Friday, August 25, 2017

गुरु के सूत्र - 20

गुरु के सूत्र – 20
चौथा सूत्र-रसमय जीवन(कल से आगे) -
                रंगशाला में नृत्य कार्यक्रम समय पर प्रारम्भ हुआ | तीनो नृत्यांगनाएं एक से बढ़कर एक प्रस्तुति दे रही थी | नृत्य और संगीत का तालमेल बहुत ही उच्च कोटि का था | महर्षि पतंजलि बार-बार आगे बढकर नृत्य और संगीत की प्रशंसा करते हुए दाद दे रहे थे | सभी शिष्य नृत्य और संगीत का आनंद ले रहे थे | एक शिष्य जिसक नाम चरित्र था, उसको अपने गुरु का इस प्रकार नृत्य और संगीत का रसास्वादन करना अनुचित लग रहा था | उसका ध्यान नृत्य और संगीत में कम और अपने आचार्य की भाव भंगिमाओं पर अधिक था | खैर ! मध्यरात्रि को आयोजन का समापन हुआ | सभी अपने अपने शयन कक्ष की ओर बढ़ चले | महर्षि पतंजलि से अपने शिष्य चरित्र की दुविधा अधिक समय तक छुपी न रह सकी | उन्होंने अपने उस शिष्य को संबोधित करते हुए कहा – ‘चरित्र ! मैं अनुभव कर रहा हूँ कि तुम किसी बड़ी दुविधा में हो, कहो क्या बात है ?’ चरित्र ने कहा – “आचार्य ! मेरी दुविधा है कि आपके द्वारा इस प्रकार नृत्य और संगीत का रसास्वादन करना कहीं चित्त वृति निरोध में बाधक तो नहीं है ?’ महर्षि पतंजलि, जो अष्टांग योग के प्रणेता हैं, ने कहा – ‘नहीं चरित्र ! नृत्य और संगीत को भोग-रस की तरह लेना ही चित्त वृति निरोध में बाधक है, इसे भाव-रस की तरह लेने से आप कला की केवल प्रशंसा ही करते है, उस कला को भोगते नहीं हैं | मैंने नृत्य और संगीत की उच्चतम कोटि की प्रशंसा की है, उन नृत्यांगनाओं की सुन्दरता की नहीं | सुन्दरता हमें भोग-रस प्रदान के लिए आकर्षित करती है और संगीत व नृत्य हमें भाव-रस प्रदान करता है | हमारा जीवन केवल भोग-रस प्राप्त के लिए नहीं ही है परन्तु वह भाव-रस को प्राप्त करने के लिए अवश्य है |’ इस उत्तर से चरित्र की दुविधा मिट गई और महर्षि पतंजलि के प्रति उसका आदर भाव और अधिक बढ़ गया |
                    महर्षि पतंजलि के जीवन का यह दृष्टान्त स्पष्ट करता है कि मनुष्य के जीवन में भोग और भाव, इन दो प्रकार के रसों में सूक्ष्म सा अंतर है | भोग-रस सुख-दुःख से व्यक्ति को मुक्त नहीं होने देता जबकि भाव-रस व्यक्ति को आनंद की अवस्था की ओर ले जाता है | भोग-रस अस्थाई रस है, जबकि भाव रस अखंड रस है | भोग-रस हमें आवागमन से मुक्त नहीं होने देता जबकि भाव-रस हमें मुक्ति की ओर ले जाता है | अज्ञान के कारण कई बार हम भोग-रस और भाव-रस के अंतर को समझ नहीं पाते हैं | योगाचार्य पतंजलि के इस दृष्टान्त से यह अंतर बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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