Tuesday, August 29, 2017

गुरु के सूत्र - 24

गुरु के सूत्र – 24
चौथा सूत्र – रसमय जीवन (कल से आगे)
                        संत तो अपनी यात्रा सफल कर गए परन्तु क्या आज के संत इस यात्रा मार्ग से भटक नहीं रहे हैं ? ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदास जी महाराज सदैव इस बात के बारे में अपने साधकों को चेताते रहते थे | उनके यहाँ साधक और साधिकाओं के बैठने तक की अलग-अलग व्यवस्था रहती थी | परन्तु आज तो सब कुछ गडमड हो रहा है | ऐसे में हम इन कथित संतों के पतन के अलावा और देख भी क्या सकते हैं ? किसी एक अथवा दो सम्मानित व्यक्तियों के पतन को हम सनातन धर्म से नहीं जोड़ सकते | सनातन धर्म तो सदैव साधना पथ में आ रही ऐसी बाधाओं को प्रमुखता के साथ कहता आया है और उनसे बच के रहने को आवश्यक बताता है | अब यह तो व्यक्ति स्वयं पर निर्भर करता है कि वह ऐसी बाधाओं से पार निकल जाये अथवा इनमें उलझकर अपने स्तर से नीचे गिर जाये |
              भाव-रस से प्रेम-रस की और जाने पर ऐसी बाधाएं निश्चित रूप से आएँगी ही | इसका भी एक कारण है | भाव रस में दो का होना आवश्यक है,भक्त और भगवान, जबकि प्रेम-रस में एक का अर्थात स्वयं का अंत कर देना होता है | जहां दो है, वह अखंड तो हो सकता है, परन्तु अनंत नहीं | भाव-रस आपको प्रसिद्धि की और लेकर जायेगा ही, इसमें कोई दो राय नहीं है | प्रसिद्धि की अवहेलना करेंगे और स्वयं को अहंकार से मुक्त रखेंगे तो आपका “मैं” समाप्त हो जायेगा | प्रायः जहाँ प्रसिद्धि होती है वहां अहंकार का आगमन हो जाता है और अहंकार के आते ही दो में से एक अर्थात गोविन्द का साथ छूट जायेगा और अनेकों का साथ बढ़ता जायेगा | यह अनेक उसी संसार के हैं, जिसे आप कुछ समय पूर्व छोड़कर आये हैं | इस प्रकार आप जहां से सब कुछ छोड़कर आयें हैं, पुनः उसी स्थान पर लौट जाते हैं | केवल लौट ही नहीं जाते बल्कि उससे भी निम्न स्तर को प्राप्त हो जाते है | जहां आप भगवान को पाने से पूर्व  ही स्वयं को भगवान मानने लगते हों, वहां पतन के अतिरिक्त और कुछ शेष बचता ही नहीं है |  आप स्वयं भगवान तभी हो सकते हो जब आपने अपने “मैं” का अंत कर दिया हो | प्रेम में व्यक्ति के “मैं” का अंत हो जाता है और फिर किसी प्रकार की बाधा उसे प्रभावित नहीं कर सकती | अतः हमें भोग और प्रेम में अंतर को सपष्ट रूप से जानते हुए स्वयं की “मैं” को त्यागकर परमात्मा में लीन हो जाना होगा तभी यह गोविन्द की यात्रा सफल होगी |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकास्ग काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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