गुरु के सूत्र –
17
चौथा सूत्र –
रसमय जीवन (कल से आगे) -
दूसरा रस है- शांत-रस | इस शांत-रस में
सभी भोगों की कामनाएं शांत करनी होती है | यह शांत-रस किसी इन्द्रिय को जबरदस्ती दबाकर
नहीं पैदा करना चाहिए बल्कि मन को नियंत्रण में लेकर भोग-रस की कामना का त्याग कर शांति
के साथ शांत-रस का आनंद लेना चाहिए | आज मनुष्य विभिन्न प्रकार के भोग-रस में डूबा
हुआ है, इस कारण से उसमें शांति के अवतरण की कल्पना नहीं की जा सकती | भोग-रस में
आसक्ति के कारण व्यक्ति सदैव उन्हें अधिक से अधिक मात्रा में प्राप्त करने का
प्रयास करता रहता है | इन्द्रियों पर उसका नियंत्रण समाप्त हो जाता है | अशांति
उसे चारों ओर से घेर लेती है | यहाँ पर भोगों से दूरी बनाये रखना उसके लिए असंभव हो
जाता है | भोगों में आसक्ति न रखने का एक ही उपाय है, कामनाओं पर नियंत्रण |
इन्द्रियों को दबाना नहीं है बल्कि कामनाओं को दबाना है | मन में उठ रही कामनाओं को
रोककर ही इन्द्रियों को नियंत्रण में रखा जा सकता है | एक बार कामनाएं नियंत्रित
हो गयी तो फिर जो शांति-रस प्राप्त होता है, वह भोग-रस से भी अधिक आनंददायक होता
है |
हमारी समस्त इन्द्रियां और मन भी तो
परमात्मा के कारण है | ऐसे में इन्द्रियों का दमन करना तो परमात्मा के सृजन का
अनादर करना है | आप अगर स्वादेंद्रिय को नियंत्रण में रखने के लिए अपनी जिव्हा को
काटकर भी फैंक देंगे, तो क्या आपको भोजन का रस नहीं आएगा ? भोजन का रस आपको कल्पना
में मिलता रहेगा और उसको आप अपनी जिव्हा काटकर नियंत्रित नहीं कर सकते | भगवान् ने
आपको स्वादेंद्रिय दी है, स्वाद की अनुभूति के लिए | आपका मन एक विशेष स्वाद की और
अधिक अथवा सतत मिलते रहने की कामना करता है | अगर आपके मन में उसी स्वाद को
प्राप्त करने की कामना नहीं उठेगी तो फिर आप सुगमता से मिल रहे भोजन का रस
स्वादेंद्रिय से लेने को स्वतन्त्र है | भोजन न भी मिले तो आपके मन में किसी भी
प्रकार का विचलन नहीं होना चाहिए | यही शांत-रस है |
इस बारे में कठोपनिषद् कहती है –
इन्द्रियेभ्यः
परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः |
मनसस्तु परा
बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ||
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्
पुरुषः परः |
पुरुषान्न परं
किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः || कठो.-1/3/10-11||
अर्थात इन्द्रियों
से विषय बलवान है; विषयों से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से महान जीवात्मा होने से
वह अधिक बलवान है | उस जीवात्मा से अधिक बलवान है भगवान की अव्यक्त माया शक्ति
अर्थात प्रकृति; और सबसे श्रेष्ठ है परम पुरुष भगवान; उनसे अधिक श्रेष्ठ और बलवान अन्य कोई नहीं है | वही सबकी परम अवधि और वही सबकी
परम गति है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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