गुरु के सूत्र –
7
प्रथम सूत्र-
संतुष्ट जीवन (कल से आगे)
भगवान बुद्ध का एक शिष्य एक बार भिक्षा
के लिए गाँव के एक वैभवशाली व्यक्ति के घर गया | उस बौध भिक्षुक ने भिक्षा के लिए आवाज
लगाई | गृह स्वामी स्वयं बाहर आया | उसने देखा कि भिक्षुक के हाथ में जो काष्ठ का कटोरा
है, लकड़ी का जो भिक्षा पात्र है, वह गल सा गया है, क्षतिग्रस्त हो गया है | उसने भिक्षुक
के हाथ से वह कटोरा ले लिया और भीतर चला गया | भीतर से उसने एक बहुमूल्य स्वर्ण पात्र
लिया और उसमें भिक्षा सामग्री डाल कर बौद्ध भिक्षु को दे दिया | स्वर्ण पात्र को
देखकर भी बौद्ध भिक्षु के मन में कोई विचार नहीं आया | उसने उस कीमती भिक्षापात्र को
अपने हाथ में उसी प्रकार ले लिया जैसे वह सदैव उस काष्ठ पात्र को लिया करता था | वह
लौट चला, अपने बौद्ध मठ की तरफ |
किसी अन्य व्यक्ति ने बौध भिक्षु के
हाथ में वह बहुमूल्य स्वर्ण पात्र देख लिया | उसने किसी भी प्रकार उस स्वर्ण पात्र
को प्राप्त करने का विचार किया | वह उस भिक्षु का पीछा करने लगा | वह किसी ऐसे अवसर
की तलाश कर रहा था, जब वह भिक्षु मार्ग में अकेला हो और वह उस स्वर्ण पात्र को उससे
छीन सके | उस छोटे से गाँव में बौद्ध मठ कोई अधिक दूर नहीं था | उस व्यक्ति, जिसे चोर
कहा जा सकता है, को पूरे रास्ते उस पात्र को छीनने का कोई अवसर नहीं मिल पाया | बौद्ध
भिक्षु मठ में प्रवेश कर चूका था | अन्य बौद्ध भिक्षुकों के साथ बैठकर उसने भिक्षा
को प्रतिदिन की भांति ग्रहण किया |
रात हुई | सभी भिक्षुक विपशना के बाद
अपने अपने स्थान पर शयन करने के लिए चले गए | रात को शयन-कक्ष के आस पास अचानक हलचल
होने से उस भिक्षुक की नींद टूट गयी | उसको अपने शयन-कक्ष की खिड़की के पास किसी मानव
की छाया दृष्टिगोचर हुई | भिक्षु तत्काल ही सब कुछ समझ गया | वह तुरंत ही उठ खड़ा हुआ
और उस स्वर्ण पात्र को अपने हाथ में उठा लिया | भिक्षु खिड़की के पास पहुंचा और उस स्वर्ण
पात्र को खिड़की के रास्ते बाहर फैकते हुए ऊँची आवाज में बोला – ‘ले ! इसे ले जा | तूं
भी सोजा और मुझे भी सोने दे |’ भिक्षुक के मन में स्वर्ण-पात्र को इस प्रकार फैंक देने
के उपरांत भी किसी प्रकार का भाव नहीं आया | इसे कहते हैं, संतुष्टि में जीना | मैं
कहता हूँ कि उस धनाढ्य व्यक्ति ने काष्ठ पात्र लेकर स्वर्ण पात्र भिक्षुक को दे दिया
परन्तु अगर कोई व्यक्ति उसका वह काष्ठ पात्र भी छीन लेता और बदले में उसे कुछ भी नहीं
देता तो भी उस भिक्षुक के कोई फर्क नहीं पड़ता | ऐसा जीवन ही संतुष्टि का जीवन है अन्यथा
अभाव के सिवाय भला यहाँ इस संसार में है भी क्या ? गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते
भी हैं कि ‘संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ निश्चयः |’गीता-12/14| अर्थात जो व्यक्ति
स्वयं में ही संतुष्ट है और दृढ निश्चय वाला है वह योगी है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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