Saturday, August 26, 2017

गुरु के सूत्र – 21

गुरु के सूत्र – 21
रसमय जीवन (कल से आगे) -
                        भाव-रस हमें संसार में रहते हुए भी संसार में लिप्त नहीं होने देता | प्रत्येक प्राणी के लिए करुणा और सहृदयता रखना ही भाव-रस है | भक्ति का प्रारम्भ ही भाव के साथ होता है | भाव के अभाव में भक्ति केवल एक दिखावा भर बन कर रह जाती है, जो मूल्यहीन है |अतः भोग-रस को छोड़कर शांत-रस को प्राप्त कर भाव-रस में डूबना होगा, तभी हम गोविन्द को पाने की ओर अग्रसर हो सकते हैं | स्वामी शरणानन्द जी महाराज कहा करते थे कि भाव-रस अखंड है परन्तु अनन्त नहीं है | भाव-रस में सदैव ही द्वैत की अवस्था बनी रहती है, जबकि हमें इससे आगे बढ़कर अद्वैत तक पहुंचकर एकाकार होना है | कहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति को केवल भाव-रस पर आकर ही अटक नहीं जाना है | हमें उस रस को पाना है, जो अखंड भी हो और अनन्त भी हो | वह चौथा रस क्या है, आइये ! चलते हैं उस ओर |
                    रसपूर्ण जीवन का चौथा और सर्वोत्तम रस है, प्रेम-रस | स्वामी शरणानन्द जी महाराज के अनुसार प्रेम-रस अखंड भी है और अनन्त भी | अखंड और अनंत रस, जिसे प्रेम-रस कहा जाता है वह न तो कभी मध्य में आकर टूट सकता और न ही कभी समाप्त हो सकता है | अनंत केवल गोविन्द है और उसे अनंत प्रेम-रस से ही पाया जा सकता है | प्रेम कभी भी किसी से प्रतिदान में कुछ नहीं चाहता है | प्रेम स्वार्थी नहीं है | प्रेम में द्वैत है ही नहीं, प्रेम में केवल एकत्व है | प्रेम-रस से बढकर कोई दूसरा रस हो ही नहीं सकता | रस की सर्वोत्तम निधि प्रेम ही है और प्रेम पाकर, प्रेम बांटकर मनुष्य का जीवन सफल हो जाता है | अतः अपने जीवन को प्रेम-रस से परिपूर्ण कर ले | प्रेम के रसपूर्ण जीवन और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है | कबीर इस प्रेम के बारे में स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय |
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नांय ||
                    प्रेम में ‘मैं’ की समाप्ति हो जाती है और ‘मैं’ की समाप्ति पर जो शेष रहता है, वह है प्रेम से परिपूर्ण गोविन्द | प्रेम में एक ही रहता है, दूसरा बचता ही नहीं है | दो का एक हो जाना ही प्रेम है | भक्त का भगवान हो जाना, आत्मा का परमात्मा हो जाना |
   ते दिन गए अकारथी, संगत भई न संत |
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ||
                   कबीर गुरु और प्रेम को सपष्ट करते हुए कहते हैं कि मनुष्य जीवन के वे दिन व्यर्थ ही बीत गए, जिस दिन उसने किसी संत से सत्संग नहीं किया अर्थात किसी गुरु का सानिध्य प्राप्त नहीं किया | गुरु ही हमें प्रेम से सरोबार कर देता है, प्रेम-रस में डुबो देता है | प्रेम बिना तो मनुष्य का जीवन पाशविक जीवन है | भक्ति भगवान के प्रति प्रेम ही तो है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment