गुरु के सूत्र –
9
2.दूसरा सूत्र - स्वाधीन जीवन –
स्वाधीन होकर जीयें | पराधीन जीवन
अभिशाप है | जीवन में आप स्वयं के अधीन रहें दूसरों के अधीन नहीं | साथ ही साथ किसी
दूसरे को भी पराधीन करने का विचार मन में न रखें | स्वाधीन का अर्थ सांसारिक मन के
अधीन होना नहीं है बल्कि आत्मा (आध्यात्मिक मन)के अधीन होना है | आपकी आत्मा जो भी
कहेगी वह सदैव सत्य ही कहेगी | आपको अपनी आत्मा की बात सुननी है और फिर उसी का अनुसरण
करना है | किसी दूसरे व्यक्ति की बात को सुनकर उसके अनुसार चलना ही पराधीन होना है
| आपके अतिरिक्त आपका कोई मित्र नहीं है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं –
उद्धरेदात्मनाSत्मानं नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो
बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||गीता-6/5 ||
अर्थात अपने द्वारा
अपना संसार सागर से उद्धार करें और अपने आपको अधोगति में न डालें क्योंकि आप ही तो
स्वयं के मित्र है और आप ही अपने शत्रु हैं |
अपना स्वयं का मित्र होना अर्थात
स्वाधीन होना | गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी अपने काव्य श्री रामचरितमानस में कहा है
–‘पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं’ अर्थात जो व्यक्ति पराधीन है, उसको स्वप्न में भी सुख
प्राप्त नहीं हो सकता, वास्तविक जीवन में तो सुख की कल्पना तक नहीं की जा सकती | इसलिए
आध्यात्मिक जीवन के लिए यह आवश्यक है कि अपना जीवन स्वाधीनता पूर्वक जीयें | सभी प्रकार
की द्वंद्वात्मक स्थिति से स्वयं को दूर रखें |
स्वाधीनता के साथ जीने का अर्थ
है अपने स्वभाव के अनुसार जीना | प्रायः हम देखते हैं कि इस संसार में व्यक्ति एक
दूसरे को देखकर जी रहे हैं | हम सदैव यही सोचते रहते हैं कि उसके पास जो है, वह
मेरे पास क्यों नहीं है ? अथवा यह सोचते हैं कि अगर मैं ऐसा करता हूँ या करूँगा तो
लोग क्या कहेंगे ? हमारा सम्पूर्ण जीवन दूसरे के अनुसार जीने में ही व्यर्थ चला
जाता है | जीवन की यह उधेड़बुन आपको स्वाधीनता पूर्वक जीने नहीं देती | स्वाधीन
होकर जीने का अर्थ हैं स्वयं के विवेकानुसार जीना |
स्वाधीन होकर
जीना और स्वतंत्रतापूर्वक जीना, इन दोनों में समानता होते हुए भी एक मूलभूत अंतर
है | स्वतंत्र का अर्थ होता है स्वयं के द्वारा स्वीकार किये गए एक तंत्र के
अनुसार जीना | हमारा देश स्वतन्त्र है, इस देश के तंत्र को स्पष्ट करता है, यहाँ
का संविधान | हमें उस संविधान की पलना करनी ही पड़ती है | परन्तु हम जिस प्रकार अपन
निजी जीवन जीते हैं, उस तंत्र से थोडा अलग हटकर भी जीते हैं | जीवन की सभी बातें
संविधान में नहीं लिखी होती | हमारा आचरण कैसा होना चाहिए, उसको हमारा संविधान कुछ
सीमा तक नियंत्रित अवश्य कर सकता है, सम्पूर्ण रूप से नहीं | हम स्वाधीन होकर अपना
आचरण अधिक शुद्ध रख सकते हैं | स्वाधीन का अर्थ है अपने अधीन होकर जीना | स्वाधीन
जीवन ही हमारा धर्म कहलाता है | स्व-विवेक के अनुसार जीवन जीना ही धर्म के अनुसार
जीना है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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