गुरु के सूत्र –
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प्रथम सूत्र –
संतुष्ट जीवन (कल से आगे)
इस बौद्ध भिक्षुक के दृष्टान्त
को यहाँ उद्घृत करने का मंतव्य यह है कि अभाव आपके मन की एक स्थिति है और संतोष भी
आपकी एक मनः स्थिति है | आपको अपने मन की स्थिति को परिवर्तित करना है | इस
परिवर्तन की प्रक्रिया को ही अध्यात्म की और जाना कहा जाता है | वास्तव में देखा जाये
तो किसी भी प्रकार का कोई अभाव कहीं पर है ही नहीं | धन का संचय कर धनवान होना कहीं
से भी अनुचित नहीं है, अनुचित है केवल धनवान ही बने रह जाना | अतः धन को सद्कार्यों
में लगा दें | जितना धन मिलता है, उसमें ही संतोष रखें | नहीं तो इस जीवन में मैंने
सदैव केवल धनवानों के पास ही धन का अभाव देखा है | संतुष्ट जीवन आपका प्रथम प्रयास
है, गोविन्द की और जाने के लिए | गुरु अपने इस मार्गदर्शन द्वारा आपको आश्वस्त
करता है कि परमात्मा की शरण में जाने पर भी आपको कभी भी कोई अभाव नहीं होगा | आचार्य
श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि मनुष्य के जीवन में अभाव उसकी कामनाओं के कारण
है और कामनाओं का कारण मन है | तीन प्रकार की कामनाएं यथा पुत्रेषणा, वित्तेषणा और
लोकेषणा व्यक्ति को अपने पाश में बाँध लेती है | ये तीनों एषणायें एक ही क्या कई
जन्मों में भी पूर्ण होकर मनुष्य को संतुष्ट नहीं कर सकती | इस प्रकार कामनाओं का
पूर्ण न होना, असंतुष्ट बने रहना है | असंतुष्ट भाव ही अभाव है | जब आप अपने आपको आध्यात्मिकता
में प्रवृत कर देते हैं, वासुदेव कुटुम्बकम का भाव उत्पन्न हो जाता है, तब समस्त संसार
ही आपका परिवार हो जाता है, समस्त संसार की सम्पति भी आपकी और ऐसे में मान सम्मान
की चाह तो कहीं मन में रह ही नहीं पाती | इस प्रकार स्पष्ट है कि आध्यात्मिकता में
कोई अभाव कहीं रहता ही नहीं है |
आज हमारी स्थिति ऐसी है कि दो कदम परमात्मा की ओर
बढाकर चार कदम पुनः संसार की ओर ले जाते हैं, इसका कारण एक मात्र यही है कि संसार
को त्याग देने पर आप के मन में अभाव का भय बना रहता है | इस अभाव के भय से आप
गोविन्द के मार्ग को त्याग देते हैं | गुरु आपको इस वास्तविकता से परिचय करता है
कि परमात्मा आपके जीवन में कभी भी कोई अभाव पैदा होने ही नहीं देगा | संतुष्ट जीवन
के बाद दूसरा सूत्र है, स्वाधीन जीवन का |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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