Monday, August 21, 2017

गुरु के सूत्र - 16

गुरु के सूत्र – 16
चौथा सूत्र – रसमय जीवन (कल से आगे) -
                             ययाति ने सत्य ही कहा है | सभी विषय-भोग ऐसे ही होते हैं जिन्हें मनुष्य जीवन भर भोगना तो चाहता है परन्तु वह यह नहीं जानता कि वह इन भोगों का स्वयं ही भोग बनता जा रहा है | जब तक इस बात का पता उसे चल पाता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | ययाति को इस बात का ज्ञान होते ही अपने पुत्र पूरु को उसकी युवावस्था लौटा दी और साथ ही साथ अपना राज्य उसको देकर शांत भाव से वन को प्रस्थान कर गए | मनुष्य को शांति तब तक प्राप्त नहीं हो सकती जब तक कि उसको यथार्थ का ज्ञान नहीं हो जाये | यथार्थ क्या है ?
                 यथार्थ वह नहीं है, जो हमें अपनी आँखों से दृष्टिगत है | यथार्थ उस दृश्य के पीछे छुपा हुआ है जिसे केवल वही व्यक्ति देख सकता है, जिसके आंतरिक चक्षु खुले हों | नेत्र और उनकी दृष्टि दोनों ही जड़ होते हैं अतः यथार्थ को देखने से वे कोसों दूर रहती है | परन्तु आंतरिक दृष्टि यथार्थ को देख सकती है | आंतरिक दृष्टि को जाग्रत करने का एक ही साधन है – ज्ञान | ज्ञान हमें यथार्थ तक ले जाता है | जब यथार्थ से हमारा सामना होता है, संसार का सब कुछ बहुत पीछे छूट जाता है | द्वंद्व तो इस संसार में है और संसार एक स्वप्न, एक कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | स्वप्न हमें उद्वेलित करता है, जबकि यथार्थ का ज्ञान हमें शांति प्रदान करता है | संसार के भोग स्वप्न मात्र हैं, उनसे शांति को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता | अतः शांति को उपलब्ध होने के लिए भोग-रस का त्याग करना आवश्यक है |
                     हमें भोग-रस का त्याग कर दूसरे रस की ओर अग्रसर होना चाहिए | परन्तु भोगों को त्यागा कैसे जाये ? भोगों का त्याग करना सम्भव ही नहीं है | जैसा कि कर्म-सिद्धांत कहता है कि प्रत्येक कर्म का फल भोग के रूप में प्राप्त होकर ही रहता है, ऐसे में भोगों के त्याग की कल्पना भी नहीं की जा सकती | हाँ, यह सत्य है कि हमें अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल वर्तमान जीवन में भोग के रूप में मिलता है | अतः उन कर्मों के फलस्वरूप मिले भोगों को भोगना अनुचित नहीं है | यहाँ भोगों के त्याग से अर्थ है, उन भोगों में आसक्त न होना | भोगों में आसक्त होने से कैसे बचा जा सकता है, इस बारे में ईशावास्योपनिषद् कहता है –
ईशा वास्यमिदंसर्वं यत्किंच्य जगत्यां जगत् |
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ||
अर्थात अखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतन संसार है; यह समस्त संसार ईश्वर से व्याप्त है | उस ईश्वर को साथ रखते हुए; त्यागपूर्वक इसे भोगते रहो | इसमें आसक्त मत होओ | धन, भोग्य पदार्थ आदि किसी के नहीं है | इस प्रकार इस मन्त्र को दृष्टिगत रखते हुए मिले हुए भोगों को भी त्यागपूर्वक भोग जा सकता है और विषय-भोग के प्रति अनासक्त हुआ जा सकता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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