हरिः शरणम् | आज
स्वदेश आये चार दिन हो गएँ हैं और जेट लेग से भी लगभग पूर्णतया मुक्त हो चूका हूँ |
आज से एक नए विषय ‘गुरु के सूत्र’ पर चर्चा प्रारम्भ करने जा रहा हूँ जो कि इससे
पूर्व के विषय ‘यात्रा-गुरु से गोविन्द तक’ से ही सम्बंधित है | इन दोनों ही विषयों का आधार
संत श्री मोरारी बापू के द्वारा दिनांक 26 जून व 1 जुलाई 2017 को कोलिराडो (सं.रा.अमेरिका
) के एडिस पार्क में दिए गए दो प्रवचनों पर आधारित है | इस विषय को और अधिक स्पष्ट
करने का प्रयास कर रहा हूँ, हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा (हरिद्वार) के आचार्य श्री
गोविन्द राम शर्मा से समय समय पर मिले सत्संग के आधार पर | इस श्रृंखला में गुरु
के द्वारा बताये गए उन सूत्रों पर चर्चा करेंगे, जिन पर चलकर हम अपनी आध्यात्मिक
यात्रा को आगे बढ़ा सकते हैं | आशा है, आपके लिए यह श्रृंखला लाभकारी होगी | हरिः
शरणम् |
गुरु के सूत्र
हमने अभी ‘गुरु से
गोविन्द तक’ श्रृंखला में इस बात पर चिंतन किया था कि हमें गुरु
गोविन्द के पास तक किस प्रकार ले जाता है | आज इस नई श्रृंखला में इस बात पर चिंतन
करेंगे कि हमें गुरु किस प्रकार गोविन्द के पास जाने के लिए तैयार करता है | हम
कोरे नहीं है बल्कि उलजलूल ज्ञान से भरे हुए हैं | उस ज्ञान से हमें गुरु पहले पहले
तो मुक्त करता है और फिर वास्तविक ज्ञान से हमारा परिचय कराता है | इसके लिए गुरु
किसी भी सीमा तक जा सकता है, पात्रता तो आप में होनी चाहिए | ऐसा नहीं है कि गुरु
हमारे आत्मबल को सहारा नहीं देता, हमें सदैव ही गुरु प्रेरित करता रहता है, जीवन
में कभी भी हतोत्साहित नहीं होने देता | इसी लिए कबीर कहते हैं –
गुरु कुम्हार
शिष्य कुम्भ है; गढ़ गढ़ काढ़े खोट |
अन्दर हाथ सहार
दे; बाहर बाहे चोट ||
अर्थात गुरु एक
कुम्हार की भांति है, जो अपने घड़े को सदैव ही मजबूत और पक्का बनाने का प्रयास करता
है | जिस प्रकार कुम्हार एक कच्चे घड़े को पक्का करने के लिए बाहर से थपथपाता रहता
है परन्तु भीतर दूसरे हाथ से उस सहारा भी दिए रखता है; उसी प्रकार हमारा गुरु भी
हमें आध्यात्मिकता की राह में भीतर से सहारा देते हुए बाहर से ज्ञान की चोट देता
रहता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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