राजा शीलनिधि  की अति सुन्दर कन्या राजकुमारी विश्वमोहिनी का स्वयंवर हो रहा है | उस नगर में पहुंचकर वे राज निवास गए | शीलनिधि ने अपनी कन्या का हाथ देखकर भविष्य बतलाने का आग्रह किया | हस्त-रेखा पढ़कर देवर्षि समझ गए थे कि इस कन्या का वर तो श्री हरि के समान ही कोई होगा | उन्होंने उसके भविष्य का सब कुछ अपने मन में छुपाकर रख लिया क्योंकि वे तो राजकुमारी को देखते ही मोहग्रस्त हो गए थे | उनके मन में उत्कंठा हुई कि क्यों न स्वयंवर में राजकुमारी उन्हें ही वर के रूप में चुने और जयमाला पहनाये | परन्तु ऐसा होना इतना आसान नहीं था | सब कुछ राजकुमारी विश्वमोहिनी के द्वारा किये जाने वाले चयन पर निर्भर था | देवर्षि नारद के सामने एक ही रास्ता था | वे श्री हरि से प्रार्थना करने लगे कि प्रभु, आप मुझे आपके जैसा सुन्दर रूप दीजिये | आप वह सब कुछ कीजिये जिससे राजकुमारी विश्वमोहिनी मुझे ही वर के रूप में स्वीकार करे | श्री हरि ने देवर्षि को कहा कि ‘मैं वह सब कुछ करूँगा जिसमें तुम्हारा हित निहित होगा | तुम्हारे हित के विरुद्ध मैं कुछ भी नहीं करूँगा |’
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||